7. राजकुमार तैमूर और सिक्ख
अहमदशाह ने काबुल की ओर कूच करने से पूर्व अपने पुत्र तैमूर शाह को लाहौर का हाकिम
और बख्शी जहान खान को उसका नायब नियुक्त कर गया। उसने जम्मू के रणजीत देव को
स्यालकोट जिले के कुछ परगने भी इस विचार से दिये कि वह समय-असमय तैमूर शाह की सहायता
करेगा। ग्यारह वर्षीय राजकुमार तैमूर और उसके नवाब जहान खान के सामने जो सबसे बड़ा
और कठिन काम था, वह पँजाब में शान्ति स्थापित करना था। पहले तो उन्हें मुगलानी बेगम
का सामना करना पड़ा। पँजाब में मुगलानी बेगम का राज्य सन्तोषजनक सिद्ध न हुआ था।
अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली में छिपे खजानों का ज्ञान तो मुगलानी बेगम से प्राप्ति
कर लिया परन्तु जैसी कि बेगम को आशा थी, अब्दाली ने बदले में उसे पँजाब का राज्यपाल
नियुक्त नहीं किया। इस बात से वह रूष्ट थी। दूसरा भय तैमूर को सिक्खों की ओर से था,
जिन्होंने मीर मन्नू की मृत्यु के बाद अपनी शक्ति काफी सँगठित कर ली थी और अपनी छोटी
छोटी रियासतें भी स्थापित कर ली थीं। तीसरा भय भारत की अन्य जातियों से था, जैसे
अलावलपुर के अफगान, कसूर के पठान, कपूरथला और फगवाड़ा के राजपूत आदि। जिन्होंने
मुगलानी बेगम के शासनकाल में काफी शक्ति अर्जित कर ली थी। कहने को तो सारा पँजाब
अहमदशाह ने अफगान राज्य का अंग बना लिया था परन्तु उसकी वास्तविक सत्ता लाहौर नगर
और उसके आसपास के गाँव के अतिरिक्त और कहीं नहीं चल रही थी। बाकी के पँजाब में केवल
सिक्खों का आदेश ही चलता था। सन् 1757 ईस्वी में जब तैमूरशाह ने पँजाब की सत्ता
सँभालते ही सिक्खों की ओर से होने वाले खतरे को समाप्त करने के लिए उनकी बढ़ती हुई
लोकप्रियता को रोकने, उनके स्वाभिमान को गहरी चोट पहुँचाने के लिए, वैशाखी पर्व पर
श्री दरबार साहब जी (श्री अमृतसर साहिब जी) पर विशाल पैमाने पर आक्रमण कर दिया। इस
युद्ध में उसके पास तीन हजार सैनिक थे। इस समय सिक्ख इस विशाल आक्रमण का सामना नहीं
कर पाए वे जल्दी ही बिखर गए और कुछ रामरोहणी किले में शरण लेकर बैठ गए। शत्रु ने
पवित्र धार्मिक स्थल का बहुत अपमान किया। फिर उन्होंने रामरोहणी किले को घेरे में
लिया।
जब सिक्खों ने देखा कि हमारे पास प्रर्याप्त रसद तथा गोला बारूद
नहीं है, वह अपनी स्थिति अच्छी न देखकर एक रात अकस्मात किला खाली कर गए। इस किले का
पुर्ननिर्माण सरदार जस्सा सिंह इचोगिल रामगढ़िये ने किया था परन्तु जैसे ही शत्रु के
हाथ यह दोबारा आ गया तो उन्होंने इसे फिर से धवस्त कर दिया। तैमूर और उसके सेनापति
द्वारा दरबार साहिब के अपमान की सूचना जँगल में आग की तरह चारों ओर फैल गई। इसमें
सिक्खों के स्वाभिमान को भी गहरी ठेस पहुँची। जब इस अपमान की सूचना बाबा दीप सिंघ
जी को मिली तो वह इस कुकृत्य काण्ड को सुनकर आक्रोश में आ गए। बाबा दीप सिंघ जी ने
युद्ध की घोषणा की और युद्ध में शहीदी प्राप्त की। उन्हीं दिनों दो अफगान सिपाही जो
