26. सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया, जाट,
रूहेले और बादशाह आलम
सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी दल खालसा के सेना नायक होने के कारण पँजाब से बाहर
भी कई सैनिक अभियानों के लिए जाते रहे थे और उन्होंने भरपूर सफलता अर्जित की। इन सभी
सैनिक अभियानों में से कुछ तथ्य उभरकर सामने आते हैं। सबसे पहले तो उन्हें दिल्ली
के प्रधानमँत्री नजीबुद्दौला की उन्नति फूटी आँखों न भाती थी। इसका कारण यह था कि
वह विदेशी सम्राट अहमदशाह अब्दाली का सँरक्षण प्राप्त करने के लिए भारत की अपेक्षा
अफगानिस्तान से अधिक प्रेम करता था। दूसरा, आहलूवालिया जी को यह पक्का विश्वास हो
गया था कि सिक्ख एक नई शक्ति के रूप में उभर चुके हैं और वह पँजाब को आत्मनिर्भर तथा
स्वायत शासन बनाकर देश की रक्षा के लिए सक्षम हो गए हैं। तीसरा, वह दिल्ली में भी
सिक्खों का दबदबा देखना चाहते थे ताकि वहाँ के शासक मालवा क्षेत्र में सिक्खों को
अपनी-अपनी राजसत्ता स्थापित करने में बाधक न बनें। इसके अतिरिक्त आहलूवालिया जी इस
बात के लिए भी उत्सुक थे कि समूह भारतवासी सिक्ख धर्म के सँस्थापक गुरू साहिबानों
के उद्देश्यों तथा उपदेशों की तरफ आकर्षित हों ताकि इस ढँग से सिक्खों की शक्ति का
सरलतापूर्वक प्रसार हो सके। उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया
जी ने सबसे पहले नजीबुद्दौला से निपटना चाहा। परिणामस्वरूप सितम्बर, 1765 ईस्वी में
दल खालसा नजीबुद्दौला की ओर बढ़ चला। इस अभियान से पूर्व यह निश्चय किया गया था कि
सिक्ख एक साथ दोनों ओर से नजीबुद्दौला के क्षेत्र पर धावा बोल दें, इसलिए तरूण दल
के सैनिक तो बूडिऋया के नौका स्थल से यमुना को पार करके सहारनपुर क्षेत्र में
प्रवेश कर गए। दूसरी तरफ बुड्ढा दल ने जस्सा सिंह जी के नेतृत्त्व में अन्य सरदारों
सहित पच्चीस हजार घुड़सवार लेकर दिल्ली के उत्तरी भाग में स्थित नजीबुद्दौला की
जागीरों पर धावा बोल दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों दल केवल स्थिति को भाँपने
के लिए आए थे और इसी कारण शीघ्र ही दीवाली मनाने के लिए 14 अक्तूबर, 1765 को श्री
अमृतसर साहिब जी की ओर लौट पड़े। दीवाली बीतने के कुछ ही समय पश्चात् सरदार जस्सा
सिंह आहलूवालिया ने अन्य सिक्ख सरदारों सहित नजीबुद्दौला के क्षेत्रों पर दोबारा
धावा बोल दिया।
मुज्जफरगढ़ के किले में शामली नामक स्थान पर सिक्खों और रूहेलों
के मध्य भीषण युद्ध हुआ। उस समय नजीबुद्दौला के पास एक बड़ा तोपखाना था, किन्तु
सिक्खों ने गन्ने के खेतों की आड़ लेकर गोलियों की बौछार से नजीबुद्दौला को
हैरान-परेशान कर दिया। शाम तक डटकर युद्ध होता रहा। दूसरे दिन फिर से घमासान लड़ाई
हुई। रूहेलों के विख्यात सेनापति रणभूमि में मारे गए। इस पर सिक्खों ने नजीबुद्दौला
के पुत्र जाबिता खान पर धावा बोल दिया और उसे घेरे मेंले लिया परन्तु नजीबुद्दौला
ने तोपखाने का लाभ उठाते हुए सिक्खों के घेरे को तोड़ने में कामयाबी प्राप्त कर ली,
दिन भर लड़ाई चलती रही, परिणाम न निकलने के कारण सिक्ख अंधेरे का लाभ उठाकर लौट गए।
उसी वर्ष 22 अक्तूबर, 1767 ईस्वी को दीवाली के अवसर पर सिक्ख फिर पानीपत के क्षेत्र
में जा उतरे। उनका मुकाबला करने के लिए नजीबुद्दौला फिर सेना लेकर अग्रसर हुआ परन्तु
