34. सैयद अहमद
संवत् 1884 (सन् 1827) में अँग्रेजी इलाके के शहर बरेली का निवासी सैयद अहमद सिक्ख
राज्य के पठानी इलाके में आया ओर पठानों को सिक्ख राज्य के विरूद्ध भड़काने तथा
बगावत करने के लिए तैयार करने लग गया। वह अँग्रेजी इलाकों में से आदमी तथा रूपया
लेकर सरहिंद चला गया। वास्तव में इसको सिक्ख राज्य के सरहदी इलाके में शोर शराबा खड़ा
करने के लिए ही विशेष तौर पर भेजा गया था ताकि महाराजा साहिब झगड़े में व्यस्त रहें
और दूसरी ओर ध्यान न दे सकें। सैयद अहमद तथा उसके साथियों ने दीन मजहब के नाम पर
फतवे देकर पठान कबीलों को सिख राज्य के विरूद्ध जेहाद करने के लिए भड़काया। 40 हजार
पठान इसके आसपास आ जुड़े और बगावत के लिए तैयार हो गए। महाराजा साहिब जी ने इस बगावत
को दबाने के लिए सरदार बुद्ध सिंह संधवालिये को फौज देकर पेशावर की ओर भेजा। दो तकड़ी
लड़ाइयाँ हुई। सैयद अहमद हार गया और पहाड़ियों की ओर भाग गया परन्तु उसने कुछ समय
पश्चात् पहले से भी बड़ा लश्कर एकत्रित करके अटक के इलाके में गड़बड़ शुरू कर दी।
महाराजा साहिब ने इसको मार भगाने के लिए महाराजा खड़क सिंह की कमान में तकड़ी फौज भेजी।
पठानों तथा सिक्खों के बीच सख्त लड़ाई हुई। पठानों के अच्छे छक्के छुड़ाए गए। वे
मैदान छोड़कर भाग गए। सैयद अहमद फिर पहाड़ों पर जा चढ़ा। परन्तु थोड़े समय के पश्चात्
उसने और बड़ा लश्कर एकत्रित किया और पेशावर पर आक्रमण कर दिया। महाराजा साहिब की ओर
से यार मुहम्मद खाँ पेशावर का हाकिम नियुक्त किया गया था। उसने सैयद अहमद के साथ
टक्कर ली। वह लड़ते हुए मारा गया। सैयद ने शहर पर कब्जा कर लिया। पेशावर पर कब्जा
करने के पश्चात् सैयद अहमद ने फतवा दिया, ‘पेशावर के इलाके में जितनी भी विधवा
हिन्दू औरतें हैं, वे तीन दिनों के अन्दर अन्दर पठानों से विवाह करवा लें, नहीं तो
उनके वारिसों के घर लूटे जायेंगे और जला दिए जाएँगे। कुँवारी लड़कियाँ 12 दिनों के
अन्दर मेरे मातहतों के सम्मुख पेश की जाए।’ इस पर सब ओर हाहाकार मच गया।
महाराजा साहिब ने कँवर शेर सिंह तथा वेनतूरा की कमान में
जबरदस्त फौज भेजी। तकड़ी घमासान की लड़ाई हुई। सैयद अहमद हारकर फिर पहाड़ों पर जा चढ़ा।
पेशावर पर फिर कब्जा हो गया। यार मुहम्मद खाँ के भाई सुलतान मुहम्मद खाँ को पेशावर
का हाकिम नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई का प्रसिद्ध घोड़ा ‘लैली’ महाराजा साहिब
को भेंट किया। इस घोड़े की प्राप्ति के लिए महाराजा साहिब काफी समय से चाहवान थे।
उन्होंने याद मुहम्मद खाँ को आगे एक बार बहुत बड़ी रकम देकर और एक बार बढ़िया नस्ल के
पचास कीमती घोड़े बट्टे देकर यह खरीदने का यत्न किया था पर यार मुहम्मद खाँ माना नहीं
था। जब कँवर शेर सिंघ ने यह घोड़ा लाकर महाराजा साहिब के आगे पेश किया तो वे बहुत
खुश हुए। सैयद अहमद कुछ समय के पश्चात् फिर पहाड़ों में से निकलकर पठानों को भड़काने
के लिए तथा गड़बड़ फैलाने लग गया। पेशावर के हाकिम सुलतान मुहम्मद खाँ ने कई बार उसके
साथ युद्ध किया परन्तु उसको पूरी तरह शिथिल न कर सका। अन्त में पठान उसके साथ नाराज
होकर अलग हो बैठे। सैयद अहमद यह इलाका छोड़कर मुजफराबाद के इलाके में चला गया। बैसाख
वंसत् 1888 (अप्रैल, सन् 1831) में खालसा फौज ने मुजफराबाद के किले का घेरा डाल लिया।
लड़ाई हुई, सैयद अहमद मारा गया। इस प्राकर यह जेहाद समाप्त हुई।