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35. पेशावर सिक्ख राज्य में शामिल

हम पहले वर्णन कर चुके हैं कि सैयद अहमद ने सीमा पर जो गड़बड़ की थी उसमें महाराजा साहिब की ओर से निश्चित किया गया। पेशावर हाकिम यार मुहम्मद खाँ लड़ाई में मारा गया। महाराजा साहिब ने उसके स्थान पर उसके भाई सुलतान मुहम्मद खाँ को पेशावर का हाकिम बनाया था परन्तु सुलतान मुहम्मद खाँ योग्य तथा विश्वसनीय सिद्ध न हुआ। वह पठानों को शह देकर भड़काता और उकसाता रहता था। महाराजा साहिब ने नित्य प्रति के झगड़े को समाप्त करने के लिए पेशावर को पूर्ण तौर पर सिखों के राज्य में शामिल करने का फैसला कर लिया। उन्होंने संवत् 1891 (सन् 1834) में अपने पोते कुँवर नौनिहाल सिंघ और सरदार हरी सिंघ नलुआ की कमान में जबरदस्त फौज पेशावर को भेजी। पठानों ने पेशावर शहर की किलाबँदी कर ली ओर खालसा फौज का डटकर मुकाबला किया परन्तु अन्त में खालसा की जय हुई। पठान हारकर भाग गए। उनका नेता खान मुहम्मद खाँ सख्त घायल हो गया। वह लड़ाई के मैदान से भागता हुआ पकड़ा गया। कुँवर नौनिहाल सिंघ ने उसकी बहादुरी की प्रशँसा की और उसके घावों की मरहम पट्टी करवाई। नित्य प्रति के नियमानुसार खालसा फौज को हुक्म था कि शहर में किसी प्रकार की लूटमार या तबाही न की जाए और किसी भी नागरिक को तँग न किया जाए। कुँवर नौनिहाल सिंघ बहुत सजधज से शहर में दाखिल हुआ। शहर वालों ने बहुत प्रेम व सम्मान सहित उनका स्वागत किया। पेशावर का हाकिम कुँवर नौनिहाल सिंघ को बनाया गया। शहर निवासियों ने काबुली पठानों के राज्य से निजात पाने पर बहुत खुशियाँ मनाईं। हिन्दुओं तथा मुसलमानों सबने कुँवर नौनिहाल सिंघ को बधाइयाँ दीं। कुछ समय पश्चात् महाराजा रणजीत सिंघ जी भी पेशावर गए। उनको यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि कुँवर नौनिहाल सिंघ और सरदार हरी सिंघ नलुआ जी ने शहर और इलाके में पूर्ण शाँति कायम की हुई है और प्रजा हर प्रकार से सुखी है। उन्होंने पँजाब के लोगों को पेशावर जा बसने के लिए प्रेरित किया और उत्साहित किया। इस प्रकार कई गाँव वहाँ पर बस गए।

जब काबुल के बादशाह मुहम्मद खाँ को यह पता चला कि महाराजा रणजीत सिंह ने मेरे भाइयों को पेशावर में से निकाल दिया है और इलाके को पूर्ण तौर पर अपने राज्य में शामिल कर लिया है तो उसके तन बदल में आग लग गई। उसने बदला लेने के लिए और पेशावर को जीतने का फैसला किया। बहुत तकड़ी सेना एकत्रित करके उसने सन् 1835 में पेशावर पर चढ़ाई कर दी परन्तु महाराजा साहिब ने ऐसे पक्के मोर्चे बनाये हुए थे कि पठानों के मुकाबले पर ऐसी योजना बना रखी थी कि दोस्त मुहम्मद खाँ की कोई पेश न हुई। अपने सामने ऐसी जबरदस्त फौज इस प्रकार डटी हुई देखकर काबुल के बादशाह का दिल काँप गया। उसने एक चाल खेलने का इरादा बनाया। उसने अपना वकील महाराजा साहिब जी के पास भेजा और कहा, ‘मैं नित्य प्रति के युद्ध से तँग आ गया हूँ, मैं चाहता हूँ कि परस्पर विचार के द्वारा दोनों राज्यों की सीमाएँ बाँध दी जाएँ तो झगड़े अलगाव की गुँजाइश ही न रहे और दोनों हकूमतों के बीच शाँति तथा परस्पर दोस्ती कायम रहे।’ महाराजा रणजीत सिंघ जी ने यह सलाह तुरन्त मान ली। उन्होंने फकीर अजीजद्दीन तथा मिस्टर हारलन नाम के अमेरिकी को दोस्त मुहम्मद खाँ के पास विचारविमर्श के लिए भेजा। शाँति तथा युद्ध के सभी नियमों तथा मर्यादाओं को ताक पर रखकर दोस्त मुहम्मद खाँ ने इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया और जलालाबाद ले गया। जब महाराजा साहिब को इस बात का पता चला तो उन्होंने जबरदस्त आक्रमण की तैयारी आरम्भ कर दी। फकीर अजीद्दीन बहुत चतुर तथा होशियार था उसने दोस्त मुहम्मद खाँ को कहा कि तेरी यह कार्यवाही तेरी तबाही का कारण बनेगी, महाराजा साहिब अपने लोगों को छुड़वाने के लिए हर प्रकार से जी जान लगा देंगे और तुझे तेरी की हुई गलती का मजा चखाएँगे। दोस्त मुहम्मद खाँ ने अपनी गलती अनुभव कर ली और दोनों को छोड़ दिया। साथ ही वह ऐसा भयभीत हुआ कि उसने पेशावर को जीतना असम्भव समझा। वह वापिस घर को चला गया। महाराजा साहिब ने इलाके का प्रबन्ध और भी अच्छा तथा पक्का कर दिया और इसकी रक्षा के लिए और किले तैयार किए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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