17. गुरमत्ता के कर्तव्य
गुरमत्ता का सबसे प्रथम कर्तव्य सिक्ख मिस्लों के या दल खालसा के नेता का चुनाव करना
था। वह चुनाव बहुमत के आधार पर होता। उस समय समस्त सिक्ख सेना का नाम दल खालसा था।
सामाजिक जीवन में सारे सिक्ख समान थे। जहाँ तक जाति का सम्बन्ध है, सभी सिक्ख आपस
में समान होते थे, इसलिए युद्ध क्षेत्रों, पँचायती सभाओं और सामाजिक जीवन में सभी
सिक्ख अपने सरदारों के समान समझे जाते थे परन्तु युद्ध के अवसर पर वे अपने अपने
नेताओं का पूरी तरह से आज्ञा पालन भी करते थे। हाँ, शान्ति के समय उनके लिए अपने
सरदारों की आज्ञा को पूरी तरह से पालन करना आवश्यक नहीं होता था। वैशाखी तथा दीवाली
के समय जब वे श्री अमृतसर साहिब जी में एकत्रित होते तो अपनी अलग अलग मिसलों के
झण्डों के नीचे नहीं, बल्कि दल खालसा एक छत्रछाया में एकत्रित होते और अपने आप को
सरबत खालसा कहते। वे पाँच प्यारे चुनते और गुरमता करते। 1748 ईस्वी के पश्चात्
उन्होंने कई एक आवश्यक गुरमते भी पारित किए। सामूहिक बातें इज़लास दीवान में ही करते।
अब्दाली के आक्रमण, मीर मन्नू की मदद पर शाहनवाज खान के संग बर्ताव, उनके लिए यही
सामूहिक बातें होती । ऐसा करने से मिसलों के अलग अलग होने पर भी सामूहिक धड़कन बनी
रहती थी। इसमें कोई शक नहीं कि मिसलों के जत्थेदार की राय अपना अलग प्रभाव रखती थी,
परन्तु प्रत्येक सिपाही को अपनी राय देने तथा खुले तौर पर विचार प्रकट का अधिकार
प्राप्त था। दूसरा मिसल में कोई ऊँच या नीच का भेद नहीं था। मनसबदार की तरह ग्रेड
निश्चित नहीं थे और न ही आज की तरह रैंक, रूत्बे ही मिले हुए थे। सारे एक समान थे,
जो बराबर के अधिकार रखते थे। एक जत्थेदार सिपाही का रुवबा रखता था और एक सिपाही एक
जत्थेदार का। वे एक समान अर्थात पहला स्थान रखते थे। जत्थेदार की मर्जी कोई आखरी
मर्जी नहीं होती थी। हर कोई सिपाही अपनी राय जत्थेदार तक पहुँचा सकता था। उस समय के
प्रत्यक्षदर्शी मौलवी वली औला सद्दिकी ने लिखा है कि सिक्ख मिसलों का हर सदस्य आजाद
था। हर सरदार मालिक भी था और सेवक भी, हाकिम भी और मातहत भी। एकान्त में खुदा का
भक्त फकीर तथा पँथ में मिलकर दुश्मन का लहू पीने वाला मौत का फरिशता होता था।