SHARE  

 
jquery lightbox div contentby VisualLightBox.com v6.1
 
     
             
   

 

 

 

5. भँगाणी का युद्ध भाग-1

पर्वतीय नरेशों का टिडडी दल श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी से युद्ध करने भँगाणी के मैदान में आ पहुँचा। एक अनुमान के अनुसार लगभग 10 हजार सेना लेकर यह पर्वतीय नरेशो का दल आगे बढ़ा। जिसमें भाग लेने वाले भीमचँद, कृपालचँद कटोच, केसरीचँद जैसवाल, सुखदयाल जसरेत, हरीचँद नालागढ़, पृथीचँद ढढवाल, भूपालचँद मुलेर इत्यादि थे। 15 अपैल 1687 को दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। गुरू जी की और से सैनिक टुकड़ियों की अगुवाई गुरू जी की बुआ वीरो जी के पाचों पुत्र भाई सँगोशाह, जीतमल, मोहरीचँद, गुलाबराय और गँगाराम जी कर रहे थे। गुरू जी के मामा कृपालचँद जी ने भी इस युद्ध में भाग लिया। दीवानचँद, पुरोहित दयाराम और अन्य अनेकों सिक्खों ने अपने-अपने जत्थों की कमान सम्भाली। राजा मेदनी प्रकाश ने अपने चुनिंदा सिपाही गुरू जी के सेना में भेज दिये। इस प्रकार गुरू जी के पास योद्धाओं की संख्या 2500 से ऊपर हो गई। इस अवसर पर एक काशी का बढ़ई सिक्ख गुरू जी के दर्शनों का आया जो गुरू भेंट के रूप में एक विशेष कलाकृति द्वारा तैयार लकड़ी की तोप लाया। इसकी विशेषता यह थी कि इसका बाहरी खोल लकड़ी का तथा भीतरी हिस्सा एक विशेष धातु द्वारा तैयार किया गया था जो बार-बार प्रयोग करने पर भी गर्म नहीं होता था। गुरू जी की सेना में सरदार पठान अपने सवारों सहित वेतन प्रारम्भ से लेते रहे और युद्ध के करतब करते रहे। आज जब दलों में तैयारी का हुकुम हुआ तो सबने मिलकर सलाह की कि हम युद्ध में भाग न लें और खिसक चलें। अतः षडयँत्र करके अगले दिन गुरू जी की सेवा में हाजिर हुए और छुटटी माँगने लगे। इस समय यह खबर किसी तरह भी सुखदाई नहीं हो सकती थी, पर गुरू जी ने उन्हें समझाया और वेतन बढ़ाने का भरोसा दिया गया, यहाँ तक वेतन पाँच गुना बढ़ा देने को कहा गया पर उन्होंने एक न मानी।

