9. भाई आदम जी
एक कुलीन समृद्ध जाट परिवार के जमींदार के यहाँ सन्तान नहीं थी।
उसका नाम उदम सिंह था किन्तु उसकी नम्रता के कारण भाई आदम नाम से उसको प्रसिद्धि
प्राप्त थी। सन्तान की अभिलाषा के कारण वह कई सन्तों व फकीरों के चक्कर काटता रहा
किन्तु उसकी मँशा पूर्ण नहीं हुई घीरे-धीरे उसकी आयु भी बढ़ती चली गई इसलिए उसने अपने
भाग्य पर सन्तोष कर लिया। एक दिन उसकी भेंट एक सिक्ख से हुई उसने उसे विश्वास
दिलवाया कि तेरी इच्छा श्री गुरू नानक देव जी के घर से अवश्य पूर्ण होगी। इन दिनों
उनके चौथे उत्तराधिकारी श्री गुरू रामदास जी गुरू गद्दी पर विराजमान हैं। अतः आप जी
उनकी शरण में गुरू चक्क (श्री अमृतसर साहिब जी) चले जाओ। भाई आदम जी अब वृद्धावस्था
के निकट पहुँचने वाले थे अतः उन्होंने सन्तान की मँशा त्याग दी थी किन्तु उनकी पत्नी
के दिल में यह उमँग जागृत थी। उसके बल देने पर भाई आदम जी केवल आध्यात्मिक फल की
प्राप्ति के दृष्टिकोण से गुरू चरणों में उपस्थित हो गए और जनसाधारण की तरह सेवा
में जुट गए। गुरू घर का वातावरण उनको बहुत भाया। यहाँ सभी लोग निष्काम होकर सेवा
करते दिखाई देते थे। समस्त संगत के दिल में केवल आध्यात्मिक उन्नति की मात्र चाह
होती थी। बस यह आकर्षण भाई आदम जी को यहीं निवास करने के लिए प्रेरित करने लगा।
उन्होंने गुरू के चक्क में ही अपना अलग से घर बना लिया और समृद्ध होने का स्वाँग
त्यागकर एक श्रमिक की भाँति जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया। वह दम्पति (पति-पत्नि)
प्रातः उठकर जँगल में चले जाते, वहाँ से ईंधन की लकड़ियों के गट्ठर उठाकर लौट आते
किन्तु भाई आदम जी अपने सिर वाला बोझा बाजार में बिक्री कर देते और उनकी पत्नि अपने
वाला बोझा घर की रसाई के लिए इन लकड़ियों के ईंधन के रूप में प्रयोग करती परन्तु इन
गट्ठरों से अधिकाँश लकड़ियाँ बची रहती जो कि घीरे-धीरे एक बड़े भण्डार के रूप में
इकट्ठी होती गई। शीत ऋतु थी। एक दिन गुरूदेव के दर्शनों को दूर-दूर प्रदेशों से
संगत आई हुई थी कि अकस्मात् वर्षा होने लगी जिस कारण सर्दी बढ़ती चली गई। घीमी-धीमी
वर्षा रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। दो-तीन दिन वर्षा इसी प्रकार बनी रही। इस
बीच लँगर में ईंधन समाप्त हो गया। भोजन तैयार करने में बाधा उत्पन्न हो गई। जैसे की
इस बात का भाई आदम जी को मालूम हुई वह अपने घर से एकत्र किया हुआ ईंधन उठा-उठाकर
लँगर के लिए लाने लगे। उनकी पत्नी ने जब संगत को ठिठुरते हुए देखा तो उसने भी घर
में एकत्र किए हुए लकड़ी के कोयले अंगीठियों में जलाकर संगत के समक्ष आग रोकने के
लिए धर दिए। संगत ने राहत की साँस ली। जब विश्रामगृह में गुरूदेव संगत की सुध लेने
पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि संगत बहुत प्रसन्न है। उन्होनें पूछा यह अंगीठियाँ
जलाकर समस्त डेरों में पहुँचाने की सेवा किसने की है तो मालूम हुआ भाई आदम और उनकी
पत्नी ने यह सेवा की है। यह जानकर गुरूदेव अति प्रसन्न हुए। उन्होंने भाई आदम जी को
अपने दरबार में बुलाकर कहा: हम आपकी सेवा से बहुत खुश हुए आप माँगो क्या माँगते हो।
भाई आदम जी अब दिल से निष्काम हो चुके थे। उन्होंने सिर नीचा कर लिया और कहा: मुझे
आपकी कृपा दृष्टि चाहिए, आप मुझे केवल प्रभु नाम का घन दीजिए। उत्तर में गुरूदेव ने
कहा: यह धन तो आपको पहले से ही मिला हुआ है किन्तु हम आपकी मूल अभिलाषा पूर्ण करना
चाहते हैं। इस पर भी भाई आदम जी कुछ माँग नहीं पाए, क्योंकि उनको वृद्धावस्था में
सन्तान सुख माँगते लज्जा का अनुभव हो रहा था। फिर गुरूदेव ने उनसे कहा: कि आप कल
दरबार में अपनी पत्नी को भी साथ लेकर आओ। अगले दिन भाई आदम जी अपनी पत्नी समेत
दरबार में हाजिर हुए। गुरूदेव ने उसकी पत्नी से पूछा: आपके दिल में कोई कामना हो तो
बताओ। वह कहने लगी: घर से चलते समय तो पुत्र की कामना थी। जिसको आधार बनाकर आपके
दरबार में पहुँचे हैं। किन्तु अब कोई औचित्य नहीं रहा, क्योंकि अब हम बड़ी आयु के हो
गए हैं। गुरूदेव ने कहा: गुरूघर में किसी बात की भी कमी नहीं है यदि कोई निष्काम
होकर सेवा करता है तो उसकी आँतरिक मन की कामना अवश्य फलीभूत होती है आप चिँता न करें
जल्दी की आप एक सुन्दर पुत्र की माता बनेंगी। उसका नाम भक्तू रखना। उसका पालन-पोषण
गुरू मर्यादा पूर्वक करना जिससे वह आपके कुल का नाम रोशन करेगा। इस प्रकार आर्शीवाद
देकर गुरूदेव ने इस दम्पति को उनके गाँव वापिस भेज दिया। कलान्तर में गुरू इच्छा से
ऐसा ही हुआ। भाई भक्तू जी ने गुरूघर की बहुत सेवा की और आगे जाकर उनकी सन्तान ने
गुरू दरबार में बहुत नाम कमाया।