23. दूसरा और बड़ा घल्लूघारा (महाविनाश)
27 अक्तूबर, 1761 ईस्वी की दीवाली के शुभ अवसर पर श्री अमृतसर साहिब जी में चारों
दिशाओं में से आगमन हुआ। अकाल बुँगा के सामने भारी भीड़ थी। सभी मिसलों के सरदार अपने
साथियों सहित धार्मिक सम्मेलन के लिए पधारे थे। ‘सरबत खालसा’ ने विचार किया कि देश
में अभी तक अब्दाली के दलाल एजेंट हैं और वह लोग देश का हित नहीं सोचते, बल्कि
विद्रोहियों की हाँ में हाँ मिलाते हैं। इनमें जँडियाला नगर का निरँजनिया, कसूरवासी,
पेसेगी, मालेरकोटला के अफगानों तथा सरहिन्द के फौजदार जैन खान के नाम उल्लेखनीय
हैं। कसूर और मालेरकोटला के अफगान तो अहमदशाह अब्दाली की नस्ल के लोग थे। जैन खान
की नियुक्ति अब्दाली ने सरहिन्द के फौजदार के पद पर स्वयँ की थी। केवल निरँजनियों
का महंत आकिलदास अकारण ही सिक्खों से वैर करने लगा था। अतः पँजाब में सिक्खों के
राज्य की सम्पूर्ण रूप में स्थापना करने के लिए इन सभी विरोधी शक्तियों को
नियन्त्रण में करना अति आवश्यक था, परन्तु इस अभियान में न जाने कितनी अड़चने आ जाएँ
और न जाने कब अहमदशाह अब्दाली काबुल से नया आक्रमण कर दे, कुछ निश्चित नहीं था,
इसलिए सिक्ख इन विरोधी शक्ति के साथ कठोर कार्यवाही करने से सँकोच कर रहे थे। इन सभी
तथ्यों को ध्यान में रखकर वह ‘गुरमता’ पारित किया गया कि सभी सिक्ख योद्धा अपने
परिवारों को पँजाब के मालबा क्षेत्र में पहुँचाकर उनकी ओर से निश्चिंत हो जाएँ और
तभी बाकी के विरोधियों से सँघर्ष करके सम्पूर्ण पँजाब में ‘खालसा राज्य’ की स्थापना
की जाए। गुरमते के दूसरे प्रस्ताव में पँथ दोखीओं, पँथ के शत्रुओं से सर्वप्रथम
निपट लिया जाए ताकि वह पुनः गद्दारी न कर सकें।
जँडियाले नगर का महंत आकिल दास सिक्खी स्वरूप में था परन्तु वह
सदैव सिक्ख विरोधी कार्यों में सँलग्न रहता था और शत्रु से मिलीभगत करके पँथ को कई
बार हानि पहुँचा चुका था, अतः निर्णय यह हुआ कि सर्वप्रथम सरदार जस्सा सिंह
आहलूवालिया जी महंत आकिल दास से ही निपटेगें। इस प्रकार जँडियाला नगर घेर लिया गया
परन्तु शत्रु पक्ष ने तुरन्त सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली को पत्र भेजा। अहमदशाह
अब्दाली ने पहले से ही सिक्खों को उचित दण्ड देने का निश्चय कर रखा था। अतः उसने
पत्र प्राप्त होते ही काबुल से भारत पर छठवाँ आक्रमण कर दिया। वह सीधे जँडियाले
पहुँचा परन्तु समय रहते सरदार जस्सा सिंह जी को अब्दाली के आने की सूचना मिल गई और
उन्होंने घेरा उठा लिया और अपने परिवार तथा सैनिकों को सतलुज नदी पर किसी सुरक्षित
स्थान पर पहुँचने का आदेश दिया ताकि निश्चिंत होकर अब्दाली से टक्कर ली जा सके। जब
अहमदशह जँडियाला पहुँचा तो सिक्खों को वहाँ न देखकर बड़ा निराश हुआ। दूसरी ओर जब
मालेरकोटला के नवाब भीखन खान को ज्ञात हुआ कि सिक्ख केवल 10 मील की दूरी पर आ गए
हैं तो वह बहुत चिन्तित हुआ। उस समय सरहिन्द का सूबेदार जैन खान दौरे पर किसी निकट
स्थल पर ही था। भीखन खान ने उससे सहायता की याचना की। इसके अतिरिक्त उसने तुरन्त
अब्दाली को भी यह सूचना भेजी कि सिक्ख इस समय उसके क्षेत्र में एकत्रित हो चुके
हैं। अतः उन्हें घेरने का यही शुभ अवसर है। अहमदशाह अब्दाली के लिए तो यह बड़ा अच्छा
समाचार था। उसने 3 फरवरी को प्रातःकाल ही कूच कर दिया और किसी स्थान पर पड़ाव डाले
बिना सतलुज नदी को पार कर लिया।
अब्दाली ने 4 फरवरी को सरहिन्द के फौजदार जैन खान को सँदेश भेजा
कि वह 5 फरवरी को सिक्खों पर सामने से हमला कर दे। यह आदेश मिलते ही जैन खान,
