39. देहावसान
महीना ज्येष्ठ संवत् 1896 (मई, 1839) में महाराजा साहिब जी को अधरँग का सख्त दौरा
पड़ गया। लाहौर, अमृतसर तथा अन्य स्थानों के प्रसिद्ध हकीमों ने अपना बहुत जोर लगाया।
अँग्रेज सरकार ने भी योग्य डॉक्टर भेजा परन्तु आराम नहीं आया। रोग बढ़ता ही गया और
शरीर क्षीण होता गया। अपना अन्तिम समय समीप जानकर उन्होंने अपने सभी सम्बन्धी,
सरदारों, वजीरों, जरनैलों तथा योद्धाओं को बुलाकर हजूरी बाग में अन्तिम दरबार किया।
वो बीमारी की दशा में पालकी में बैठकर दरबार में आए। जिस पँजाब के शेर का नाम सुनकर
काबुल कँधार की दीवारें काँपती थीं, जिसकी गर्ज सुनकर शत्रुओं के खून सूखते थे तथा
दिल काँप जाते थे, जिसकी सपाट रवानगी के आगे अटक जैसे भारी दरिया भी शीघ्र अटक जाते
थे, वे आज निढ़ाल हुआ पालकी में पड़ा था। उसकी दशा देखकर सब दरबारियों की आँखें तर हो
गई और वे फूट पड़े। महाराजा साहिब ने सबको सम्बोधित करके कहा, ‘खालसा जी, ऐसा प्रतीत
होता है कि मेरा अन्तिम समय समीप आ गया है। अब कुछ दिनों का ही मेला है पर करतार का
भाणा ऐसे ही है। इसके आगे सिर झुकाना ही बनता है। मेरी अन्तिम इच्छा तथा अन्तिम
सँदेश यही है कि जिस शक्ति तथा सल्तनत को हमने अकाली जी, नलुआ जी तथा अनेकों अन्य शूरवीरों का खून बिखेरकर और आप सबकी मिली जुली हिम्मत तथा कुर्बानी के साथ कायम किया
है। उसको कमज़ोर तथा नाश न होने देना। देखना कहीं आपसी फूट का शिकार होकर पड़ौसियों
का शिकार न बन जाना। शत्रुओं की चालों से सावधन रहना। आजादी मुझे जान से प्यारी है।
अकालपुरख की कृपा तथा आपके बाहुबल द्वारा मैंने पँजाब को परदेशी राज्य के हाथों से
निकाला है। कहीं इसकी गर्दन पर फिर विदेशियों का हाथ न टिका देना। यदि किसी गैर का
पैर पंजाब की धरती पर चलेगा तो वह मेरी छाती को पीसेगा। मुझे इस दुखदायी अपमान से
बचाए रखना, पँजाब की आजादी को सँभालकर रखना। यदि तुम एक मुट्ठी तथा एक जान होकर
रहोगे तो तुम्हारी हवा की ओर भी कोई नहीं देख सकेगा। तुम आजाद रहोगे, मेरी आत्मा
आजाद रहेगी। अब अधिक कुछ कहने का समय नहीं है। टिक्का खड़क सिंघ को मेरे सामने लाओ।’
महाराजा साहिब ने आगे संवत् 1873 (सन् 1816) में टिक्का खड़क सिंघ को राजतिलक दिया
था और अपना उत्तराधिकारी, अपने पश्चात् सिहाँसन पर बैठने का अधिकारी नियुक्त किया
था। अब उन्होंने टिक्का खड़क सिंघ के माथे पर केसर का तिलक लगाया और उसकी बाँह राजा
ध्यान सिंह डोगरा के हाथ में पकड़ाकर कहा ‘मेरे स्थान पर महाराजा, खड़क सिंघ होंगे,
आप इनके वजीर होओगे। इनका ख्याल रखना।’ राजा ध्यान सिंघ ने महाराजा खड़क सिंह का
वफादार तथा राजभक्त रहने की सौगँध खाई। सरदारों तथा दरबारियों ने महाराजा खड़क सिंह
को नजराने पेश किए। फिर महाराजा रणजीत सिंघ की इच्छा के अनुसार खजाने के दरवाजे खोले
गए और गरीबों को दान दिए गए। पचास लाख रूपये इस प्रकार बाँटे गए। इसके पश्चात्
उन्होंने हुक्म दिया कि कोहिनूर हीरा ओर कुछ और हीरे जवाहरात श्री हरिमंदिर साहिब
जी अमृतसर की भेंट किए जाएँ परन्तु राजा ध्यान सिंघ और जमादार खुशहाल सिंघ ड्योढ़ी
वाले ने अगर-मगर कर दी। उतने समय में महाराजा साहिब को बीमारी का दौरा पड़ गया और वे
बेहोश हो गए। इस दशा में दरबार समाप्त हो गया। महाराजा साहिब जी की पालकी फिर किले
में ले जाई गई। बीमारी ज़ोर पकड़ती गई। अन्त में 15 आषाढ़, संवत् 1896 (27 जून, सन्
1839) को वे महाबली, निर्भय योद्धा, शूरवीर जरनैल, धर्मात्मा, महादानी, नीतिवान,
पँजाब को गैरों व आततायियों से आजाद करवाने वाला, पँजाब का शेर चलाना कर गया। सारे
देश में शौक की परत बिछ गई। सबे मुँह से स्वतः ही यह शब्द निकलते थे कि पँजाब का
सुहाग लुट गया। उस स्थान पर बाद में आलीशान समाधि बनाई गई।