सरहिन्द नगर से लाहौर जा रहे थे ‘बुड्ढा रामदास’ क्षेत्र में मार दिये गए। जहान खान
ने अपराधियों को पकड़ने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी। अपराधी तो नहीं मिले परन्तु
उन्होंने स्थानीय सिक्ख चौधरी को यातनाएँ देकर मार डाला, जो कि एक लोकहित व्यक्ति
था। बस फिर क्या था, यह हत्याकाण्ड, जहान खान और सिक्खों के बीच एक और शत्रुता का
मुद्दा बनकर उभरा। इसके अतिरिक्त अदीना बेग जो कि जालन्धर दोआबा का फौजदार था,
अब्दाली के आक्रमण के समय उसका सामना न कर पाने की स्थिति में भागकर शिवालिक पर्वतों
में छिप गया था। उसके स्थान पर अब्दाली ने नसीरूद्दीन को जालन्धर का फौजदार नियुक्त
किया परन्तु अब्दाली की अफगानिस्तान की वापसी पर अदीना बेग दोबारा पर्वतों से निकल
आया और उसने नसीरूद्दीन को पराजित करके फिर से जालन्धर दोआबा पर अधिकार कर लिया। इस
पर तैमूर शाह ने उसे ही 36 लाख वार्षिक मालगुजारी पर जालन्धर का फौजदार स्वीकार कर
लिया परन्तु उसने अपना वचन नहीं निभाया। इस पर तैमूर ने उसके विरूद्ध सरफराज खान तथा
मुराद खान को भारी फौज देकर अदीना बेग को मजा चखाने के लिए भेज दिया। जब अदीना बेग
को इस धावे का पता चला तो उसने सोढी वडभाग सिंह करतारपुरिया के द्वारा सरदार जस्सा
सिंघ आहलूवालिया से सहायता की याचना की। सरदार जस्सा सिंघ जी एक अनुभवी राजनीतिज्ञ
थे। अतः उन्होंने इसमें सिक्खों की भलाई को मद्देनज़र रखते हुए सहायता देना स्वीकार
कर लिया। वास्तव में वह दुर्रानियों द्वारा गुरूद्वारा श्री थम्ब साहिब जी करतारपुर
तथा श्री दरबार साहिब, श्री अमृतसर साहिब जी के अपमान का बदला लेना चाहते थे।
सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया का संकेत प्राप्त होते ही खालसा,
दुर्रानी की सेनाओं से लोहा लेने के लिए वे निश्चित स्थान पर एकत्रित होने लगे।
दिसम्बर, 1757 को माहलपुर नगर की पूर्व दिशा में सिक्खों और दुर्रानी की सेना के
बीच झड़पें हुई। सिक्खों के लिए दुर्रानी के सैनिकों और अदीना बेग के सैनिकों में
भेद करना कठिन हो रहा था, इसलिए अदीना बेग के सैनिकों से कहा गया कि वे पहचान के
लिए अपनी पगड़ियों में हरी घास के बड़े-बड़े तिनके लटका लें। भले ही दुर्रानियों के
पास छोटी तोपें भी थी, फिर भी क्रोध्र में लाल हुए सिक्खों के सामने वे टिक न पाए
और मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। बलँद खां लड़ाई में मारा गया। मुराद खाँ भी सब कुछ
छोड़कर मैदान से खिसक गया। इस प्रकार दुर्रानी पराजित होकर तितर-बितर हो गए। सरदार
जस्सा सिंघ जी ‘सत श्री अकाल’ का जयकारा लगाता हुआ जालन्धर पर टूट पड़ा। तैमूर शाह
के समर्थक शआदत खान अफरीदी सिक्खों की मार झेल न सका। इस पर अदीना बेग ने जालन्धर
को धवस्त होने से बचाने के लिए सवा लाख रूपये भेंट किए। यह सिक्खों की शानदार विजय
थी। इससे सिक्खों की प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गए। इस पराजय का समाचार जब तैमूर शाह
