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7. भँगाणी का युद्ध भाग-3

जीतमल ने हरीचन्द को तीर मारा, पर वह तत्काल ही घोड़े का पैंतरा बदलकर बच गया। फिर दाँव-घाव लगाते हुए, चलते-टालते हुए दोनों के तीर चले, दोनों के घोड़ों को लगे और दोनों गिर पड़े, फिर सम्भले। फिर तीर चले, दोनों घायल हुए, पर थोड़े, फिर दोनों के तीर चले, हरीचन्द का तीर ऐसा सख्त लगा कि जीतमल जी का अन्त हो गया, पर हरिचन्द को ऐसे स्थान पर लगा कि वह मूर्च्छित होकर गिरा और उसके साथी उसे उठाकर ले गये। इधर गुरू जी के योद्धा जीतमल जी के शव को उठाकर गुरू जी के पास ले आये, जिसकी शूरवीरता को गुरू जी ने बहुत ही सराहा और आर्शीवाद दिया। उधर जब हरीचन्द को मूर्च्छित दशा में उठाकर ले गये तो उसे देखकर फतेहशाह बहुत दुखी हुआ। बहुत से शस्त्रधारी लोगों ने इसे चारों और से घेर लिया। भीमचन्द भी यहीं कहीं था कि गुरू जी के एक गोलँदाज रामसिंघ ने एक तोप चलाई, जो कि उसने एक विशेष कलाकृति द्वारा तैयार की थी जिसका बाहरी खोल लकड़ी का था और भीतरी भाग एक विशेष धातु का बनाया गया था जो बार-बार प्रयोग करने पर भी गर्म नहीं होती थी। उसके गोले से कुछ लोग हताहत हुए और बाकी के भय के कारण भाग गये। तोप के प्रयोग से युद्ध का जल्दी ही पासा पलट गया। फतेहशाह भी पीछे हट गया और नदी से पार होकर घोड़े पर चढ़कर भाग गया। इसे युद्ध भूमि से भागते हुए देखकर मधकरशाह डढ़वालिया और जसवालिया भी अपनी सेना लेकर भाग गये। इस समय का हाल गुरू जी ने अपनी काव्य रचना विचित्र नाटक में लिखा है– "ये तो कायर बनकर भाग गये, पर भीमचन्द जिसको अब होश आ गया था। वह और गाजीचन्द चन्देल ये भी नहीं भोगे थे बल्कि शूरवीरता से मरना ही सफल समझकर अड़ गये। उधर पठान भी न भागे, वे भी रणभूमि में अड़कर खड़े रहे। अब इन्होंने इक्टठे मिलकर एक आक्रमण किया। इधर से दयाराम, नन्दचन्द, गुलाबराय, गँगाराम आदि योद्धा अब बढ़े हुए हौंसले के साथ खूब लड़े और घमासान युद्ध हुआ। गाजीचन्द चन्देल इतने क्रोध में था कि आगे ही आगे बढ़ता गया। इसके हाथ मे सेला था, जिससे इसने अनेकों शूरवीरों को पिरोया और उन्हें घायल करके पछाड़ दिया। इस तरह बढ़ते-बढ़ते यह सँगोशाह पर आ झपटा, पर उस शूरवीर के आगे इसका कोई वश न चला, टुकड़े होकर धरा पर आ गिरा और अपने स्वामी धर्म को पूरा कर गया"।

गाजीचन्द की मृत्यु से नजाबतखाँ के मन में अत्यन्त क्रोध भर दिया। वह थोड़े से पठानों को लेकर तेजी से आगे बढ़ा और सीधा सँगोशाह पर, जो कि गुरू जी की आज्ञा अनुसार आज के युद्ध का सेनापति था, जाकर झपटा। नजाबतखाँ और सँगोशाह गुरू जी के पास किसी समय इक्टठे रहते थे, एक-दूसरे को पहचानते थे, इक्टठें कसरतें किया करते थे। दोनों खूब लड़े। इतनी वीरता से युद्ध हुआ कि दोनों के लिए वाह-वाह हो गई। अन्त में नजाबतखाँ का शस्त्र ठिकाने पर जा लगा, सँगो जी को सख्त चोट आई, पर वे इतने जोश में थे कि बदले का वार किया और नजाबतखाँ मारा गया और सँगोशाह भी गिरा और वीरगति को प्राप्त हुआ। सँगोशाह आज जिस