20. विवाह समारोह में जाना
गुरू रामदास जी को लाहौर सिहारीमल जी से विवाह समारोह में जाने
का निमँत्रण मिला, किन्तु गुरूदेव ने उन्हें कहा कि वह स्वयँ न आ सकेंगे क्योंकि
उनके वहा पचुँचने पर स्थानीय संगत दर्शनों को उमड़ पड़ेगी, जिससे विवाह समारोह में
बाधा उत्पन्न हो जाएगी। अतः वह अपने पुत्रों में से किसी एक को भेज देंगे जो उनका
प्रतिनिधित्व करेगा। इस बात पर सन्तुष्ट होकर सिहारीमल जी लोट गए। गुरूदेव ने अपने
सबसे बड़े पुत्र पृथीचँद को लाहौर जाने का आदेश दिया किन्तु उनकी आशा के विपरीत
पृथीचँद ने बहुत से बहाने बनाकर आना-कानी शुरू कर दी। उसने गुरूदेव से कहा कि
निर्माण कार्य में लाखों का लेन-देन है, इतने बड़े काम को छोड़कर वह लाहौर कैसे जा
सकता है। गुरूदेव उसका उत्तर सुनकर मौन हो गए। पुनः उन्होंने अपने मँझले पुत्र श्री
महादेव जी को उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आदेश दिया। महादेव जी ने उत्तर दिया
आप मुझे साँसारिक उत्सव में न डालें, मेरे लिए यह विवाह आदि उत्सव महत्वहीन हैं। इस
पर गुरूदेव ने अपने छोटे पुत्र श्री अरजन देव जी को बुलाकर आदेश दिया कि बेटे तुम
हमारे स्थान पर लाहौर अपने ताऊ जी के घर विवाह समारोह में सम्मिलित होने चले जाओ।
श्री अरजन देव जी निमन्त्रण की बात सुनकर गदगद हो उठे। पिता जी के चरणों में
नमस्कार करके बोले यह तो बहुत प्रसन्नता की बात है। आप मुझे उत्सव में भाग लेने के
लिए आदेश दे रहे हैं। मेरा परम सौभाग्य होता यदि आप मुझे किसी बड़ी विपत्ति का सामना
करने के लिए कहीं भी जाने का आदेश देते। गुरूदेव, युवक अरजन की नम्रता, गुरू-आदेश
के प्रति दृढ़ निष्ठा देखकर अति प्रसन्न हो उठे। उनके मन से एक बड़ा बोझ उतर गया।
लाहौर प्रस्थान के समय उन्होंने बेटे अरजन को पुनः सँकेत किया, विवाह सम्पन्न होने
पर वहीं संगत सेवा का कार्य सम्भालना है, इधर लौटने के लिए सुचना भेजी जाएगी।
आज्ञाकारी विनम्र अरजन देव ने पिता श्री को नमस्कार किया और लाहौर प्रस्थान कर गए।
लाहौर उन दिनों भारत का प्रसिद्ध नगर तथा प्रमुख व्यापारिक केन्द्र व राजनैतिक
गतिविधियों का केन्द्र था। आगरा के बाद इसी नगर का नाम था। विवाह के सुखद वातावरण
के मुक्त होने के बाद श्री अरजन देव जी ने लाहौर में धर्म-प्रचार का कार्य प्रारम्भ
कर दिया। जिस पुण्य स्थान पर पिता श्री गुरू रामदास जी का जन्म हुआ था, उसी चूना
मण्डी को अरजन देव जी ने अपना कीर्तन-स्थल बनाया। उन दिनों लाहौर नगर में
आध्यात्मिक दुनियाँ के बहुत से प्रमुखी निवास करते थे। उन पीरों, फकीरों में से एक
साँईं मियाँ मीर जी बहुत प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति थे जिनकी भेंट युवक श्री अरजन
देव से हुई वह अरजन देव जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए कि धीरे-धीरे निकटता
