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1. महाराजा रणजीत सिंह (शेरे-ए-पँजाब)

सरदार चढ़त सिंघ के कालवास के समय सरदार महा सिंघ की आयु मुश्किल से 14 वर्ष की ही थी, परन्तु इन्होंने मिस्ल की सरदारी का कार्य बड़ी योग्यता से निभाया। इन्होंने भी बहुत से युद्ध किए और बहुत बड़े क्षेत्र को विजय करके अपनी मिस्ल में मिलाकर उसका क्षेत्रफल बढ़ाया। एक बार वह रणक्षेत्र में ही बीमार हो गए और अपनी सेना की कमान अपने बारह वर्षीय पुत्र रणजीत सिंघ को सौंपकर अपने घर गुजराँवाले लौट आए। वहीं पर सन् 1792 ईस्वी में उनका देहावसान हो गया। महाराजा रणजीत सिंघ जी का जन्म 13 नवम्बर 1780 ईस्वी तदानुसार 2 मघर संवत् 1837 को हुआ। इनकी माता ने इनका नाम बुद्ध सिंह रखा। इनके पिता सरदार महासिंघ को इनके जन्म की सूचना उस समय मिली जब वे रण में से विजयी होकर घर लौट रहे थे। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम रणजीत सिंघ रखा। यही नाम बाद में प्रसिद्धि प्राप्त कर गया। सरदार महासिंघ जी ने अपने इकलौते बेटे की धार्मिक शिक्षा के लिए सरकारी धर्मशाला के ग्रँथी को नियुक्त किया। साथ ही घुड़सवारी, तैराकी, शस्त्र विद्या आदि शारीरिक प्रशिक्षण का प्रबन्ध भी किया। रणजीत सिंघ को शस्त्र विद्या से बहुत लगाव था। अतः अल्पआयु में ही उन्होंने इन दोनों में निपुणता प्राप्त कर ली। वे बिना किसी थकान के दिन भर घोड़े की सवारी कर सकते थे। तलवार ऐसी स्फूर्ति से चलाते कि बड़े बड़े योद्धाओं को आश्चर्यचकित कर देते। रणजीत सिंघ जी बाल्यकाल से ही अपने पिता जी के साथ रणभूमि में जाने लग गए। एक युद्ध के समय एक पठान ने अकस्मात् उन पर वार कर दिया। उनकी आयु उस समय कठिनता से 10 वर्ष की थी। वह लेशमात्र भी भयभीत न हुए बल्कि उन्होंने उत्तर में तलवार के एक ही वार से उस पठान का सिर कलम करके धर दिया। रणजीत सिंघ जी का यह करामाती करतब देखकर सरदार महासिंघ तथा उनकी फौज ने अति प्रसन्नता व्यक्त की। जैसे कि पहले बताया जा चुका है कि इनके पिता सरदार महासिंघ एक युद्ध में अकस्मात् बीमार हो गए थे और फौज की कमान अपने पुत्र को सौंपकर गुजराँवाले आ गए थे। सरदार रणजीत सिंघ जी ने यह कार्य पूर्ण योग्यता से निभाया और युद्ध में विजय प्राप्त की। कालवास से पूर्व सरदार महासिंघ को इस विजय की सूचना प्राप्त हो गई, इस पर वह बहुत प्रसन्नत हुए। उनको विश्वास हो गया कि उनके पश्चात् उनका पुत्र अपने पिता-पितामह के पद-चिन्हों पर चलकर राजकाज को बढ़ाएगा। सरदार महासिंह जी की मृत्यु सन् 1792 ईस्वी में हो गई। उस समय रणजीत सिंह की आयु बारह वर्ष की थी। बारह वर्ष की आयु में रणजीत सिंह अपने पिता जी की गद्दी पर बैठे और शुक्रचकिया मिस्ल के सरदार बने। रणजीत सिंह की माता राजकौर, जींद राज्य के सरदार गजपति सिंह की कन्या थी। एक बार रणजीत सिंह को चेचक रोग हो गया। इस रोग ने उनकी एक आँख ले ली और उनका जीवन कई दिन तक तो खतरे में रहा। अन्त में वह स्वस्थ तो हो गए परन्तु उनके चेहरे पर चेचक के दाग रह गए।

