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6. मुगलानी बेगम और अहमदशाह अब्दाली का चौथा आक्रमण

मुईयान उल्मुक अथवा मीर मन्नू की मृत्यु 2 नवम्बर, 1753 ईस्वी को हो गई। उसकी मृत्यु से पँजाब में बहुत अराजकता फैल गई। आगामी पाँच वर्षो तक तो पँजाब में कोई भी सुदृढ़ राज्य स्थापित ना हो सका, इसलिए वह काल विद्रोह और घरेलू युद्धों का काल समझा जाता है। जब दिल्ली के शहँशाह ने मीर मन्नू की मृत्यु का समाचार सुना तो उसने अपने ही अबोध बेटे महमूद को पँजाब का राज्यपाल नियुक्त कर दिया और मीर मन्नू के अबोध बेटे मुहम्मद अमीन को उसका सहायक नियुक्त कर दिया। वह बच्चों का प्रबन्ध का खेल कुछ दिन ही चला क्योंकि अब पँजाब का वास्तविक स्वामी अहमदशाह अब्दाली था, न कि दिल्ली का शँहशाह। मई, 1754 ईस्वी को बालक अमीन की मृत्यु हो गई। तदुपरान्त दिल्ली के नये बादशाह आलमगीर ने मोमिन खान को पँजाब का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। किन्तु मुगलानी बेगम ने उसकी एक न चलने दी और शीघ्र ही राज्यपाल के पद पर अपनी नियुक्ति करवा ली। वह बदचलन स्त्री थी और उसके भोग विलास की चर्चा घर घर में होने लगी। उसके व्यभिचार की गाथाएँ सुनकर कई एक सरदार नाराज और क्रोधित हो गए। इस पतित प्रशासन के विरूद्ध जनसाधारण के हृदय में विद्रोह उत्पन्न होने लगा। इस प्रकार जनता में असँतोष फैल गया। अतः उसे दिल्ली के मँत्री ने बन्दी बना लिया। उसके स्थान पर अदीना बेग को पँजाब का मुल्तान का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। जब अदीना बेग ने अपने सहायक जमीलउद्दीन को लाहौर भेजा तो मुगलानी बेगम ने ‘चार्ज’ देने से इन्कार कर दिया। उसने अपनी दर्द भरी कहानी अहमदशाह अब्दाली को लिखी और साथ ही यह भी कहा कि यदि वह भारत पर आक्रमण करे तो दिल्ली की सम्पूर्ण सम्पत्ति, जिसका उसे ज्ञान है, उसको बता देगी। इस लाभदायक निमन्त्रण के पहुँचने पर, अहमदशाह अब्दाली चौथे आक्रमण के लिए तैयार हो गया। दूसरा कारण यह था कि पँजाब में दिल्ली के मँत्री का हस्तक्षेप वह सहन न कर सकता था, क्योंकि पँजाब उसकी सम्पत्ति थी न कि दिल्ली के मँत्री की। इन्हीं कारणों से अहमदशाह अब्दाली ने चौथी बार आक्रमण कर दिया। अहमदशाह जो घात लगाए बैठा था, उसका लक्ष्य भारत की दौलत छीनकर अफगानिस्तान को अमीर बनाने का था।

केवल उस समय सिक्ख ही थे जो पँजाब को अपना देश मानते थे। यहाँ पर उनके पूर्वजों का जन्म, लालन-पालन और परलोकवास हुआ था। यहीं के गाँव में उनके घर-घाट थे, जहाँ उनकी माताएँ, बहनें, बेटियाँ और भाई-बँधु और कुटुम्बी बसे हुए थे। उनकी सारी धन सम्पदा, लहलहाते और उपजाऊ खेत थे, जिनकी रक्षा करने से ही वे सुखी रह सकते थे। यहीं पर उनके प्रिय गुरूओं ने धर्म पर प्राण न्योछावर करने का आदेश दिया था और इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने भीषण यातनाएँ झेली थीं। इस धरती का एक-एक कण सिक्ख गुरूजनों की चरण धूल से पवित्र हो चुका था। निष्कर्ष यह था कि सिक्खों का एक एक हाव-भाव, आर्थिक स्थिति एवँ जीवन का अस्तित्त्व पँजाब की धरती से पूरी तरह जुड़ा हुआ था। कोई भी पराया व्यक्ति भले ही वह मराठा हो या मुगल अथवा ईरानी, वे उन सभी से अपने जानमाल, धन-दौलत, घरबार और सम्मान की रक्षा के लिए वचनबद्ध थे। उन दिनों साधारण जनता तो नित्य प्रति की आपाधापी से परेशान थी। वह इस बात का अनुभव करने लगी थी कि यदि शाँतिमय एवँ निर्भीक जीवन व्यतीत करना है तो उसे सिक्खों का साथ देना होगा। वे समझने लगे थे कि सिक्ख ही उनके हितैषी हैं और उनके सिद्धान्तों पर टिकी सरकार ही वर्गभेद को मिटाकर सभी का कल्याण कर सकेगी। सिक्ख जत्थेदार मिसलें भी जनता की इन भावनाओं से परिचित थे, इसलिए उन्होंने इसी सँदर्भ में ‘राख प्रणाली’ रक्षा व्यवस्था का सूत्रपात किया। दूसरी तरफ अहमदशाह अब्दाली, अदीना बेग की गतिविधियों से सावधान रहता था। वह इस बात से परिचित था कि यदि अदीना बेग को थोड़ा सा भी अवसर मिल गया तो वह पँजाब पर अधिकार जमाने में सँकोच नहीं करेगा। इसके अतिरिक्त उसने अपने पँजाब के सभी फौजदारों को निर्देश दे रखे थे कि वे सिक्खों पर कड़ी नज़र रखे। नादिशाह के समय से उनका सिक्खों से वास्ता पड़ चुका था। उसे यह ज्ञात हो गया कि उनमें वे सभी गुण विद्यमान हैं जो कि व्यक्ति अथवा समुदाय को प्रभुसत्ता का स्वामी बनाने के लिए उपयुक्त होते हैं।