सँगोशाह ने अन्त में यह भी कह दिया कि यदि जीतकर आ गये तो मोहरों की एक-एक ढाल भरकर देंगे, तब भी न माने। तब सँगोशाह ने आकर गुरू जी से कहा कि अब इन्हें रखना ठीक नहीं, यदि आपकी आज्ञा हो तो इन्हें लूट पीटकर निकाल दें। तब गुरू जी ने कहा, इन्हें लूटो पीटो नहीं और वैसे ही जाने दो। यहाँ से तो सब कहकर चले थे कि घरों को जा रहे हैं, पर थोड़ी दूर जाकर यमुना के पार चले गये और गढ़वाल के मार्ग पर राजाओं से जाकर मिले। इनमें से एक काले खाँ ही अपनी टुकड़ी सहित रह गया। वह अपने साथियों को भी नमक हराम बनने से रोकता रहा, जब वे न माने, तब यह उनके साथ न गया और स्वामी भक्ति के लिए गुरू जी की शरण में ही रहा। जब गुरू जी ने यह बात सुनी, तब उसे भी चले जाने का सन्देश भेजा, पर वह न गया, तब गुरू जी ने उसे बुलाकर कुछ इनाम दिया और कहा कि तुझे प्रसन्नता से भेज रहे हैं, तुझ पर किसी तरह की नाराजगी नहीं है। सो वह गुरू जी की आज्ञा मानकर किसी दूसरे स्थान पर चला गया पर शुत्र की सेना के साथ जाकर नहीं मिला। जो पठान फतेहशाह की सेना में जाकर मिल गये थे, उनके साथ फतेहशाह ने वायदा कर लिया था कि वेतन तथा दूसरे इनाम के अलावा यदि फतेह हो गई तो तुम्हें लूट का माल भी दे दिया जायेगा। इस तरह लूटमार का लालच प्रायः सँसार के इतिहास में जँगी लोगों ने बरता है, जिससे निम्न भावों से जोश की वृद्धि होती है। पठानों को अब तक गुरू घर का सारा पता लग चुका था और वे खुश थे कि जाते की सारे खजाने को दबा लेंगे और आजीवन धनी बनकर घरों को लौटेंगे। इधर तो ये विदा हुए उधर गुरू जी के पास महंत कृपाल जी तपी पुरूष थे और पाँच सौ उदासी साधुओं के साथ गुरू जी के पास रहते थे उस समय ये उदासी साधु कभी-कभी कसरत भी करते थे और लड़ाई के करतब भी जानते थे। साधुओं के डेरों का नाम अखाड़ा भी इन कसरत करने वाले अखाड़ों से ही पड़ा है। ये पांच सौ जवान तगड़े लड़ने वाले थे। पर जब उन्होंने देखा कि पाँच सौ पठान चलकर दूसरी ओर जा मिले हैं और शेष जातियों के लोग जिन्हें युद्ध विद्या सिखाई गई है, नये हैं और निश्चय ही हार होगी और उधर पहले की बहुत ताकत है और जब इतने योद्धा और जाकर मिल गये हैं तब वे रातो रात खिसक गये।

सवेरे जब आप जी के पास खबर पहुँची कि उदासी साधु भी रात को चले गये हैं तब आप जी ने पूछा, क्या सारे चले गये हैं या कोई रह भी गया है ? तब किसी ने बताया कि मण्डली तो चली गई है, पर महंत जी बैठे हैं। तब गुरू जी मुस्कुराये और बोले– वाह वाह, यदि जड़ रह गई तो सब कुछ रह गया। यदि प्राण बच गये हैं तो सब कुछ बच रहा है। यदि महंत भी चला जाता तो गुरू घर से उनका संबंध भी टूट जाता, अब संबंध बना रहेगा। ऐसे चेलों का क्या है, जो अपने महंत को छोड़कर चले गये हैं, चेले और बन जायेंगे। जाओ महंत कृपाल को बुला लाओ। जब महंत जी आये और शीश झुकाकर बैठ गये, तब गुरू जी ने मुस्कुरा कर पूछा– मंहत जी ! चेले कहां हैं ? तब आप बोले– हम अल्पज्ञ हैं आपकी महिमा नहीं जान सकते। अतः दुनियादारी की दृष्टि रखने वाले विचलित होकर भाग गये हैं। यदि आपकी कृपा दृष्टि हो तो क्या नहीं हो सकता। इस बात का मुझे पूर्ण भरोसा है। गुरू जी ने एक चिटठी पीर बुद्धूशाह जी को लिखी कि जो पठान औरँगजेब की ओर से हटाये जाने पर हमारे यहाँ सेना में भर्ती हुए थे, वे अब पहाड़ी राजाओं से जा मिले हैं। इस तरह चिटठी भेजकर आप भँगाणी को जाने की तैयारी पर विचार करने लगे। कुछ सेना और जत्थेदार किले में रखे और उन्हें वहाँ भली भान्ति रक्षा करने की आज्ञा दी। गुरू जी की आज्ञा पाकर गुरू जी की बुआ के पाँचों लड़के अपनी-अपनी सेना को लेकर भँगाणी की और चल दिये। इस तरह सारा सामान तैयार करके गुरू जी आप भी घोड़े पर चढ़कर चल दिये और पीछे-पीछे आपकी सेना भी चल पड़ी।