वीरता से लड़ा था, फतेह का काफी भाग उसकी दूरदर्शिता और अचूक वीरता का फल था। उस पर प्रसन्न होकर गुरू जी ने उसे शाहसँग्राम का नाम प्रदान किया था। शाहसँग्राम की मृत्यु के पश्चात अब युद्ध का सारा नेतृत्व गुरू जी ने स्वयँ सँभाल लिया और तीर कमान लेकर आगे बढ़े। उधर से सँगोशाह के मारे जाने के कारण पठानों का हौंसला बढ़ा और नजाबतखाँ की मौत के कारण गुस्सा भी बढ़ा। वे आगे बढ़े आ रहे थे। घाट से अभी दूरी पर ही थे कि ऊपर के मैदान की, इस युद्ध भूमि की बढ़ी हुई एक नुक्कड़ पर जाकर गुरू जी ने तीर चलाया, जो आगे बढ़े हुए एक पठान सेनापति को जाकर लगा और वह मर गया। फिर दूसरा तीर सम्भालकर आपने सीध बाँधी और भीखन खाँ के मुँह को ताक कर मारा।

यह तीर खाँ को घायल करके उसके घोड़े को जा लगा। घोड़ा गिर गया और खाँ पीछे को भाग गया। तीसरा तीर फिर चला, इससे भी एक और गिर पड़ा और घोड़ा भी गिर पड़ा, इतने में हरीचन्द की बेहोशी टूट गई थी। उसे कोई सख्त घाव नहीं था, सिर में घमक के कारण बेहोश हो गया था, वैसे घायल था। जब उसे होश आया तो उसने देखा कि इस ओर हार हो रही है, फतेहशाह चला गया है, कलह का मूल भीमचन्द बिल्कुल ही आगे नहीं आता, दूसरे राजा पीछे पैर रख रहे हैं, दो तीन पठान सरदार मारे गये हैं ओर भीखम खाँ घायल होकर भागकर आ गया है, तब इसे शूरवीरता वाला क्रोध आया और अपने सवारों को लेकर आगे बढ़ा। इसने तीरों की इतनी वर्षा की कि जिसे भी इसका तीर लगा वह नहीं बच सका। इसने एक बार दो-दो बाण कस-कस कर मारे। शूरवीर को लगते अथवा घोड़े को, जिसे भी लगते, उसके शरीर से पार हो जाते। इस लड़ाई में दोनों ओर से फिर जमकर युद्ध हो रहा था। वो मारता हुआ आगे बढ़ता हुआ अब उस स्थान पर आ गया जहाँ पर से उसका तीर गुरू जी को लग सकता, अतः उसने निशाना बाँधकर तीर मारा, यह गुरू जी के घोड़े को जाकर लगा। उसका दूसरा तीर आया, पर गुरू जी के कान के पास से निकल गया, उन्हें लगा नहीं। अब फुर्तीले हरीचन्द ने तीसरा तीर मारा, किन्तु वह भी पेटी में लगा और वह भी गुरू जी का कुछ नहीं बिगाड़ सका। हरीचन्द को आज जीवन में पहली बार अपनी तीरँदाजी पर गुस्सा आया कि उसने तीन अचूक तीर मारे, पर गुरू जी के दाँव बचाने की चपलता किस कमाल की है कि बाल-बाल बच गये हैं। गुरू जी लिखते हैं कि जब उन्हें तीसरा बाण आकर लगा तो उनका गुस्सा भी जागा। शत्रु के तीन वार झेलना बड़ी विशालता का प्रतीक है। तब आपने एक तीर मारा, जो हरीचन्द को जाकर लगा और वह जवान मारा गया। हरीचन्द की मृत्यु को देखकर उसके साथी और शेष खान आदि सभी उठकर भागे। कोटलहर का राजा भी मारा गया और साहिब श्री गुरू गोबिन्द सिंघ महाराज जी की फतेह हो गई। अब भगदड़ मच गई, सारे राजपूत, पठान, गावों के अहीर, गूजर और प्रजा के लोग जो लूट के विचार से काफी सँख्या में आये हुए थे, सभी भागे जा रहे थे। किश्तियों पर सवार होकर, नदी पार करके, लकड़ियाँ नदी के बीच डाल-डालकर उनका आश्रय लेकर, मटकों पर तैरकर नदी के पार जा रहे थे। सिक्ख सेना अब खुशी से उमड़कर उनका पीछा करने के लिए उठी कि उनकी राजधानी तक मार की जाए, पर गुरू जी ने पीछा करने वालों को वापिस बुलवा लिया।