को प्राप्त हुआ तो उसने खालसा के विरूद्ध 25,000 घुड़सवारों की सेना ख्वाजा उवैद खान
के नेतृत्व में भेज दी, किन्तु ख्वाजा सिक्खों के सामने न टिक सका और पराजित होकर
अपना सारा तोपखाना गँवाकर लाहौर लौट आया। सन् 1758 ईस्वी के प्रारम्भ में ही चारों
तरफ सिक्खों की धाक जम गई और वह समस्त क्षेत्र से लगान वसूलने लगे। अदीना बेग भले
ही अपने मुख्य शत्रु तैमूर शाह को पराजित कर चुका था, तब भी उसे भय था कि यदि
अहमदशाह दुर्रानी अब्दाली ने स्वयँ आक्रमण कर दिया तो शायद उसके साथी सिक्ख उसका
सफलतापूर्वक मुकाबला न कर सकें। इसके अतिरिक्त उसे चिन्ता थी कि सिक्ख आखिर कितनी
देर तक उसके युद्धों के भागीदार बनते रहेंगे। सिक्ख भी तो सत्ता के दावेदार हैं।
वे तो पहले से ही उस दिन की प्रतीक्षा में है जब वे गुरूजनों के
सपनों का अपना राज्य स्थापित कर सकेंगे। दूसरा उसे ज्ञात था कि इस समय खालसा ‘चड़दी
कला’ में है, उनका पँजाब के बहुत बड़े भू-भाग पर कब्जा हो चुका है, अतः उनकी शक्ति
दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। अतः वह सिक्खों को भीतर ही भीतर अपना प्रतिद्वन्द्वी
मानने लगा था। ऐसी राजनीतिक स्थिति में अदीना बेग ने हरिलाल और सदीक बेग के माध्यम
से मराठों से साँठ-गाँठ कर ली। उसने मराठों के कूच के दिन एक लाख रूपये अदा करने और
पाँच हजार रूपया विश्राम वाले दिन चुकाने का वचन देकर मराठा सरदार रघुनाथ राव को
लाहौर में आमँत्रित कर लिया। यह मराठा सरदार पेशवा वाली जी का भाई था। रघुनाथ राव 9
मार्च, 1758 ईस्वी को सरहिन्द पहुँचा, वहीं अदीना बेग और उसके साथी सिक्ख भी आ मिले।
खालसा पहले से ही सरहिन्द के विरूद्ध दाँत पीस रहा था। वे इस नगर को गुरूमारी नगरी,
घातक नगर कहते थे, इसलिए उन्होंने अदीना बेग से यह शर्त पक्की कर ली कि सरहिन्द पर
पहला हमला सिक्खों का होगा, तद्पश्चात् किसी और का होगा। चौथे आक्रमण से लौटते समय
अब्दाली ने अबदुसवइ खान मुहम्मदजई फौजदार को सरहिन्द का अधिकार सौंपा था। जई ने
1758 ईस्वी में ही किलेबन्दी की सुचारू व्यवस्था कर रखी थी।
इसके बावजूद वह बहुत दिनों तक घेराव को सहन न कर सका और वह किला
खाली करके भाग गया। खालसा सेनाओं ने सबसे पहले सरहिन्द में प्रवेश किया और उस नगर
की ईंट से ईंट बजा दी। सरहिन्द में प्रवेश करने में सिक्खों की प्राथमिकता को लेकर
मतभेद हो गया। सिक्खों और मराठों में इसी बात पर झड़पें भी हुईं परन्तु शीघ्र ही दोनों
पक्षों में संधि हो गई। सरहिन्द को जीतकर मित्र शक्तियाः मराठा, अदीना बेग एवँ खालसा
लाहौर नगर की ओर अग्रसर हुई। तैमूर शाह ने इन तीनों शक्तियों से एक साथ निपटने में
अपने को असमर्थ महसूस करने लगा। अतः वह समय रहते लाहौर खाली करके काबुल लौट गया। 20
अप्रैल, 1758 ईस्वी को अदीना बेग, रघुनाथ राव और सिक्ख सेनाओं ने सँयुक्त रूप से
लाहौर पर अधिकार कर लिया। इस अभियान में सिक्खों की तरफ से भाग लेने वाले थेः सरदार