युद्ध के दलों में युद्ध का मूल आक्रमणकारी फतेहशाह था क्योंकि उसी के क्षेत्र से नरेश भीमचँद की प्रेरणा पर युद्ध थोपा जा रहा था। फतेहशाह धनवान और नीतिज्ञ तथा बलशाली राजा था और भीमचँद युद्ध का प्रेरक था, जो कि तीरदाँजी तथा अन्य शस्त्र विद्याओं में प्रणीण अपने समय का बली योद्धा था। राजा हरीचँद भी उस समय तीरदाँजी का उस्ताद था। शत्रु की सेना में उस समय ऐसे-ऐसे शूरवीर थे, जिनके साथ युद्ध करना कोई आसान खेल नहीं था। गुरू जी इस समय चढ़ती हुई जवानी में लगभग बीस वर्ष की आयु के थे, पर आप में युद्ध का उत्साह असीम था। धनुष विद्या में कमाल की प्रवीणता थी और अपनी सेना में, जो शरीर के साथ-साथ दिल का बल भरा था, वह उनकी एक अनोखी सफलता थी। शत्रु की सेनाएँ अब यमुना के पार पहुँच चुकी थीं और इस पार आकर मोर्चे बाँधे खड़ी थीं। गुरू जी ने दयाराम को साथ लेकर शत्रु की सेना की व्यूह रचना को जाँचा। बाँई ओर पठानों की सेना थी और दाँई और राजाओं की सेना थी। फतेहशाह पीछे था जो सारा प्रबन्ध कर रहा था। हरीचँद हँडूरिया सबसे आगे वाली टुकड़ी में खड़ा था। इस तरह की पड़ताल अभी समाप्त हुई थी कि दक्षिण दिशा की और कुछ दुरी पर धूल उड़ती दिखाई दी। इसे देखकर गुरू जी के सैन्य अधिकारी नंदचँद ने आकर खबर दी कि एक सेना आ रही लगती है। पहले तो मैं सोच में पड़ गया था, पर एक दूत खबर लाया है कि पीर बुद्धूशाह अपने चार पुत्रों और 700 जवान लेकर आया है। आप यह खबर सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और सँगोशाह को हुक्म दिया गया कि अपनी बाँट में नई सेना के प्रबंध का विचार करके बुद्धूशाह को इसका ब्यौरा बता दें। बुद्धूशाह की कुमक की खबर सारे सिक्ख दल में झटपट फैल गई, इससे सबके दिलों में दुगूनी उमँग भर गई।

