30. कश्मीर की जीत
कश्मीर अभी पठानी हकूमत के अधीन था। महाराज साहिब ने जो नीति धारण की थी, उसके
अनुसार यहाँ से भी पठानी राज्य का काँटा निकालकर यहाँ पर पँजाब राज्य स्थापित करना
आवश्यक था, नहीं तो पठानों का कुँडा सिर पर गड़ा रहना था। कश्मीर का हाकिम, जब्बार
खाँ बहुत जालिम तथा बेरहम था। वह हिन्दुओं पर खास सख्ती करता था। आम जनता भी उससे
दुखी थी। उसका माल मँत्री पण्डित वीरदेव तँग आकर उसके साथ रूठ गया और आश्रय की
खातिर महाराजा रणजीत सिंघ जी के दरबार में आ गया। महाराजा साहिब तो शुरू से ही शरण
आए को गले लगाने वाले थे। उन्होंने पण्डित वीर देव को आदर दिया। उससे उन्होंने
कश्मीर के बीच की हालत और कश्मीर को जाने वाले रास्तों के बारे में जानकारी प्राप्त
की। सन् 1819 (संवत 1876) में महाराजा साहिब ने कश्मीर जीतने की तैयारी की।
वजीराबाद में फौज एकत्रित की गई। फौज के तीन हिस्से किए गए। एक हिस्सा मिश्र
दीवानचँद और सरदार शाम सिंह जी अटारी की कमान में तथा दूसरा शहजादा खड़क सिंघ की
कमान में दिया गया। तीसरा हिस्सा महाराजा साहिब ने अपनी कमान में पीछे रखा ताकि आगे
हुई सेना को आवश्यक सहायता व रसद गोला बारूद पहुँचाया जा सके और जहाँ सहायता की
आवश्यक हो वहाँ पर सहायता भेजी जा सके। सारी फौज की कमान शहजादा खड़क सिंघ को दी गई।
सिक्ख फौज ने राजौरी पर आक्रमण किया। वहाँ का हाकिम अगर खाँ भाग गया। उसके भाई
रहीमुला ने अपने आपको शहजादा खड़क सिंघ के हवाले कर दिया। इसने उसको महाराजा साहिब
के पास भेज दिया। उन्होंने उसके साथ खुले दिल से व्यवहार किया और उसको राजौरी का
हाकिम बना दिया। खालसा फौज बहिराम गले पहुँच गई । यहाँ पर सुपीन के हाकिम ने अधीनता
स्वीकार कर ली। पूँछ का हाकिम जबरदस्त खाँ लड़ाई के लिए तैयार हो गया परन्तु शीघ्र
ही निढ़ाल होकर अधीन हो गया।
पहाड़ियों पर से निकलकर खालसा फौज कश्मीर में आ पहुँची। आगे से
जब्बार खाँ भी पठानी दल लेकर आया। खालसा फौज ने इस पर 21 आषाढ़ संवत् 1876 को हल्ला
बोल दिया। तोपों ने आग बरसाई। बन्दूकों ने गोलियों की वर्षा की। तलवारों ने बिजली
बरसाई, सिंघ शूरवीर शेरों की तरह गर्जे। पठानों की खाल उतारी गई। जब्बार खाँ हार गया
और रणभूमि छोड़कर हरण हो गया। 22 आषाढ़ संवत् 1876 को महाराजा रणजीत सिंघ की सेना
बहुत सजधज से श्रीनगर में दाखिल हुई। सारी सेना को हुक्म था कि सारे नागरिकों को
किसी प्रकार की तँगी न हो। अतः ऐसा ही हुआ। दीवान मोतीराम को कश्मीर का सूबा या
हाकिम नियुक्त किया गया। सरदार आम सिंघ जी अटारी, सरदार जवाला सिंघ भडाणीआ और मिश्र
दीवानचँद इलाके में शाँति कायम रखने के लिए नियुक्त किए गए। महाराजा साहिब ने इस
विजय की बहुत खुशी मनाई। वह बहुत सी भेंट लेकर श्री दरबार साहिब अमृतसर जी माथा
टेकने आए। गरीबों को काफी दान पुण्य किया गया। लाहौर तथा अमृतसर में तीन रात तक नीचे
ऊपर दीपमाला की गई। महाराजा कश्मीर की उन्नति का विशेष ध्यान रखा करते थे। उन्होंने
यहाँ के व्यापार तथा दस्ताकारी को उन्नत करने के लिए खास प्रयास किए और जनता के हितों
तथा सुखों का ख्याल रखा। वहाँ सन् 1833 में भयानक अकाल पड़ गया। महाराजा साहिब ने
अपने गोदामों के दरवाजे खोल दिए और हज़ारों मन अनाज कश्मीर भेजा। जब उन्होंने देखा
कि वहाँ का सूबा कुछ ढ़ीला है तो उन्होंने उसको हटाकर उसकी जगह प्रसिद्ध जरनैल सरदार
हरी सिंघ नलुआ को नियुक्त कर दिया।