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38. सरदार हरी सिंह नलुआ

महाराजा रणजीत सिंघ जी ने पेशावर पर मुकम्मल कब्जा कर लिया था। कुँवर नौनिहाल सिंघ वहाँ का हाकिम था। सरदार हरी सिंघ नलुआ वहाँ का बड़ा फौजी अधिकारी तथा कुँवर साहिब का खास सलाहकार व सहायक था। पेशावर का सिक्ख राज्य का अंग होना और उसमें सिक्ख हाकिम और खासकर कि सरदार हरी सिंघ नलुआ जैसे शूरवीर सिक्ख जरनैल की मौजूदगी, काबुल के बादशाह दोस्त मुहम्मद खाँ और सरहदी पठानों को बहुत चुभती थी। हमने देखा कि संवत् 1892 (सन् 1835) में उसने पेशावर पर आक्रमण भी किया पर मार खाकर घर को भाग गया। सरदार हरी सिंघ जी ने सरहदी इलाके का प्रबन्ध ठीक करके, इस इलाके की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने काबुल की ओर से हिन्दुस्तान में आने के बड़े रास्ते दर्रा खेबर को रोकने का प्रबन्ध करने का फैसला किया। इस नाकाबंदी की गर्ज को ध्यान में रखकर उसने दर्रा खैबर के बिल्कुल मुँह की ओर जमरोद के किले के ऊपर कब्जा कर लिया और उस किले को नए सिरे से तैयार करके पक्का किया गया। सरदार महासिंह को वहाँ का फौजदार नियुक्त किया गया और भी बहुत से किले बनाए गए। पेशावर तथा जमरोद की राह पर एक किला बनवाया जिसका नाम ‘बुर्ज हरी सिंह’ रखा गया। यह किला बाड़ा नदी के किनारे पर तैयार किया गया। दरिया काबुल के किनारे के पास मिचनी का किला बनाया गया। हशत नगर, बिजौर तथा गँधर की राह रोकने के लिए शँकरगढ़ के किले का निर्माण किया गया। इस किलाबंदी के फलस्वरूप इस पठानी इलाके में पूर्ण शाँति हो गई और पठानों पर सिक्खों का तथा खास करके सरदार हरी सिंघ जी का दबदबा कायम हो गया। सरहदी इलाके में सिक्ख फौज भी काफी थी। पेशावर के इलाके में आठ पलटनें तथा पन्द्रह तोपें थीं। यह सब कुछ देखकर दोस्त मुहम्मद खाँ को पिस्सू पड़ गए। दर्रा खैबर का रूक जाना उसके लिए बहुत दुखदायी था। उसको अपने घर की चिन्ता हो गई। उसको डर हो गया कि महाराजा रणजीत सिंघ की फौजें मेरी सरहद के बहुत समीप आ डटी हैं जिसके कारण जलालाबाद और काबुल उसकी मार में आ गए हैं। यह सब कुछ देख सोचकर वह घबरा गया। उसने युद्ध के लिए तैयारी आरम्भ कर दी। वैशाख संवत् 1894 (अप्रैल, सन् 1837) में दोस्त मुहम्मद खाँ ने सिक्ख राज्य के विरूद्ध जेहाद करने का ऐलान कर दिया और पठानों को इसमें शामिल होने तथा सहायता करने के लिए ललकारा। उसने अपने पुत्र मुहम्मद अकबर खाँ की कमान में बहुत तकड़ी फौज पेशावर पर आक्रमण करने के लिए भेजी। हज़ारों पठान इस सेना के साथ मिल गए। दर्रा खैबर पार करके वे जमरौद तक पहुँच गए। उस किले में उस समय सरदार महा सिंघ जी की कमान में मुश्किल से 800 सिंघ ही थे। सरदार हरी सिंघ जी पेशावर में बुखार से बीमार थे।

