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22. छोटा ‘घल्लूघारा’

जक्रिया खान की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा बेटा यहिया खान पँजाब प्रान्त का राज्यपाल बना। उसने भी अपने पिता वाली सिक्ख विरोधी नीति को ही अपनाया। जक्रिया खान के शासनकाल से ही लाहौर की प्रशासनिक व्यवस्था में दीवान लखपात राय और जसपत राय नामक दो हिन्दू भाईयों का बहुत प्रभाव था। लखपत राय पँजाब प्रान्त का दीवान (कोषाध्यक्ष) तथा बड़ा भाई जसपत राय ऐमनाबाद नगर का फौजदार (सैनिक प्रशासक) नियुक्त था। वास्तव में ये कलानौर जिला गुरदासपुर के क्षत्रीय परिवार से सम्बन्ध रखते थे। सरकारी नौकरियों में चापलूसियों के कारण पदोन्नति करते करते वरिष्ठ पदवियों पर आसीन हो गए थे। ये दोनों भाई उन व्यक्तियों में से थे जो स्वयँ सिद्धि के लिए अपना धर्म इमान बेचकर अपने जम्मीर / अन्तकरण का दमन करने के लिए तत्पर रहते थे। वे अपने पदों को बनाए रखने के लिए मुगल प्रशासन के अत्याचारों को उचित ठहराते थे, फलस्वरूप उनका एक ही लक्ष्य होता कि किसी भी प्रकार स्वयँ को मुगलों का हितैषी दर्शाया जा सके। सरकारी सुनिश्चित नीतियों के अनुसार मुगलों की गश्ती सैनिक टुकड़ियाँ सिक्खों का सफाया करने पर तुली हुई थीं। इसका विरोध करने के लिए दल खालसा ने स्वयँ को 25 छोटे छोटे दलों में विभाजित करके शत्रु से गोरील्ला युद्ध द्वारा सामना करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसे में सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया और सुक्खा सिंह माड़ी कम्बों के दस्ते मुगलों की गश्ती फौज से टक्कर लेते हुए डलोझल पहाड़ी क्षेत्र की तरफ बढ़ रहे थे।

तभी स्थानीय प्रशासन फौजदार जसपत राय ने सिक्खों का पीछा करके उन्हें ऐमनाबाद की ओर खदेड़ दिया। स्थानीय चौधरी भी अपनी अपनी छोटी छोटी सैनिक टुकड़ियों के साथ जसपत राय के साथ आ मिले। इस पर सिक्ख जत्थे बदोरी की तरफ चल पड़े। वहीं पर काँटेदार झाड़ियों वाले जँगल में सिर छिपाकर जब भोजन पानी का प्रबन्ध् करने लगे, तभी जसपत राय ने उन्हें सँदेश भेजा कि वे वहाँ से तुरन्त कूच कर दें। इसके उत्तर में बड़ी विनम्रता से सिक्खों ने उत्तर दिया कि वे तीन दिन से भूखे प्यासे हैं, ऐसी दशा में वे भोजन किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते। हम कल सुबह रोढ़ी साहब के स्थान पर वैशाखी के मेले में भाग लेकर स्वयँमेव ही आगे की ओर चल देंगे। जिस पर भी जसपत राय ने वही पुराना सँदेश दोहराया किन्तु सिक्खों का उत्तर भी पुराना ही था कि हमारा तुम से कोई वैर नहीं है। हम केवल भोजन करके दूसरे क्षेत्रों में प्रस्थान कर जायेंगे। यही उत्तर मिलते ही जसपात राय आग बबूला हो उठा। इस पर वह बोला कि ‘मैं तो तुम्हारा सर्वनाश करने पर तुला हूँ और तुम लोग हो कि मेरे ही क्षेत्र में से सनद प्राप्ति के लिए कामना करते हो।’ उसने सिक्ख जत्थों को घेरे में ले लिया। उस समय सिक्खों ने अभी साग-पात उबालने के लिए चूल्हे की आँच पर रखा ही था। उन्होंने विवशता में बिन आई मौत मरने के स्थान पर शत्रु का सामना करके वीरगति प्राप्त करने का मन बना लिया। उन्होंने सरदार जस्सा सिंह के नेतृत्त्व में शत्रु का सामना इतने आत्मबल से किया कि जसपत राय की सेना और उसके सहायक गाज़ी लूटमार प्राप्ति के अवैतनिक सैनिक भाग उठे।