उसे वे शब्द भी याद थे जो कि नादिरशाह ने जक्रिया खान को सिक्खों के प्रति कहे थे कि कच्छे धारण करने वाले, बड़ी बड़ी लकड़ियों को दातुन के रूप में चबाने वाले, घोड़ों की काठियों को घर मानने वाले, ये साधारण फकीर नहीं हैं, ये तो निश्चित आदर्शों के धनी, अद्वितीय गरिमा को अपने हृदय में छिपाए ‘मरजीवड़ें सिर धड़ की बाजी लगाने वाले हैं, जिन्होंने खालसा राज्य स्थापित करने की प्रतिज्ञा कर रखी है, इसलिए इन्हें कठोरता से दबाना ही युक्तिसँगत होगा। दूसरी ओर जस्सा सिंघ आहलूवालिया और उसके सहयोगी सरदार भी संघर्ष को निरन्तर बनाए रखने के स्थान पर एक निर्णयानुसार अन्त के पक्ष में थे। उन्होंने अब तक गुरिल्ला युद्ध में निपुणता प्राप्त कर ली थी और अपने सद्व्यवहार द्वारा जनमानस का हृदय भी जीत लिया था। किसान और मज़दूर, गरीब और मज़लूम, उन्हें अपना रक्षक मानने लगे थे। क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, (केवल साम्प्रदायिक विचारों के अधिकारी वर्ग को छोड़कर) सभी उन्हें सम्मान देते थे और आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान पर खेलकर भी उनकी सहायता करते थे। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। सत्ताधरियों द्वारा सिक्खों पर किए गए अत्याचार और उनको बड़ी यातनाएँ देकर मारने के बावजूद भी उनकी निरन्तर बढ़ रही शक्ति इस बात का सच्चा प्रमाण था। अहमदशाह अब्दाली ने निमन्त्रण प्राप्त करते ही कँधार से प्रस्थान किया, 15 नवम्बर, 1756 को उसने अटक पार किया। 20 नवम्बर, 1756 ईस्वी को वह लाहौर में प्रविष्ट हुआ और 17 जनवरी, 1757 को उसने सतलुज नदी पार कर ली। अभिप्राय यह है कि वह बिना किसी विरोध के लाहौर और दिल्ली का स्वामी बन गया। दिल्ली निवासियों ने तो उसे अतिथि की भान्ति समझा, किन्तु दिल्ली में 28 जनवरी, 1757 को प्रविष्ट होते ही उसने वहाँ से अतुल धन सम्पत्ति प्राप्त करनी शुरू की। मुगलानी बेगम ने सभी छिपे कोषों का भेद बतला दिया था। इस प्रकार दिल्ली के सभी अमीरों-वजीरों की सम्पत्ति लूटी गई। स्वर्गीय शहँशाह मुहम्मदशाह की 16 वर्षीय कन्या से उसने बलात् विवाह कर लिया और आलमगीर द्वितीय की कन्या का विवाह उसने राजकुमार तैमूरशाह से कर दिया।