प्रगाढ़ मित्रता में परिवर्तित हो गई। श्री अरजन देव जी को कादरी सिलसिले के प्रमुख
शाह विलावल जी भी यहीं मिले। शाह हुसैन, छज्जू, काहना और पिल्लू जी भी लाहौर में ही
स्थाई रूप में रहते थे और अपनी धार्मिक गतिविधियाँ बनाए रखते थे। कीर्तन और
संगत-सेवा के बाद श्री अरजन देव जी का अधिकाँश समय पीरों और फकीरों से विचार-विनिमय
में ही व्यतीत होता। नित्यकर्म में श्री अरजन देव जी अपनी भक्तजनों की मण्डली के
संग कीर्तन करने का अभ्यास करते तदपश्चात आए हुए भक्त जनों में गुरू-उपदेश को आधार
बनाकर प्रवचन करते। जनसाधारण श्री अरजन देव का सन्निध्य पाकर कृतार्थ हो जाते। इस
प्रकार उनका ऐसा सुनाम हुआ कि प्रतिदिन चूना मण्डी आश्रय में बहुत भारी सँख्या में
संगत होती और सारा वातावरण प्रभु भक्ति से सराबोर हो जाता। लाहौर में 2 माह का समय
बिताते समय श्री अरजन देव जी को पिता गुरू रामदास जी का भव्य चेहरा नजर आता। अतः
उनसे मिलने के लिए पुत्र का दिल हमेशा मचलता रहता। इसके बावजूद वह पिता श्री के पास
तब तक नहीं जाना चाहते थे जब तक उनकी तरफ से लौटन की आज्ञा प्राप्त न हो जाए। लम्बे
वियोग और परिवार के अन्य सदस्यों से दूर रहने के कारण श्री अरजन देव जी का कोमल मन
सम्वेदनशीलता की चरमसीमा पर पहुँच गया। पिता श्री के दर्शनों की अभिलाषा मन में
वैराग्यमय बाणी की उत्पति करने लगी। वियोग की पीड़ा आत्मीय काव्य बनकर कलम द्वारा
कोरे कागज पर प्रकट हो गई। इस प्रकार अरजन देव जी ने भावुकता में पिता श्री गुरू
रामदास जी को एक पत्र लिख ही डालाः
मेरा मनु लौचे गुर दरसन ताई ।। बिलप करे चात्रिक की निआई ।।
त्रिखा न उतरै सांति न आवै ।। बिन दरसन संत पिआरे जीउ ।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई गुर दरसन संत पिआरे जीउ ।। रहाउ ।।
इस पत्र को उन्होंने एक निकटवर्ती सेवक को देकर श्री अमृतसर
साहिब जी अपने पिता जी को भेज दिया। जब यह सेवक पत्र लेकर श्री अमृतसर साहिब जी
पहुँचा तो गुरू अपने महलों में थे उस समय दरबार की समाप्ति हो चुकी थी अतः सेवक ने
वह पत्र गुरूदेव के बड़े पुत्र पृथीचँद को दे दिया और कहा कि आप मुझे इसका उत्तर
लाकर दें। पृथीचँद ने जैसे ही यह काव्य रूप पत्र पढ़ा तो वह अरजन देव जी की प्रतिभा
का अनुमान लगाकर ईर्ष्या से जल उठा वह विचारने लगा यदि यह पत्र पिता की के हाथ लग
जाता तो वह अरजन को योग्य जानकर गुरू गददी देने का मन बना लेंगे वैसे भी वह अरजन को
मुझ से कहीं अधिक स्नेह करते हैं। क्या अच्छा हो कि पिता जी को यह पत्र दिखाया ही न
जाए और सँदेशवाहक को यहाँ से टूका दिया जाए। उसने ऐसा ही किया। कुछ समय पश्चात उसने
सेवक से कहा कि पिता जी ने कहा है कि वह कुछ दिन और वहाँ रहकर सिक्खी का प्रचार करे,
हमें जब आवश्यकता होगी बुला लेंगे। सँदेश लेकर सेवक लौट गया। किन्तु अरजन देव जी
एकान्त समय में विचारमग्न सोचते कि क्या पिता जी उनकी सेवा से सन्तुष्ट नहीं हैं ?
