33. मुहम्मद अजीम खाँ
पहले वर्णन किया जा चुका है कि सन् 1818 (संवत् 1875) में महाराजा रणजीत सिंह ने
पेशावर फतेह करके यार मुहम्मद खाँ को अपने अधीन वहाँ का हाकिम बनाया था। वह लाहौर
दरबार को टके भरता था। उसका भाई मुहम्मद अजीम खाँ, काबुल का वजीर तथा बारकजई कबीले
का सरदार था। उसको यह बात चुभती थी कि मेरा भाई महाराजा रणजीत सिंघ को टके भरे और
उसके अधीन हो। साथ में महाराजा ने उसके दूसरे भाई जब्बार खाँ से कश्मीर छीना हुआ
था। उससे पहले महाराजा ने जहाँदाद खाँ से अटक का किला छीन लिया था। इन बातों के
कारण अजीम खाँ बहुत नाराज था। वह चाहता था कि कुछ नहीं तो पेशावर तो जीतकर पठानी
राज्य का अंग बनाया जाए और सिक्ख राज्य अटक दरिया से पार ही रहने दिया जाए। सन्
1823 (संवत् 1881) में अजीम खाँ ने बहुत बड़ा पठानी लश्कर लेकर पेशावर पर चढ़ाई कर
दी। साथ ही उसने ‘जेहाद’ का ढोल बजाया और पठानों को दीन इस्लाम के नाम पर ललकारा।
उसका भाई यार मुहम्मद खाँ पेशावर का हाकिम था और बीच में उसके साथ था। वह शहर छोड़कर
पहाड़ों पर आ छिपा। अजीम खाँ ने बिना किसी टक्कर के तथा विरोध किये पेशावर पर कब्जा
कर लिया। आसपास से हजारों अन्य पठान जेहाद की खातिर उसके साथ आ मिले। उसने सिक्खों
के साथ दो-दो हाथ करने के लिए नुशैहरा तथा हशत नगर रणभूमि के लिए चुने। जब महाराजा
रणजीत सिंघ को इस बात का पता चला तो उसने भी युद्ध का नगाड़ा बजा दिया। शहजादा शेर
सिंघ की कमान में फौज पेशावर की ओर भेज दी। पीछे ही सरदार हरी सिंघ नलुआ चल पड़ा।
कुछ दिन के पश्चात् महाराजा साहिब ने स्वयँ बहुत बड़ी फौज सहित पेशावर की ओर कूच किया।
अकाली फूला सिंह, सरदार देसा सिंह मजीठिया और फतेह सिंह अहालूवालिया उनके साथ थे।
अजीम खान ने अपने भतीजे मुहम्मद जमान को भारी लश्कर देकर जहाँगीरी का किला फतह करने
के लिए भेजा। यहाँ पर सिक्ख फौज बहुत कम थी। पठानों ने किला विजय कर लिया। उधर से
शहजादा शेर सिंह और सरदार हरी सिंह नलुआ अटक पार करके आ पहुँचे। उन्होंने जहाँगीरे
पर फिर कब्जा कर लिया। जहाँगीरे की हार सुनकर अजीम खाँ तड़प उठा। उसने दोस्त मुहम्मद
खाँ तथा जब्बार खाँ की कमान में गाजियों का तगड़ा लश्कर जहाँगीरे की ओर भेजा।
जहाँगीरे के पास खूनी युद्ध हुआ। सिखों ने गाजियों के अच्छे छक्के छुड़ाए। जिस बेड़ियों
के पुल के द्वारा सिक्ख फौज ने अटक को पार किया था, पठानों ने उस पुल को तोड़ दिया
ताकि महाराजा द्वारा शेरशाह की सहायता न पहुँच सके।
उधर से महाराजा साहिब सेना सहित अटक के किनारे पर पहुँच गए।
उन्होंने किश्तियों का नया पुल तैयार करवाना शुरू कर दिया पर जब उनको पता चला कि
खालसा फौज को पठानों के टिड्डी दल ने घेर रखा है तो उन्होंने अटक में बीच में से
उतरकर पार कर जाने का फैसला कर लिया। उन्होंने फौज को ललकारा और जयकारा गजाकर अपना
घोड़ा अटक में धकेल दिया। उनके पीछे-पीछे खालसा शूरवीर चल पड़े और अटक से पार हो गए।
यह समाचार सुनकर पठानों के छक्के छूट गए और वे जहाँगीरे के पास से भागकर नुशैहरे की
ओर चले गए और सेना के बड़े गिरोह के साथ जा मिले। महाराजा साहिब ने जहाँगीर तथा
खेराबाद के किलों को अधिक पक्का किया और शत्रुओं का भेद लेने के लिए जासूस पेशावर
तथा नुशैहरे भेजे। जहाँगीरे के मुकाम पर सरदार जै सिंघ अटारीवाला, जो किसी बात पर