मालेरकोटले का भीखन खान, मुर्तजा खान वड़ैच, कासिम खान मढल, दीवान लच्छमी नारायण तथा
अन्य अधिकारियों ने मिलकर अगले दिन सिक्खों की हत्या करने की तैयारी कर ली। अहमदशाह
5 फरवरी, 1762 ईस्वी को प्रातःकाल मालेरकोटला के निकट बुप्प ग्राम में पहुँच गया।
वहाँ लगभग 40,000 सिक्ख शिविर डाले बैठे थे, अधिकाँश अपने परिवारों सहित लक्खी जँगल
की ओर बढ़ने के लिए विश्राम कर रहे थे। इस स्थान से आगे का क्षेत्र बाबा आला सिंह का
क्षेत्र था, जहाँ बहुसँख्या सिक्खों की थी। फौजदार जैन खान ने सुयोजनित ढँग से
सिक्खों पर सामने से धावा बोल दिया और अहमद शाह अब्दाली ने पिछली तरफ से। अब्दाली
का अपनी सेना को यह भी आदेश था कि जो भी व्यक्ति भारतीय वेशभूषा में दिखाई पड़े, उसे
तुरन्त मौत के घाट उतार दिया जाए। जैनखान के सैनिकों ने भारतीय वेशभूषा धारण की हुई
थी। अतः उन्हें अपनी पगड़ियों में पेड़ों की हरी पत्तियाँ लटकाने के लिए आदेश दिया गया।
सिक्खों को शत्रुओं की इस क्षमता का ज्ञान नहीं था। अतः वे आकस्मिक आक्रमण के कारण
बुरी तरह शिकँजे में फँस गए। फिर भी उनके सरदारों ने धैर्य नहीं खोया। सरदार जस्सा
सिंह आहलूवालिया, सरदार शाम सिंह राठौर सिंधिया तथा सरदार चढ़त सिंह आदि जत्थेदारों
ने तुरन्त बैठक करके लड़ने का निश्चय कर लिया। सिक्खों के लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह थी
कि उनका सारा सामान, हथियार, गोला बारूढ और खाद्य सामग्री वहाँ से चार मील की दूरी
पर करमा गाँव में था, इसलिए सिक्ख सेनापतियों ने यह निर्णय लिया कि पहले सामग्री
वाले दस्तों से सम्बन्ध जोड़ा जाए और उसे बरनाला में बाबा आला सिंह के पास पहुँचा
दिया जाए क्योंकि उस समय सिक्खों को एकमात्र बाबा जी से ही सहायता प्राप्त होने की
आशा थी।
उन्होंने इसी उद्देश्य को लेकर बरनाला नगर की ओर बढ़ना शुरू कर
दिया और अपने परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए उनको अपने केन्द्र में ले लिया।
इस प्रकार योद्धाओं की मजबूत दीवार में परिवारों को सुरक्षा प्रदान करते हुए और
शत्रुओं से लोहा लेते हुए आगे बढ़ने लगे। जहाँ कहीं सिक्खों की स्थिति कमजोर दिखाई
देती, सरदार जस्सा सिंह उनकी सहायता के लिए अपना विशेष दस्ता लेकर तुरन्त पहुँच जाते।
इसी प्रकार सरदार चढ़त सिंह और सरदार शाम सिंह नारायण सिंघिया ने भी अपनी वीरता के
चमत्कार दिखाए। अहमदशाह अब्दाली का लक्ष्य सिक्खों के परिवारों को समाप्त करने का
था। अतः उसने सैयद वली खान को विशेष सैनिक टुकड़ी दी और उसको सिक्ख सैनिकों के घेरे
को तोड़कर परिवारों को कुचल डालने का आदेश दिया, परन्तु यह इस कार्य में सफलता
प्राप्त न कर सका और बहुत से सैनिक मरवाकर लौट आया। तदनन्तर उसने जहान खान को आठ
हजार सैनिक देकर सिक्खों की दीवार तोड़कर परिवारों पर धावा बोलने को कहा। इस पर
घमासान यद्ध हुआ। सिक्ख तो लड़ते हुए आगे बढ़ते ही चले जा रहे थे। ऐसे में अब्दाली ने
जैन खान को सँदेश भेजा कि वह सिक्खों को किसी न किसी तरह आगे बढ़ने से रोके। जैन खान
ने अपना पूरा बल लगा दिया कि किसी न किसी स्थान पर सिक्खों को रूकने पर विवश कर दिया
जाए परन्तु सिक्खों के आगामी दस्ते जीवन मृत्यु का खेल खेलने पर तुले हुए थे, वे
आत्मसमर्पण करके लड़ रहे थे, जिससे शत्रु उनके आगे रूक नहीं सकता था। अतः जैन खान ने
अब्दाली को उतर भेज दिया कि ऐसा करना सम्भव ही नहीं क्योंकि सिक्ख सामने आने वाले
को जीवित ही नहीं छोड़ते।
भले ही सिक्खों के सामने आकर शत्रु सेना उन्हें रोकने में