अत्यन्त कश्मकश क्षणों में उन्होंने अपनी वेदना को सरल शब्दों में काव्य रूपी पत्र
पिता गुरूदेव के चरणों में अर्पित करने के लिए रच डाले। उन्हें पहले पत्र के अनुसार
बुलावे की लम्बे समय तक प्रतीक्षा रही किन्तु पिता श्री की ओर से कोई सँदेशवाहक श्री
अमृतसर साहिब जी से लाहौर नहीं पहुँचा तो अरजन देव जी ने दुसरा पत्र लिखा किन्तु इस
बार भी पत्र लेकर जाने वाले सेवक पर पृथीचँद की दृष्टि पड़ गई। चतुर पृथीचँद ने सेवक
को बहला-फूसलाकर उससे पत्र प्राप्त कर लिया और कहा कि मैं अवकाश समय में गुरू जी से
इस विषय में बात करूँगा किन्तु पत्र पढ़कर उसको अहसास हुआ कि यह पद्य रचना बिलकुल
पहले गुरूजनों जैसी है कहीं पिता गुरूदेव ने पढ़ लिए तो मैं कहीं का नहीं रहुँगा। इस
पत्र की पद्य रचना इस प्रकार थीः
तेरा मुखु सुहावा जीउ, सहज धुनि बाणी ।।
चिरू होआ देखे सारिंग पाणी ।।
धनु सु देसु जहां तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ ।।
हंउ घोली हउ घोलि घुमाई गुर सजण मीत मुरारे जीउ ।।
इस बार भी पृथीचँद ने सँदेशवाहक को बहुत चतुराई से पिता गुरूदेव
की ओर से उत्तर में कहा कि अरजन को लाहौर में अभी कुछ समय ओर गुरमति का
प्रचार-प्रसार करना चाहिए जैसे ही हमें उसकी आवश्यकता होगी हम स्वयँ उसे सँदेश
भेजकर बुला लेंगे, वैसे हम उसके कार्यों से बहुत सँतुष्ट हैं, उसे कहें किसी प्रकार
की चिन्ता ने करे। इस प्रकार पृथीचँद ने दूसरा पत्र भी गुरूदेव को नहीं दिखाया और
उसे छिपाकर रख लिया। अपनी आशा के विपरित उत्तर पाकर श्री अरजन देव जी विचलित नहीं
हुए उन्होंने बहुत घैर्य से काम लिया और अपने मुख्य उद्देश्य में समय व्यतीत करते
हुए प्रतीक्षा की घड़ियाँ गिनने लगे। किन्तु अब समय काटे-कटता नहीं था। इस बार दिल
में शँका ने जन्म ले लिया वह विचारने लगे पिता श्री अपने लाडले से इतने अप्रसन्न नही
हो सकते कि वह उसे भूल ही जाएँ अथवा अपने से दूर रखें। अवश्य ही भ्राता पृथीचँद जी
ने पत्र गुरू जी को दिए ही न हों। पुनः मिलन की आकाँशा में उनका दिल इस कदर तड़प जाता
कि उनकी कलम फिर उठी और एक अन्य पत्र बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति करते हुए लिख डालाः
इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता ।।
हुणि कदि मिलिऐ प्रिअ तुधु भगवंता ।।
मोहि रैणि न बिहावै निंद न आवै ।।
बिन देखे गुर दरबारे जीउ ।। 3 ।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई तिसु सचे गुर दरबारे जीउ ।।
इस बार यह पत्र श्री अरजन देव जी ने सँदेशवाहक को देते समय उसे
सर्तक किया और कहा कि इस पत्र को केवल पिता श्री गुरू रामदास जी के हाथों में ही
सौंपना है किसी अन्य व्यक्ति को नही देना। दूसरी तरफ पृथीचँद गुरूगद्दी प्राप्त करने
के लिए षडयँत्र रच रहा था। वह चाहता था कि गुरूगद्दी उसे ही प्राप्त हो। ऐसा तभी
सम्भव था जबकि किसी प्रकार श्री अरजन देव जी, गुरू जी की निकटता प्राप्त न कर सकें।
परन्तु उनके अन्तर्यामी पिता गुरू रामदास जी सब कुछ देख रहे थे।