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3. सिक्ख इतिहास का तीसरा युद्ध

काबुल नगर की संगत से बलपूर्वक हथियाए गये घोड़े शाही अस्तबल लाहौर के किले में से एक-एक करके युक्ति से गुरू जी का परम सेवक भाई बिधिचन्द जी लेकर गुरू जी के चरणों में उपस्थित हुआ और उसने गुरू जी को बताया कि इस बार उसने आते समय सरकारी अधिकारियों को सुचित कर दिया है कि वह घोड़े कहाँ ले जा रहा है। इस पर गुरू जी ने अनुमान लगा लिया कि अब एक और युद्ध की सम्भावना बन गई है। अतः उन्होंने समय रहते तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी। जब लाहौर के किलेदार ने लाहौर के राज्यपाल (सुबेदार) को सूचित किया कि श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने वे दोनों घोड़े युक्ति से प्राप्त कर लिये हैं तो वह विवक खो बैठा। उसे ऐसा लगा कि किसी बड़ी शक्ति ने प्रशासन को चुनौती दी हो। वैसे तो घोड़ों की वापसी से बात समाप्त हो जानी चाहिए थी, किन्तु सत्ता के अभिमान में सूबेदार ने गुरू जी की शक्ति को क्षीण करने की योजना बनाकर, उन पर विशाल सैन्य बल से आक्रमण के लिए अपने वरिष्ठ सेना अधिकारी लल्ला बेग के नेतृत्व में 20 हजार जवान भेजे। श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी उन दिनों प्रचार अभियान के अर्न्तगत मालवा क्षेत्र के काँगड़ा गाँव में पड़ाव डाले हुए थे। लल्ला बेग के आने की सूचना पाते ही गुरू जी वहाँ के जागीरदार रायजोध जी के सुझाव पर नथाणों गाँव चले गये। यह स्थान सामारिक दृष्टि से अति उत्तम था। यहाँ एक जलाशय था, जिस पर गुरू जी ने कब्जा कर लिया। दूर-दूर तक उबड़-खाबड़ क्षेत्र तथा घनी जँगली झाड़ियों के अतिरिक्त कोई बस्ती न थी। इस समय गुरू जी के पास लगभग 3 हजार अनुयाइयों की सेना थी, जैसे ही युद्ध का बिगुल व नगाड़ा बजाया गया, सन्देश पाते ही कई अन्य श्रद्धालु सिक्ख घरेलु शस्त्र लेकर जल्दी ही गुरू जी के समक्ष उपस्थित हुए। सभी को धर्म युद्ध पर मर मिटने का चाव था।

लाहौर से लल्ला बेग सेना लेकर लम्बी दूरी तय करता हुआ और गुरू जी को खोजता हुआ, कुछ दिनों में इस जँगली क्षेत्र में पहुँच गया। उसने आते ही हसन अली को सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए गुत्तचर के रूप में गुरू जी के शिविर में भेज दिया। किन्तु स्थानीय जनता से भिन्न दिखने पर जल्दी ही उसे दबोच लिया गया और उससे उलटे शाही सेना की गतिविधियों की सूचनाएँ प्राप्त कर ली गई। उसने बताया कि शाही सेना ऐश्वर्य की आदि है, वह इस पठारी क्षेत्र में बिना सुविधाओं के लड़ नहीं सकती, उनके पास अब रसद पानी की भारी कमी है। वे तो केवल सँख्या के बल पर युद्ध जीतना चाहते हैं जबकि युद्ध में दुढ़ता और विश्वास चाहिए। लल्ला बेग और उसकी सेना रास्ते भर अपनी मश्कों से शराब सेवन करती चली आ रही थी, जब गुरू जी के शिविर के निकट पहुँचे तो उनको पानी की कमी का अहसास हुआ, किन्तु पानी तो गुरू जी के कब्जे में था। लल्ला बेग पानी की खोज में भटकने लगा। तभी घात लगाकर बैठे गुरू के योद्धाओं ने उन्हें घेर लिया और गोली बारी में भारी क्षति पहुँचाई। अब शाही सैन्य बल के पास तालाबों का गन्दा पानी ही था, जिसके बल पर उन्हें युद्ध लड़ना था। युद्ध के पहले ही बहुत से सैनिक भोजन के अभाव में व गन्दे पानी के कारण अमाशय (अपच) रोग से पीड़ित हो गये। उपयुक्त समय देखकर गुरू जी के योद्धाओं ने गुरू आज्ञा पर शत्रु सेना पर धावा बोल दिया। दूसरी तरफ शाही सेना इसके लिए तैयार नहीं थी। वे लम्बी यात्रा की थकान महसूस कर रहे थे। जल्दी ही घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। शाही सेना को इसकी आशा नहीं थीं, वे सोच रहे थे कि विशाल सैन्य बल को देखते ही शत्रु भाग खड़ा होगा किन्तु उन्हें सब कुछ विपरीत दिखाई देने लगा। जिस कारण वे जल्दी की साहस खो बैठे और इधर-उधर झाड़ियों की आड़ में छिपने लगे। गुरू जी के समर्पित सिक्खों ने शाही सेना को खदेड़ दिया।