इस बार उसने महसूस किया कि सिक्खों को रोकना उसके बस में नहीं है। उन दिनों सिक्खों
ने लगभग समूचे पँजाब पर अपना अधिकार स्थापित कर रखा था। उन्होंने अहमदशाह अब्दाली
को भी पराजित करके वापिस लौटने पर विवश कर दिया था। अब यह निश्चित सा जान पड़ता था
कि सिक्ख जल्दी ही दिल्ली पर भी हावी होने वाले हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में
रखकर नजीबुद्दौला ने सोचा कि यदि इसी तरह सिक्खों की शक्ति बढ़ती रही तो ऐसी दशा में
मुगल अपनी राजधानी से भी हाथ धो बैठेंगे और मुगल शहजादों अथवा मलका जीनत महल की
रक्षा करना भी उसके लिए असम्भव हो जाएगा। प्रधानमँत्री नजीबुद्दौला को ऐसी सम्भावित
स्थिति का आभास हो रहा था, अतः उसने अपनी लाचारी की सूचना इलाहबाद में विराजमान
शाहआलम द्वितीय को इस प्रकार भेजी। उसने पत्र में निम्नलिखित विचार प्रकट किएः "मैंने
अब तक नौजवान शहजादों एवँ राजमाता की पूरी लग्न एवँ निष्ठा से सेवा की है किन्तु अब
उनकी रक्षा के लिए जितने साहस की आवश्यकता है, वह मेरे पास नहीं रहा है, इसलिए हज़ूर
को राजधानी पधारकर अपनी रक्षा स्वयँ करनी चाहिए। दास की ओर से हजूर के समक्ष स्पष्ट
शब्दों में प्रार्थना है कि वह अब बदली हुई परिस्थितियों में उनकी सेवा के अयोग्य
हो गया हूँ।"
नजीबुद्दौला ने इसी आशय का एक पत्र राजमाता जीनत महल को भी लिखा
कि वह दिल्ली की रक्षा करने में असमर्थ है। यदि वह चाहे तो उन्हें शाही खानदान अन्य
सदस्यों के पास, बादशाह शाहआलम के पास इलाहाबाद स्थानाँतरित कर दें क्योंकि अब
सिक्ख इतना जोर पकड़ चुके हैं कि वह स्वयँ अपनी जान बचाने में सक्षम नहीं रह गया है।
अतः उसकी इच्छा है कि वह राजनीतिक जीवन से सँन्यास लेकर मक्का अथवा किसी एकान्त
स्थान में शरण लेकर अपनी आयु के शेष दिन व्यतीत करे। यह पत्र लिखने के कुछ ही दिनों
बाद नजीबुद्दौला ने अपने पुत्र जाबिता खान के सिर पर पगड़ी बाँधकर अपनी जीवित अवस्था
में ही उसे अपने राजनीतिक एवँ सामाजिक अधिकारों को सौंप दिया। उसने जाबिता खान को
बाहरी शक्तियों से निपटने की भी पूरी तरह छूट दे दी और उसे यह भी निर्देश दिया कि
किसी अन्य से परामर्श लिए बिना अपनी इच्छानुसार सिक्खों से युद्ध अथवा समझौता करके
फैसला कर सकता है। नजीबुद्दौला ने दिल्ली स्थित नायब सुलतान खान को वापिस बुला लिया।
ऐसे में जाबिता खान ने लहारी तथा जलालाबाद में तुरन्त सिक्खों से संधि कर ली।
नजीबुद्दौला के इस्तीफे से इलाहाबाद स्थित शाहआलम की चिन्ता बढ़ गई। उसकी माता तथा
उत्तराधिकारी को अब कौन बचाएगा, वह इस दुविधा में पड़ा हुआ था। यदि वह अपने परिवार
को इलाहाबाद में बुला ले तो हरियाणा एवँ पँजाब के लगभग सभी क्षेत्रों में प्रभुत्व
स्थापित कर चुके सिक्ख बिना किसी बाधा के दिल्ली में आ घुसेंगे। तब उन्हें वहाँ से
निकालना बड़ा दुष्कर कार्य होगा। वह समझ रहा था कि यदि सिक्खों ने एक बार दिल्ली पर
आधिपत्य स्थापित कर लिया तो वह दिल्ली की गलियों में भटकते हुए हज़ारों मुगल शहजादों
से किसी एक की पीठ थपथपाकर उसे सिँहासन पर बैठा देंगे। तदनन्तर वे उसके नियमित रूप
से बादशाह के पद पर आसीन होने की घोषणा करके अपने पिट्ठे बादशाह के नाम पर मुगल
साम्राज्य को हथिया लेंगे। इन सभी मनोवेगों के कारण शाहआलम सदा परेशान रहता था।