जस्सा सिंघ आहलूवालिया, चढ़त सिंघ, शुकरचकिया, तारा सिंघ गौबा, जस्सा सिंघ रामगढ़िया,
हीर सिंघ, झंडा सिंघ इत्यादि। सिक्खों की कुछ सैनिक टुकड़ियाँ भागते हुए अफगानों के
पीछे पड़ गईं। उनकी बहुत सी युद्ध सामग्री नियन्त्रण में कर ली और बहुत से अफगान
सिपाहियों को बन्दी बना लिया। बाद में इन सैनिकों से श्री दरबार साहिब जी के सरोवर
को स्वच्छ करवाया गया, जिसे जहान खान तथा तैमूर ने मलबे से भरवा दिया था। रघुनाथ
राव के लिए पँजाब में दीर्घकाल तक टिकना बड़ा कठिन था, उसे जल्दी ही इस बात का ज्ञान
हो गया था कि पँजाब में सिक्खों की बढ़ रही शक्ति के सम्मुख स्थायी मराठा राज्य की
स्थापना असम्भव सी बात है।
सिक्ख अपने गुरूजनों की विचारधारा में सराबोर नए समाज के
निर्माण हेतु राजनीतिक बल प्राप्त करने के लिए सत्तर्क होकर खड़े थे। उसे जल्दी ही
यह अहसास हो गया कि सिक्खों को यदि मुगल इतनी अधिक यातनाएँ देने के बाद भी
निरूत्साहित नहीं कर सके तो वे अब उससे तो कभी भी दबने वाले नहीं हैं। हजारों मील
की दूरी से पँजाब में शिविर लगाने वाले मराठे भी पँजाब में स्वतन्त्र रूप में सत्ता
सम्भालने के लिए अपने को असमर्थ महसूस कर रहे थे। पूना की सरकार की आर्थिक स्थिति
ऐसी न थी कि वह पँजाब से मराठा सेना का भार वहन कर सके। पँजाब से वह सिक्खों के रहते
लगान वसूल नहीं कर सकते थे। इसके अतिरिक्त पँजाब की भीषण गर्मी तथा ठिठुरती सर्दी
सहन करने में भी वह अपने को असमर्थ पा रहे थे। अतः रघुनाथ राव ने पचहत्तर हजार
वार्षिक लेने का सौदा करके पँजाब अदीना बेग को सौंप दिया। इस प्रकार अदीना बेग का
सपना साकार हो गया। अदीना बेग सिक्खों की बढ़ रही शक्ति को अपने मार्ग की सबसे बड़ी
बाधा समझता था। वह ‘दल खालसा’ के सामूहिक जत्थेबंदी के प्रभाव एवँ उसके बल के बारे
में भी भली भान्ति परिचित था, इसके अतिरिक्त वह सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया और उसके
व्यक्तित्त्व को भी भली भान्ति जानता था परन्तु वह सिक्खों की शक्ति को सदैव के लिए
नष्ट करना चाहता था, जिससे वह बेखटक पँजाब पर शासन कर सके। सरदार जस्सा सिंह ने
जल्दी ही अदीना बेग की बदनीयती को ताड़ लिया। दूसरी तरफ सिक्ख भी पँजाब में अदीना
बेग को अपने पाँव पसारते देखकर प्रसन्न नहीं थे। अतः सिक्खों ने अदीना बेग से दो-दो
हाथ कर लेने का निश्चय किया। कादियां न्वार के निकट दोनों पक्षों में भीषण युद्ध
हुआ।
इस युद्ध में अदीना बेग का दीवान हरीमल मारा गया और आकिलदास भाग
खड़ा हुआ। इस प्रकार उनका बहुत सा माल असवाब सिक्खों के हाथ आ गया। ठीक इसी प्रकार
सिक्खों ने इन्हीं दिनों मजीठा क्षेत्र में शिविर डाले हुए गुलशेर खान को सम्मिलन
शक्ति से मार डाला। यह खान मीर मन्नू की तरह सिक्खों को यातनाएँ देने लगा था। इन्हीं
दिनों अदीना बेग को अधरँग का रोग हो गया और वह इसी रोग से 15 दिसम्बर, 1758 को मर
गया। अदीना बेग की मौत के बाद लाहौर में स्थित उसके नायब मिर्जा जान खान ने सिक्खों