सँगोशाह ने गुरू जी की राय से अपने प्रबंध कर रखे थे। रणस्तम्भ गाड़ दिया था। अब इस बात पर विचार हो रहा था कि पहले हम चढ़ाई करें अथवा शत्रु का पहला वार देखें। इतने में उधर से अचानक वार हो गया। अब सँगोशाह की ओर से बन्दूकों की भरमार हुई, पर वे बड़े वेग से उमड़े आ रहे थे और हवा उनकी ओर वेग से जा रही थी, इधर की बन्दूकों और जँबूरों के धूएँ उन्हें अन्धेरा कर रहे थे। उनके तीर और गोलियाँ निशाने पर बहुत कम बैठते थे। इधर से बहुत निशोन बैठते थे, पर वे बढ़ते-बढ़ते एक ऐसे ठिकाने पर आ गये जहाँ पर एक नीचे स्थान पर सँगोशाह के बँदूकची छिपे बैठे थे। इनकी भरी हुई तोड़ेदार बन्दूकों ने एक बार झड़ी लगा दी। तीन चार सौ पहाड़िये उसी स्थान पर हताहत हो गये। इससे जो सैनिक बढ़े आ रहे थे वे ठिठक गये और इधर से फिर गोलियाँ चलने लगीं। इस तरह दो तीन सौ पहाड़िये हताहत हो गये। तब हरीचँद ने सेना को पीछे हटा लिया और बाँई ओर को चला गया। फतेहशाह ने पूछा– हरीचँद, गुरू के पास ऐसी सीखी हुई सेना कहाँ से आ गई है ? पठान तो उन्हें छोडकर इधर आ गये हैं ? हरीचंद ने कहा इन पठानो को सारे भेद पता हैं, इन्हें आगे किया जाये। तो फतेहशाह ने भीखनशाह को बुलाकर कहा कि तुम्हें सारी सिक्ख सेना का पता है, तमु आगे बढ़ो और उन्हें हाथों-हाथ ले लो। गुरू के खजाने की सारी लूट तो तुम्हारी होगी, यह बात तो पहले ही कही जा चुकी है, हम उसमें से भाग नहीं माँगेंगे। इस तरह लोभ देकर वह पठानों को आगे ले आया और सँगोशाह की टुकड़ी पर आ झपटा।

पठानों की सेना अब सँगोशाह की टुकड़ी पर बढ़े ही जोश और वेग के साथ झपटी। आगे सँगोशाह भी एक महान शूरवीर था, पठानों के आते ही उसने गोलियों की बौछार के मुँहतोड़ जवाब से उनकी खातिरदारी की। पठान जिस तेजी से आकर पैर हिला देने की बात सोच रहे थे, वे हिला न सके। अब दोनों ओर से घमासान का युद्ध मच गया। इसे देखकर गुरू जी ने नंदचँद और दयाराम को कुछ सेना देकर सँगोशाह की सहायता के लिए भेज दिया। इन्होंने ऐसे तीर चलाये जो तीर जिसे लगा, वह नहीं बच सका। इस स्थान पर सँग्राम का बहुत सख्त जोर हो गया। गुरू जी के पास लालचँद माही खड़ा था, वह बड़ा पहलवान और बलवान व्यक्ति था, गुरू जी की आज्ञा लेकर वह भी सँगोशाह वाले स्थान पर जा पहुँचा। इसने पहलवानी बल से तीर चलाकर बड़े जवानों को मारा। इसके तीरों की मार देखकर दोनों पक्ष के लोग वाह-वाह करने लगे। लालचँद का युद्ध देखकर एक लालचँद नामक हलवाई भी शस्त्र लेकर उसी ठिकाने पर जा पहुँचा। पठानों को यह पता था कि पहला तो मछुआ है और दूसरा हलवाई, फिर यह शूरवीर कैसे हो गये हैं। अब माहरीचँद आगे बढ़ा, इस तेजी से कि शत्रु की सेना में घिर गया। इसने अपने बल और क्रोध में कितने ही पठानों का वध कर दिया। अब घोड़ा घायल हो गया था और आप भी मारा जाने वाला ही था, पर सँगोशाह ने देखा कि भाई घेरे में फँस गया है, वह एकदम सवारों का दस्ता लेकर जा पहुँचा और जिस तेजी से गया था, उसी तेजी से भाई को घेरे से निकालकर ले आया। इस तरह उसके बचकर निकल जाने पर पठान चकित हो रहे थे। इस बात को दोनों और से सिक्खों की विजय का पहला कदम समझा गया। इस समय के युद्ध के शूरवीरों के नाम और युद्ध का संक्षिप्त वर्णन भी गुरू जी ने स्वयँ किया है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
            SHARE  
          
 
     
 

 

     

 

This Web Site Material Use Only Gurbaani Parchaar & Parsaar & This Web Site is Advertistment Free Web Site, So Please Don,t Contact me For Add.