22. सन्धि-पत्र की शर्तें
सन्धि पत्र की चार शर्ते थी, जो कि निम्नलिखित इस प्रकार हैः 1. दोनों पक्ष आपस में
अच्छे सम्बन्ध रखने के लिए सहमत हुए। अँग्रेजों ने इस शर्त के अनुसार यह स्पष्ट कर
दिया कि ब्रिटिश सरकार महाराजा के राज्य को सबसे अधिक प्रिय ताकत समझेगी और सतलुज
नदी के उत्तरी प्रदेशों और वहाँ के लोगों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखेगी। 2. "सतलुज
नदी" दोनों राज्यों की सीमा निश्चित हुई तथा रणजीत सिंघ ने वचन दिया कि वह सतलुज नदी
के बायें किनारे पर केवल उतनी ही सेना रखेगा जितनी की दक्षिणी प्रदेश में शान्ति
स्थापित करने के लिए आवश्यक होगी और वह अन्य लोगों के अधिकारों पर आक्रमण करने का
अधिकार न रखेगा। 3. यदि इस सन्धि-पत्र की कोई भी शर्त दोनों में से कोई भी तोड़
डालेगा तो यह सन्धि-पत्र रद्द समझा जायेगा। 4. चौथी शर्त, जो कि साधारण थी, यह
स्पष्ट करती है कि किन-किन व्यक्तियों ने लाहौर की तरफ से सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर
किए। महाराजा रणजीत सिंह के साथ अँग्रेजों की संधि होने के कारण लुधियाना अँग्रेजों
की छावनी बन गया। महाराज की ओर से बख्शीनँद सिंह भण्डारी व वकील या दूत बनाकर
लुधियाना भेजा गया और अँग्रेजों की ओर से खुशवंत राय को लाहौर भेजा गया। इस संधि का
पँजाब पर बहुपक्षीय राजनीतिक प्रभाव पड़ा। महाराजा का राज्य सतलुज से पार की ओर बढ़ने
से रूक गया। अँग्रेजों की न हींग लगी व फिटकरी और यमुना के तथा सतलुज के बीच के
इलाके पर अधिकार मिल गया। महाराजा साहिब का सिक्ख शक्ति को एकजुट करने का और तकड़ी
सल्तनत स्थापित करने का स्वप्न बीच में ही रह गया पर साथ ही उनको इस ओर से कोई खतरा
न रहा। अब वे पश्चिम तथा पहाड़ की ओर के इलाके विजय करने की ओर निश्चिंत
होकर ध्यान दे सकते थे परन्तु इस संधि का सबसे बढ़कर खतरनाक प्रभाव यह हुआ कि सिक्खों
में मांझा, मालवा का सवाल पैदा हो गया। बाद में सिक्खों को छिन्न-भिन्न रखने के लिए
और अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए अँग्रेजों ने इस पासड़ को साजिश के अधीन और बढ़ाया।
महाराजा साहिब ने लुधियाना में अँग्रेजी फौज आई देखकर अपनी काँगड़े वाली फौज को
फिल्लौर जाने का आदेश दिया। इस पर नेपाल का सेनापति अमर सिंह थापा फिर फौज लेकर
काँगड़ा में आ घुसा । काँगड़ा के राजा ने फिर सहायता के लिए विनती की। महाराजा साहिब
ने काँगड़ा की ओर कूच किया। उन्होंने गोरखों की फौज की रसद पानी की राह रोक ली।
सिक्खों तथा गोरखों में डटकर लड़ाई हुई। सिखों ने गोरखों की अच्छी खाल उतारी तथा उनको
कमर तोड़ हार दी। 24 सितम्बर, 1908 को खालसा की फौज ने किले पर कब्जा कर लिया।
नेपालियों की ओर से नित्यप्रति की छेड़खानी को रोकने के लिए और उनको इधर से नाकेबंद
करने के लिए महाराजा ने काँगड़ा के इलाके को अपने इलाके में शामिल कर लिया और सरदार
देसा सिंह मजीठिया को इसका हाकिम नियुक्त किया। महाराजा साहिब ने इस किले में शाही
दरबार किया जिसमें चंबा, नूरपुर, कोटला, शाहपुर, गुलेर, कहिलूर, मण्डी, सुकेत तथा
कुल्लु के राजा शामिल हुए और सबने टके-रूपये दिये। इसके पश्चात् महाराजा साहिब ने
गुजरात, भेरा, मिआणी, खशाब, साहीवाल, जम्मू, वजीराबाद आदि इलाके अपने राज्य में
मिलाए। फरवरी सन् 1810 में महाराजा रणजीत सिंघ जी को मुलतान की ओर फिर ध्यान देना
पड़ा। वहाँ का नवाब मुजफर खां, जिसने अधीनता स्वीकार करके टके भरने स्वीकार किए हुए
थे, कुछ अकड़ बैठा था। महाराजा साहिब सेना लेकर मुलतान पहुँच गए। सरदार फतेह सिंह
आहलूवालिया भी फौज लेकर आ मिला। नवाब ने डटकर लड़ाई की, पर हार गया। उसने सरदार से
फिर माफी माँगी और भविष्य में अधीन तथा वफादार होकर रहने की सौगँध खाई। विशाल दिल
वाले महाराजा साहिब ने उसको फिर माफ कर दिया। मुलतान से लाहौर वापिस आकर उन्होंने
इसका हलोवाल, कटास तथा खिउड़ा के इलाके अपने राज्य में शामिल किए। बाद में जेहलम से
पार किला मँगला तथा उसके साथ लगते किले भी फतह कर लिए।