शाही सेना को पीछे हटता देखकर लल्ला बेग को आशँका हुई कि कहीं सेना भागने न लग जाए। उसने सेना का नेतृत्व स्वयँ सम्भाला और शाही सेना को ललकारने लगा। किन्तु सब कुछ व्यर्थ था, शाही सेना मनोबल खो चुकी थी। जबकि शाही सेना गुरू जी के जवानों से पाँच गुना अधिक थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए गुरू जी के योद्धाओं ने रातभर युद्ध जारी रखा, परिणामस्वरूप सुर्य उदय होने पर चारों और शाही सेना के शव ही शव दिखाई दे रहे थे। लल्ला बेग यह भयभीत दुश्य देखकर मानसिक सन्तुलन खो बैठा। वह आक्रोश में अपने सैनिकों को धिक्कारते हुए आगे बढ़ने को कहता, किन्तु उसकी सभी चेष्टाएँ निष्फल हो रही थी। उसके सैनिक केवल अपने प्राणों की रक्षा हेतु युद्ध लड़ रहे थे। वह गुरू जी के जवानों से लोहा लेने की स्थिति में थे ही नहीं। इस पर लल्ला बेग ने अपने बचे हुए अधिकारियों को एकत्रित करके एक साथ गुरू जी पर धावा बोलने को कहा– ऐसा ही किया गया। उधर गुरू जी और उनके योद्धा इस मुठभेड़ के लिए तैयार थे। एक बार फिर युद्ध पूर्ण रूप से घमासान रूप ले गया। दोनों तरफ से रण बाँके विजय अथवा मृत्यु के लिए जूझ रहे थे। गुरू स्वयँ रणक्षेत्र में अपने योद्धाओं का मनोबल बढ़ा रहे थे। इस मृत्यु के ताँडव नृत्य में योद्धा खून की होली खेल रहे थे कि तभी लल्ला बेग ने गुरू जी को आमने सामने होकर युद्ध करने को कहा। गुरू जी तो ऐसा ही चाहते थे, उन्होंने तुरन्त चुनौती स्वीकार कर ली। गुरू जी ने अपनी मर्यादा अनुसार लल्ला बेग से कहा– लो तुम्हीं पहले वार करके देख लो कहीं मन में हसरत न रह जाए कि गुरू को मारने का मौका ही नहीं मिला। फिर क्या था ? लल्ला बेग ने पूर्ण तैयारी से गुरू जी पर तलवार से वार किया किन्तु गुरू जी पैंतरा बदलकर वार झेल गये। अब गुरू जी ने पूर्ण विधिपूर्वक वार किया, जिसके परिणामस्वरूप लल्ल बेग के दो टुकड़े हो गये और वह वहीं ढेर हो गया। लल्ला बेग मारा गया है– यह सुनते ही शत्रु सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार यह युद्ध गुरू जी के पक्ष में हो गया और शाही सेना पराजय का मुँह देखकर लौट गई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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