25. कश्मीर पर चढ़ाई और शहजादे खड़क
सिंघ का राजतिलक
सन् 1814 (संवत् 1871) की गर्मियों में कश्मीर पर चढ़ाई की गई। महाराजा साहिब स्वयँ
भी इस चढ़ाई पर गए। बहिराम गले के पास लड़ाइयाँ हुई। सिख फौज आगे बढ़ती गई। अमादपुर तथा
हमीरपुर पर कब्जा किया गया। पठानी फौजों के साथ दो घमासान की लड़ाइयाँ हुईं जिनमें
खालसे की विजय हुई। बरसात शुरू हो गई । खालसा फौज श्रीनगर की ओर बढ़ी और शहर के
आसपास घेरा डाल बैठी। कश्मीर के हाकिम अजीम खाँ ने सुलह कर ली। उसने महाराजा साहिब
का वफादार रहना माना और कीमती तोहफे भेजे। इस प्रकार यह मुहिम समाप्त हुई और कश्मीर
फतह न हो सका। सन् 1814 की कश्मीर की मुहिम में सिख फौजों को पूरी सफलता न हुई
देखकर राजौरी, भिँवर आदि के राजा अकड़ बैठे। महाराजा साहिब ने उनकी धुनाई के लिए फौज
भेजी। राजौरी का राजा पहाड़ी के ऊपर के किले में डट बैठा। सिख फौजों ने हाथियों पर
लादकर तोपें पहाड़ी पर चढ़ा दीं और गोलाबारी की। राजा ने हार मान ली। उसका सारा इलाका
सिक्ख राज्य में शामिल कर लिया गया। इसी के साथ भिँवर भी फतह कर लिया गया। राजा
नूरपुर को अधीन करके उसका इलाका भी राज्य में शामिल किया गया। बाद में राजा जयवाल
के इलाके तथा काँगड़े को काबू में कर लिया गया। महाराजा साहिब की यह नीति थी कि
राजकुमारों अर्थात् अपने पुत्रों तथा पोतों को जिम्मेवारियाँ निभाने का अभ्यास
करवाया जाए। इसी नीति के अन्तर्गत उन्होंने सन् 1816 (संवत् 1873) के दशहरे के अवसर
पर शहजादे खड़क सिंघ का राजतिलक किया और उसको अपना जानशीन नियुक्त किया और राज्य
प्रबन्ध के कर्त्तव्य उसको सौंपे।