16. सिक्खों का केन्द्रीय सँगठन
‘गुरमता’
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के आदेश अनुसार उनके पश्चात मानवी गुरूजनों का क्रम
समाप्त हो गया। क्योंकि उन्होंने अपने व्यक्तित्व को खालसा पँथ में मिला दिया था।
उनके पश्चात् खालसा पँथ ही गुरू का रूप बन गया। जिन नियमों को गुरूदेव स्वयँ निभाते
थे। अब वह सब कुछ सारी प्रथाएँ खालसा पँथ या समुदाय निभाने लगा। श्री गुरू गोबिन्द
सिंघ जी के सचखण्ड गमन के बहुत समय बाद जब नादिर शाह के आक्रमणों के कारण खालसा दलों
का पुर्नगठन 12 जत्थों में अथवा मिस्लों में किया गया तब सारे जत्थेदार प्रायः
बैसाखी और दीवाली के अवसरों पर श्री अमृतसर साहिब जी आते और सारी सिक्ख जाति के
सम्बन्ध में आगामी कार्यक्रम पर विचारविमर्श करते। जो भी निर्णय वे करते, वे सभी
प्रस्ताव को ‘गुरमता’ कहते और उन पर अमल करना शुरू कर देते। अतः सिक्ख मिस्लों के
समय में उनका केन्द्रीय शासन ‘गुरूमता’ के अनुसार कार्य करता था। ‘गुरमत्ता’ दो
पँजाबी शब्दों के जोड़ से बना है गुरू और मत्ता गुरू के अर्थ है आध्यात्मिक या
धार्मिक नेता और मत्ता का अर्थ है गुरू का आदेश। जैसे कि पीछे वर्णन किया जा चुका
है कि सिक्ख लोग दूर-दूर प्रदेशों से प्रायः दीवाली, बैसाखी तथा दशहरा के दिनों में
श्री अमृतसर साहिब जी आते और अकाल गद्दी, तख्त पर श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी के
सनमुख होकर समस्त पँथ के विषय में आगामी कार्यक्रम पर विचारविमर्श करते। इन अधिवेशनों
को सरबत खालसा कहा जाने लगा और सरबत खालसा के निर्णय को गुरूमत्ता का नाम दिया जाता।
धीरे-धीरे यही गुरमत्ता एक दृढ़ साम्प्रादायिक सँस्था के रूप में परिणत हो गया। ये
निर्णय या प्रस्ताव जो कि श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के समक्ष पारित किए जाते थे। सभी
को मान्य होते थे और सभी उस पर श्रद्धा से आचरण करते थे।