असमर्थ रही, फिर भी अहमदशाह अब्दाली सिक्ख योद्धाओं की उस दीवार को अन्त में तोड़ने
में सफल हो गया जो उन्होंने अपने परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई हुई थी।
फलतः सिक्खों के परिवारों को भारी क्षति उठानी पड़ी। शत्रुओं ने वृद्धों, बच्चों व
महिलाओं को मृत्यु शैया पर सुला दिया क्योंकि उनमें अधिकाँश निसहाय, थके हुए और
बीमार अवस्था में थे। सूर्य अस्त होने से पूर्व सिक्खों का कारवाँ धीरे धीरे कुतबा
और बाहमणी गाँवों के समीप पहुँच गया। बहुत से बीमार अथवा लाचार सिक्ख आसरा ढूँढने
के लिए इन गाँवों की ओर बढ़े किन्तु इन गाँवों की अधिकतर आबादी मालेरकोटला के अफगानों
की थी, जो उस समय शत्रु का साथ दे रहे थे और सिक्खों के खून के प्यासे बने हुए थे।
इन गाँवों के मुस्लिम राजपूत रंघड़ ढोल बजाकर इक्ट्ठे हो गए और उन्होंने सिक्खों को
सहारा देने की अपेक्षा ललकारना शुरू कर दिया। इसी प्रकार उनकी कई स्थानों पर झड़पें
भी हो गई। इस कठिन समय में सरदार चढ़त सिंह शुकरचकिया अपना जत्था लेकर सहायता के लिए
समय पर पहुँच गया, उन्होंने मैदान में शत्रुओं को तलवार के खूब जौहर दिखाए और उन्हें
पीछे धकेल दिया। अनेक यातनाएँ झेलकर भी सिक्ख निरूत्साहित नहीं हुए। वे शत्रुओं को
काटते-पीटते और स्वयँ को शत्रुओं के वारों से बचाते हुए आगे बढ़ते चले गये। कुतबा और
बाहमणी गाँवों के निकट एक स्वच्छ पानी की झील (डाब) थी। अफगान और सिक्ख सैनिक अपनी
प्यास बुझाने के लिए झील की ओर बढ़े। वे सभी सुबह से भूखे-प्यासे थे। इस झील पर दोनों
विरोधी पक्षों ने एक साथ पानी पीया। युद्ध स्वतः ही बन्द हो गया और फिर दोबारा जारी
न हो सका क्योंकि अब्दाली की सेना भी बुरी तरह थक चुकी थी।
पिछले छत्तीस घण्टों में उन्होंने डेढ़ सौ मील की मँजिल पार की
थी और दस घण्टे से निरन्तर लड़ाई में व्यस्त थे। इसके अतिरिक्त वे सिक्खों के
क्षेत्र की ओर बढ़ने का जोखिम भी मोल नहीं लेना चाहते थे। अतः अहमदशाह ने युद्ध रोक
दिया क्योंकि अब रात होने लगी थी और उसने अपने घायलों और मृतकों को सँभालना था। इस
युद्ध में सिक्खों ने भी जोरदार तलवारें चलाई और शत्रुओं के बहुत से सैनिक मार डाले
परन्तु उनको आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी बिना पड़ाव किए अहमदशाह उन तक पहुँच जाएगा।
अनुमान किया जाता है कि इस युद्ध में लगभग बीस से पच्चीस हजार सिक्ख सैनिक अथवा
स्त्रियां और बच्चे, बूढ़े मारे गए, इसलिए सिक्ख इतिहास में इस दुखान्त घटना को दूसरा
घल्लूघारा (महाविनाश) के नाम से याद किया जाता है। कहा जाता है कि एक ही दिन में
सिक्खों का जानी नुक्सान इससे पहले कभी भी नहीं हुआ था। इस युद्ध में बहुत से सरदार
मारे गए। जीवित सरदारों में से शायद ही कोई ऐसा बचा हो जिसके शरीर पर पाँच दस घाव न
लगे हों। ‘प्राचीन पँथ प्रकाश’ के लेखक रतन सिंघ भँगू के पिता और चाचा उस समय इस
युद्ध के मुख्य सुरक्षा दस्ते में कार्यरत थे। उनके प्रत्यक्ष साक्षी होने के आधार
पर उन्होंने लिखा है कि सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया जी ने अद्वितीय दृढ़ता और साहस
का प्रदर्शन किया था और उनको बाईस घाव हुए थे। भले ही अहमदशाह अब्दाली ने अपनी तरफ
से सिक्खों को महान हानि पहुँचाई परन्तु सिक्खों का धैर्य देखते ही बनता था। उसी
दिन साँयकाल में लँगर बाँटते समय एक निहँग सिंघ बड़ी ऊँची आवाज लगाकर कह रहा थाः
जत्थेदार जी ! खालसा, उस तरह अडिग है, तत्त्व खालसा सो रहियो, गयो सु खोट गवाय
अर्थात सिक्खों का सत्त्व शेष है और उसकी बुराइयाँ लुप्त हो गई हैं।