से संधि कर ली। इस संधि को स्वीकार करने के पीछे यह रहस्य छिपा हुआ था कि ‘खालसा
जी’ मालवा और दुआबा क्षेत्रों में आसानी से अपने पैर जमा लें। इस समय मालवा में बाबा
आला सिंह जी का बोलबाला था। उसने खालसा दल की सहायता से एक बड़े क्षेत्र पर अधिकार
कर लिया था। इसमें सँदेह नहीं कि सन् 1758 ईस्वी के अन्त तक खालसा दल ने महान
सफलताएँ प्राप्त कर ली थी किन्तु अभी पश्चिम दिशा में अहमदशाह अब्दाली का खतरा
विद्यमान था और दुआबा और मालवा क्षेत्रों में भी पुरानी सरकारों के निष्ठावान सरदार
अभी तक सिक्खों के प्रति घृणा और द्वैष रखते थे। ऐसे लोगों में से एक था सदीक बेग।
परन्तु दूसरी ओर सिक्खों की सफलताओं और वीरता के कारनामों को देखकर पँजाब के हिन्दू
किसान शीघ्र ही सिक्ख धर्म में सम्मिलित होने लगे। यही नहीं बल्कि पँजाब के मुसलमान
किसान भी सिक्ख धर्म के आकर्षण से प्रभावित हुए बिना न रह सके। मुगलों और अफगान
शासकों के अत्याचारों के कारण स्वाभिमानी लोग सिक्ख बनकर उनके जत्थों की सहायता से
अत्याचारों का बदला लेने में सफल हो जाते थे परन्तु सिक्खों के उदारवादी सिद्धान्त
और मानव प्रेम अन्य धर्मावलम्बियों के लिए मुख्य आकर्षण का कारण थे, इसलिए प्रतिदिन
सैंकड़ों की सँख्या में लोग सिक्ख धर्म को अपनाते थे और उसी में अपना कल्याण समझने
लगे थे।
उस समय के इतिहास से पता चलता है कि मुगलों की ओर से सिक्खों पर
कोई कम अत्याचार नहीं हुए किन्तु यदि एक दिन सैकड़ों कत्ल होते तो दूसरे दिन हजारों
नये सिक्ख आ उपस्थित होते। इस प्रकार यह परवानों का काफिला दुल्हन की तरह मौत को गले
लगाने के लिए आपस में होड़ करते दिखाई देते। एक ओर सत्ताधारी शासक उनका विनाश करने
पर पूरा बल लगा देते थे परन्तु दूसरी ओर प्रजा में जनसाधारण उनके रिक्त स्थानों को
भरने के लिए स्वयँ को परवानों की तरह प्रस्तुत कर रहे थे। सन् 1759 ईस्वी में दल
खालसा के नायक सरदार जस्सा सिंह जी ने समस्त पँजाब के भू-भाग को अपनी ‘राखी’ रक्षा
में लेने के लिए कई स्थानीय शासकों से लोहा लिया। उन्होंने पहले सदीक बेग को
रणक्षेत्र में नीचा दिखाया तद्पश्चात् दीवान विशम्भर दास तथा राजा भूपचन्द को दो दो
हाथ करके पराजित कर दिया। उसके बाद कादियाँ क्षेत्र के मुगलों को नाको चने चबवा दिये।
इस प्रकार उन्होंने अपने विरोधियों को धीरे-धीरे समाप्त करके लगभग समस्त पँजाब में
छा गए परन्तु अभी लाहौर पर मराठा सरदार साबा जी पाटिल का कब्जा था, तभी अहमदशाह
अब्दाली ने भारत पर पाँचवा आक्रमण कर दिया। वास्तव में वह समस्त पँजाब के क्षेत्र
को अपने साम्राज्य का भाग मानता था। मराठों द्वारा तैमूर और उसके नायब जहान खान को
पँजाब छोड़कर काबुल की ओर भागने पर विवश करना, अहमदशाह के लिए एक असहनीय हानि थी। अतः
उसने अपना सम्मान फिर से बहाल करने के लिए लगभग 40,000 सैनिक लेकर मराठों को कुचलने
का लक्ष्य लेकर भारत पर हमला कर दिया।