रणजीत सिंह छोटे कद के थे परन्तु थे बहुत फुर्तीले और चुस्त। रणजीत सिंह की कम आयु के कारण राज्य का कार्यभार उनके पिता के अहिलकार सरदार दल सिंह तथा दीवान लखपत राय, माता राजकौर के आदेशों अनुसार चलाते रहे। जब रणजीत सिंह 18 वर्ष के हुए तो इनकी माता का देहावसान हो गया। इस पर राज्य का कार्यभार उन्होंने स्वयँ सम्भाल लिया। रणजीत सिंह का विवाह बचपन में ही नक्कई मिस्ल की एक कन्या राजकौर से हो गया था। इतिफाक से इनकी माता का नाम भी राजकौर ही था। अतः उन्होंने अपनी पत्नि राजकौर का नाम बदलकर दातार कौर रख दिया। परन्तु युवावस्था में जब वह सर्वगुण सम्पन्न हो चुके थे तो उनका एक और विवाह बड़ी धूमधाम के साथ सन् 1796 ईस्वी में कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह के स्वर्गीय पुत्र गुरूबख्श सिंह की कन्या मेहताब कौर से हुआ। इस प्रकार रणजीत सिंह की बड़ी पत्नी दातार कौर थी, जिसे वह बहुत अधिक चाहता था। अतः मेहताब कौर का दर्जा दातार कौर से निःसन्देह कम था। रणजीत सिंह की सफलता बहुत कुछ रानी सदाकौर की उस सहायता के बल पर आधारित थी, जो उसने उसे सेना और धन आदि के रूप में दी थी। वास्तव में रणजीत सिंह और मेहताब कौर के विवाह के बाद शुक्रचकिया मिस्ल और कन्हैया मिस्ल मिलकर एक हो गई। इस प्रकार इन दोनों मिस्लों की सम्मिलित शक्ति रणजीत सिंह को उन्नति के शिखर पर पहुँचाने में बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुई। जब रणजीत सिंह अपनी आयु के 17वें वर्ष में प्रविष्ट हुआ तो उसने अपनी शक्ति का अनुभव करते हुए राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। ऐसे में उसकी सास रानी सदाकौर उसके साथ उसकी सहायता के लिए खड़ी थी। रणजीत सिंह ने राजगद्दी सम्भालने पर देखा कि पँजाब का अधिकतर हिस्सा सिक्खों की बारह मिस्लों के अधिकार में है जो कि अपनी अपनी जगह पर स्वतन्त्र थे और गुट बना बनाकर या इक्का-दुक्का होकर आपस में लड़ते रहते थे। कुछ भाग मुलतान, कसूर आदि परदेसी मुसलमानों के अधीन था। महाराजा रणजीत सिंह को पँजाब का यह बँटवारा तथा घरेलू लड़ाइयाँ अच्छी न लगीं। इनके मन में विचार आया कि इस फूट तथा स्वार्थपरता की भावना को मिटाकर सारे पँजाब में ऐसा राज्य कायम किया जाए जिसमें पूर्ण शान्ति, एकता तथा खुशहाली हो। इन्होंने आरम्भ से यह ध्येय अपने आगे रखा और इस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने प्रारम्भ कर दिए। सर्वप्रथम कन्हैया मिस्ल की रानी सदाकौर को इनकी सहायता की आवश्यकता पड़ गई। उस समय सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया ने कन्हैया मिस्ल के क्षेत्र में अपना अधिकार करना शुरू कर दिया था। ऐसे में रणजीत सिंह अपनी सास की सहायता के लिए सेना लेकर बटाला नगर पहुँचा। जाते हुए वह दो दिन लाहौर ठहरा। लाहौर नगर उस समय भँगी मिस्ल के सरदारों के हाथ में था। उस समय उसने लाहौर का किला देखा। इस प्रकार उसके मन में लाहौर नगर और उसके किले पर अधिकार करने की इच्छा उत्पन्न हो गई क्योंकि ऐसा किए बिना सभी पँजाबी शक्तियों को एकत्रित करके एक झण्डे के नीचे लाना असम्भव था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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