अब सबसे पहला काम सँगोशाह, जीतमल तथा दूसरे शहीद हुए योद्धाओं की अँत्येष्टि करने का था। बुद्धूशह के पुत्रों को दफनाना था और शेष सभी की अँत्येष्टि करनी थी। अतः गुरू जी की आज्ञा के अर्न्तगत आपके कृपालु नैनों के सामने और आपके आर्शीवाद से यह सारा कार्य किया गया। ये सारे कार्य करवाकर गुरू जी अपनी विजयी सेना और पीर बुद्धूशाह तथा अपने शूरवीरों सहित श्री पाउँटा साहिब जी में आ गये, सभी घायलों को भी लाया गया और उनके इलाज शुरू किये गये। श्री पाउँटा साहिब जी में एक दिन विश्राम करके फिर दीवान सजा। इसमें गुरू जी ने अपने उच्च आदर्श का, शत्रु की सेना का, अकारण टूटकर आक्रामण करने का ब्यौरा आदि बताकर वीर रस और शान्त रस का सम्मेलन समझाया। अन्तरात्मा में ज्योति के साथ एक ज्योति होकर उच्च रहकर स्वच्छ आचरण में वीर रस का व्यवहार बताया। फिर उनके लिए आर्शीवाद दिये गये, जो शहीद हुए थे। पहले आसा की वार का कीर्तन हुआ, फिर गुरूबाणी के पाठ की समाप्ति हुई और प्रसाद बाँटा गया। अब जो शूरवीर वीरता दिखाकर जीवित बचकर आ गये थे उन पर अनुकम्पा हुई, सिरोपे दिये गये। सेना के सभी शूरवीरों को धन का दान दिया गया। बुआ जी के तीन पुत्रों पर जो जीवित बचे थे और बहुत ही वीरता से लड़े थे, अनुकम्पा हुई। दो भाई जो कि शहीद हो गये थे उन्हें वरदान और शाहसँग्राम आदि नाम प्रदान किये गये। श्री पाउँटा साहिब जी में ही बड़े साहिबजादे का जन्म हुआ था। उनकी उम्र इस समय चार-पाँच महीने की थी। आज के दीवान में उनका नाम युद्ध की फतेह पर अजीत सिंघ रखा गया। तीसरे पहर गुरू जी स्नान करके तैयार हो रहे थे कि बुद्धूशाह जी ने आकर विदा माँगी। बुद्धूशाह जी पर बहुत आध्यात्मिक कृपा हुई थी और उनके मुरीदों को भी मिठाई के लिए पाँच हजार रूपये दिये गये। इस समय आप कँघा कर रहे थे कि बुद्धूशाह ने यह दान माँग लिया। गुरू जी ने यह दान ककरेजी दस्तार सहित दे दिया। एक पोशाक, एक हुक्मनामा भी प्रदान किया गया। फिर गुरू साहिब जी ने सारे वीर बहादुरों की सम्भाल करके महंत कृपाल जी पर प्रसन्न हुए। आपने केसरी रँग की दूसरी दस्तार सिर पर बाँधने के लिए मँगवाई और उसमें से आधी महंत कृपाल जी को दे दी। महंत जी ने उसे अपनी पगड़ी के ऊपर सजा लिया। इस प्रकार दयाराम को एक ढाल प्रदान की। शूरवीरों में अब चाव भर गया था। विजय प्राप्त होने के कारण साहस बढ़ गया था। अतः वे फतेहशाह के क्षेत्र पर कब्जा करना चाहते थे, किन्तु गुरू जी ने उनका मार्गदर्शन किया और कहा कि हमारा लक्ष्य कोई राज्य स्थापित करना नहीं है, केवल मानव अधिकारों की रक्षा करना है और दुष्टों का नाश करना ही हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है। हम कभी भी किसी पर अपनी और से आक्रमणकारी नहीं होंगे, जब तक कि सामने वाला युद्ध के लिए न ललकारे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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