सरदार हरी सिंघ जी के वहाँ पर न होने की खबर सुनकर पठानों का उत्साह और भी बढ़ गया। उन्होंने 28 अप्रैल 1837 को जमरौद के किले की दीवारों पर गोले बरसाने शुरू कर दिए। सरदार महा सिंघ ने भी आगे से तोपें चलाईं और शत्रु दल को रोके रखा। सारा दिन युद्ध होता रहा। पठानों ने अगले दिन भी गोलियों की वर्षा जारी रखी। वे किले की एक दीवार गिराने में सफल हो गए परन्तु उनको किले में जाने का साहस नहीं हुआ। आगे से सभी सिंघ अपनी जान हथेली पर लेकर शेरों की तरह शत्रु सेना पर टूटकर पड़ रहे थे। रात को रेत की बोरियों से इस टूटे हुए स्थान को बँद कर दिया गया। साथ ही सरदार हरी सिंघ जी की ओर पत्र लिख दिया गया। पत्र मिलते ही बीमारी की दशा में ही सरदार हरी सिंघ जी जब दस हज़ार फौज लेकर दनदनाते हुए जमरौद की ओर चल पड़े और बहुत ही जल्दी वहाँ पहुँच गए तो किले में घिरे सिंघों को बहुत प्रसन्नता हुई। सरदार हरी सिंघ जी के शूरवीर, पठानों पर इस प्रकार जा झपटे जैसे भूखे शेर शिकार पर पड़ते हैं। सिंघों और पठानों की भयानक लड़ाई हुई। सिंघों ने पठानों के छक्के छुड़ा दिए और लाशों के बहुत से ढ़ेर लगा दिए। अन्त में पठानी लश्कर में भगदड़ मच गई। वह 14 तोपें तथा अन्य बहुत सा जँगी सामान छोड़कर भाग लिए। सिंघों ने काफी दूर तक उनका पीछा किया। सरदार निधान सिंघ पँजहथा उनके पीछे बहुत दूर चला गया। आगे से काबुल से नये आए एक फौजी दस्ते ने उसका मुकाबला करना शुरू कर दिया। वे तथा उनके साथी घेरे में आ गए। सरदार हरी सिंघ नलुआ जी उसकी सहायता के लिए भागे। खैबर के पास कुछ पठान छिपे बैठे थे। उन्होंने सरदार हरी सिंघ नलुआ पर बन्दूकों की गोलियों से आक्रमण किया। उनको दो गोलियाँ लगीं, एक कमर में और एक पेट में। सख्त घायल हो चुके खालसा जरनैल ने उन छिपे हुए पठानों को जा घेरा और सबको पार लगाया। सरदार हरी सिंघ जी के घावों में से लहू की धारें बह रहीं थी। वह कमजोर ही कमजोर होते गए। उनको किले में लाया गया और उनके घावों को बाँधा गया परन्तु उनकी जान न बचाई जा सकी। उनकी आत्मा गुरू चरणों में जा विराजी। सिक्ख राज्य का लौह स्तम्भ गिर गया। उनके शरीर त्याग देने की खबर को उतने समय तक गुप्त रखा गया जब तक कि पठान पूरी तरह दहशत खाकर घरों की ओर भाग नहीं गए और मैदान से दूर नहीं पहुँच गए। जब महाराजा साहिब को अपने प्यारे व अद्वितीय बहादुर जरनैल की शहीदी की सूचना मिली तो उनको अति दुख हुआ। उनके आँसू बह निकले परन्तु वे शीघ्र ही सँभल गए और तकड़ी सेना लेकर पेशावर की ओर चल पड़े। वहाँ जाकर उन्होंने शहीद जरनैल को श्रद्धाजँलि अर्पित की और उसके द्वारा आरम्भ किये गए काम को पूर्ण किया। कुछ समय तक वहाँ रहने के पश्चात् इलाके में पूर्ण तौर पर शाँति का वातावरण बनाकर महाराजा रणजीत सिंघ जी वापिस लाहौर आ गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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