नाराज होकर महाराजा साहिब की सेवा छोड़कर चला गया था और अपने सवारों सहित अजीम खाँ
के साथ था, महाराजा के साथ आ मिला। उन्होंने उसको माफ करके पहली पदवी पर फिर बहाल
कर दिया। महाराजा साहिब ने पठानों पर आक्रमण करने की योजना बना ली। फौज के चार
हिस्से किये गए। एक हिस्से की कमान अकाली फूला सिंह को दी गई। उसको एक ओर से हल्ला
करने का हुक्म हुआ। सरदार देसा सिंह मजीठिया तथा सरदार फतेह सिंह आहलूवालिया की
कमान में दूसरे हिस्से ने दूसरी ओर से हल्ला करना था। तीसरे हिस्से को लेकर शहजादा
खड़क सिंह, सरदार हरी सिंह नलुआ, जनरल वनतूरा ने अजीम खाँ को लंडा दरिया पार करके
पठानी लश्कर के साथ मिलने से रोकना था। चौथा हिस्सा महाराजा साहिब के पास सुरक्षित
रहता था जिसने जहाँ आवश्यकता पड़े सहायता पहुँचानी थी। 14 मार्च, सन् 1824 को अमृत
बेला में श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी की हजूरी में शत्रु दल पर हल्ला बोलने की अरदास
की गई। फौजें आगे की ओर बढ़ने लगी कि भेदिये ने समाचार दिया कि शत्रुओं की सहायता के
लिए बहुत सी फौज तथा 40 बड़ी तोपें आ पहुँची हैं। महाराजा साहिब ने सोचा कि अभी
आक्रमण न किया जाए। अपनी बड़ी तोपें दोपहर तक आ जाएँगी, फिर आक्रमण किया जाएगा परन्तु
अकाली फूला सिंह ने कहा कि हम अरदास कर चुके हैं, हम तो पीछे नहीं हटेंगे। अकाली जो
अपनी फौज लेकर आगे बढ़े और सति श्री अकाल के जयकार लगाते हुए योजना के अनुसार शत्रुओं
के दल पर जा झपटे।
पीछे ही महाराजा साहिब ने रणनीति के अनुसार हल्ला करने का आदेश
दिया। दोनों ओर से फौजें एक दूसरे पर टूट पड़ीं। घमासान युद्ध हुआ। लाशों के ढेर लग
गए। अकाली जी ने रणभूमि में वे हाथ दिखलाए कि वैरी दँग रह गए। वैरियों ने उन पर
अधिक से अधिक गोलियाँ चलाईं परन्तु वे निधड़क होकर तलवार चलाते रहे और वैरियों के
सिर उतारते रहे। उनके घोड़े को गोली लगी और वह मर गया। अकाली फूला सिंह जी हाथी पर
बैठ गए। वे स्वयँ घायल हो गए परन्तु वे फिर भी उसी प्रकार लड़ते और ललकारते रहे।
अन्त में वे गोलियों के साथ बिंध गए और शहीद हो गए। इस पर सिख फौज को अधिक गुस्सा
और जोश आया। रण और भी गर्म हो गया। अन्त में पठानों के पैर उखड़ गए और वे मैदान
छोड़कर सिर पर पैर रखकर भाग लिए। खालसा ने दूर तक उनका पीछा किया। हजारों घोड़े, ऊँठ,
तम्बू, तोपें तथा अन्य फौजी सामान खालसा के हाथ आया। इस यद्ध में खालसा का नुक्सान
तो बहुत हुआ परन्तु इससे पठानी इलाके का काफी हिस्सा कब्जे में आ गया। दूसरे पठानों
पर रौब का सिक्का जम गया। अजीम खाँ ऐसा भयभीत और शर्मिंदा हुआ कि काबुल को भागते
हुए ही राह में मर गया। सेना को आदेश था कि शहर में किसी प्रकार की लूटमार या
धक्केशाही न की जाए। इस हुक्म पर पूरी तरह अमल किया गया। 17 मार्च सन् 1824 को
महाराजा साहिब जी बहुत सजधज से पेशावर में दाखिल हुए। शहरवासियों ने खुशी मनाई और
आदर, सम्मान तथा शान से उनका स्वागत किया। कुछ दिन के पश्चात् यार मुहम्मद खाँ तथा
दोस्त मुहम्मद खाँ महाराजा साहिब की सेवा में हाजिर हुए। उन्होंने पिछली भूल के लिए
क्षमा माँगी। पचास बढ़िया घोड़े और कीमती तोहफे भेंट किए और आगे के लिए अधीन रहने का
इकरार किया। विशाल हृदय वाले महाराजा साहिब जी ने उनको क्षमा कर दिया और यार
मुहम्मद खाँ को पेशावर का हाकिम नियुक्त कर दिया।