दिल्ली के बाद मथुरा, वृन्दावन और आगरा को लूटा गया और देवी देवताओं की मूर्तियों को गुस्से में चूर-चूर करके गलियों और बाजारों में रौंदा। इस प्रकार सहस्त्रों निर्दोषों की हत्याएँ की गई। अन्त में जब दिल्ली सरकार ने लोगों को बचाने के लिए कोई प्रबन्ध न किया तो प्रकृति ने निःसहायों की सहायता की। वह यह कि अहमदशाह अब्दाली की सेना को यमुना नदी का वह जल पीना पड़ा, जिसमें सैंकड़ों मनुष्यों के शव पड़े हुए सड़ रहे थे और जिनके कारण सारा जल दूषित हो गया था। इस प्रकार उसकी सेना में हैजे की बीमारी फैल गई, जिसके कारण प्रतिदिन लगभग डेढ़ सौ सैनिक मरने लगे। अन्त में अहमदशाह अब्दाली को दिल्ली से लौट जाना पड़ा। लूटी हुई दौलत को 28,000 गधें, खच्चरों और ऊँटों और घोड़ों आदि पर लादा गया। इसके अतिरिक्त 80,000 घुड़सवारों अथवा पैदल सिपाहियों में से हरेक के पास जो खजाने थे, साथ जा रहे थे। यह लूट का माल था। सिक्ख इन सभी घटनाओं को देख रहे थे। जहाँ वे जनता के सँकटों से पीड़ित थे, वहीं स्वाभिमानहीन मुगलों की चुप्पी पर आश्चर्य भी हो रहा था। वे अहमदशाह अब्दाली के मन की भावनाओं को जानते थे, इसलिए उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि वे विदेशी शत्रु के पैर न लगने देंगे। जिस समय अहमदशाह का बेटा तैमूर शाह आगे के दस्तों के साथ सरहिन्द नगर के निकट पहुँचा तो पटियाला के सरदार आला सिंह तथा अन्य सरदारों ने आक्रमण करके उनका खजाना लूट लिया। दूसरा धावा अवरकोट के समीप हुआ और तैमूर से बहुत सा धन छीन लिया गया। सिक्खों के धड़ाधड़ हमलों के कारण अब्दाली की सेना इतनी भयभीत हुई कि उनके शिविरों में ऐसी झूठी अफवाहों का बाजार गर्म हो गया कि सिक्खों ने तैमूर शाह को बन्दी बनाकर उसकी हत्या कर दी है। तैमूर शाह और जहानखान ने आक्रोश में आकर जालंधर वासी नासर अली खान से सहायता की याचना की और करतारपुर नगर के गुरूद्वारे श्री थम्ह साहिब को धवस्त कर दिया तथा अनेक गायों की हत्या करके उनके रक्त से उसे अपवित्र कर दिया। नगर को लूटा गया और निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। यह करतारपुर नगर पाँचवें गुरू, श्री गुरू अरजन देव जी का बसाया हुआ है, यहाँ उन दिनों सोढ़ी वडभाग सिंह जी निवास करते थे, जिनके पास आदि श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी की मूल प्रति थी, वह उसे समय रहते आदरपूर्वक शिवालिक की पहाड़ियों में सुरक्षित ले जाने में सफल हो गए। करतारपुर का उजड़ापन और पावन गुरूद्वारों का अपमान सिक्खों के लिए असहनीय था। दल खालसा के शिरोमणी नेता सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया जी ने सिक्ख सरदारों को इन अत्याचारों के विरूद्ध तीव्र कार्यवाही के लिए प्रेरित किया। जब अहमदशाह श्री गोइँदवाल साहिब जी के पँचम नौकास्थल को पार करके फतहाबाद के मार्ग द्वारा लाहौर की ओर मुड़ रहा था, तभी सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया जी ने उसका पीछा किया। जब भी उसका दाँव लगता था, उसके सैनिकों को मार डालता और माल-असवाब भी लूट लेता।

इस प्रकार सरदार जस्सा सिंघ जी ने अहमदशाह दुर्रानी के छक्के छुड़ा दिए। बिखरी हुई सेना को लेकर अहमदशाह लाहौर पहुँचने में सफल हो गया। उसने सिक्खों से बदला लेने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ भेजी। जिन्होंने कुछ एक सिक्खों को मार डाला और बहुत सारों को बंदी बना लिया। सारे अमृतसर नगर को शत्रु ने बुरी तरह लूट लिया। वहाँ के बहुत से भवनों को धवस्त कर दिया गया और रामदास सरोवर (पावन अमृतकुँड) का भी अपमान किया गया। इतनी बड़ी हानि के बावजूद भी सिक्खों ने अहमदशाह अब्दाली का पीछा ना छोड़ा। जब वह काबुल लौट रहा था तो सरदार चढ़त सिंह शुकरचकिया ने अपने साथियों सहित उस पर कई बार आक्रमण किए और वे बहुत सा माल असवाब लेकर चम्पत होने में सफल हो जाते। जब अफगान सेनाएँ रात में आराम करने के लिए, साँयकाल में शिविर लगा रही थी तो सरदार चढ़त सिंघ अपने साथियों सहित उन पर टूट पड़ा। वह रात के अंधेरे में कुछ देर तक लड़ता और जो कुछ भी हाथ लगता, उसे लेकर भाग जाते। अहमदशाह की तीव्र इच्छा थी कि सिक्ख उससे प्रत्यक्ष आमने सामने का युद्ध करें, परन्तु चढ़त सिंह ने उसे ऐसा अवसर नहीं दिया और उसे तब तक निरन्तर उल्लू बनाता रहा, जब तक वह सिन्ध नदी को पार नहीं कर गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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