इस कड़ी परीक्षा के समय एक निबाहू सिंघ नामक सिक्ख जवान ने साहस करके हाथी पर बैठे जसपतराय पर सफलतापूर्वक धावा बोल दिया। उसने हाथी की पूँछ को पकड़कर हाथी पर चढ़ने की चेष्टा की जो कि सफल रही और उसने एक ही बार में अपनी तलवार से जसपतराय का सिर काटकर विजय के नारे लगा दिए। चारों ओर बोले सो निहाल, सत श्री अकाल की गूँज सुनाई देने लगी। इस पर शत्रु सेना रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ी हुई, जैसे ही सिक्खों के हाथ मैदान आया, उन्होंने नगर में से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खूब भण्डारे चलाए। तब सिंघों के समक्ष जसपतराय के परिवार की तरफ से विनती पहुँची कि उसका सिर उन्हें लौटा दे ताकि शव का दाह सँस्कार किया जा सके। इस पर सिक्खों ने सिर के बदले हर्जाने के रूप में मध्यस्थ गुँसाईं कृपाराय बलोंकी के द्वारा 500 रूपये लेकर जसपत राय का सिर लौटा दिया। जसपतराय का सिर काटने की घटना की सूचना लाहौर में शासक वर्ग में पहुँची, वहाँ क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। दीवान लखपतराय के क्रोध का तो पारावार न रहा, वह कहने लगा कि सिक्खों ने मेरे छोटे भाई की हत्या की है, मैं अब इन सिक्खों का सर्वनाश करके ही दम लूँगा। वह तुरन्त यहिया खान की शरण में पहुँचा और अपनी पगड़ी उतारकर उसके चरणों में रखकर यह माँगा कि मुझे सिक्खों का सर्वनाश करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाए। यहिया खान को तो बिना माँगी मुराद मिल गई। उसने लखपतराय के निवेदन को स्वीकार कर लिया। इस पर यहिया खान ने सिक्खों के नरसँहार की एक विशाल योजना तैयार की और उसको क्रियान्वित करने के लिए, इसका नेतृत्त्व लखपतराय को दिया। लखपतराय ने एक-एक सिक्ख के सिर के लिए इनाम भी निश्चित कर दिया और आदेश भी जारी कर दिया कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की मर्यादा अनुसार जीवन जाने वाले प्रत्येक सिक्ख का पेट चाक कर दिया जाए। दीवान लखपतराय ने सन् 1745 ईस्वी के मार्च माह के पहले सप्ताह में सर्वप्रथम लाहौर नगर के सिक्ख दुकानदारों तथा सरकारी कर्मचारियों को पकड़कर जल्लादों के हवाले कर दिया। बहुत सारे स्थानीय हिन्दू सिक्खों के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें से दो महानुभाव उल्लेखनीय हैः दीवान कौड़ा मल और दीवान लच्छवी दास।
ये दोनों सज्जन लखपत राय के गुरू संत जगत भक्त को साथ लेकर लखपत राय से यह प्रार्थना करने के लिए पहुँचे कि निर्दोष सिक्खों पर अत्याचार न किया जाए किन्तु दीवान लखपत राय के कान पर जूँ तक न रेंगी। उसने आशा के विपरीत बड़े कठोर शब्दों में उत्तर दिया कि आप लोग तो क्या यदि भगवान भी स्वयँ चलकर यहाँ आ जाएँ तब भी मैं सिक्खों को नहीं छोड़ूँगा। गुरू होने के नाते संत जगत भक्त ने भी लखपत राय को समझाने की चेष्टा की किन्तु गुरू के सभी तर्क निरर्थक सिद्ध हो गए। जब सोमवार की अमावस को यह रक्तपात न करने पर दबाव डाला गया, तब भी उस पापी हृदय में कोई परिवर्तन नहीं आया, उल्टे बड़े अनादरपूर्वक गुरू संत जी से कहा कि आपको इन बातों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। आपको हस्तक्षेप न करके अपने डेरे में रहना चाहिए। निराशावश गोसाँईं जी के मुख से ये क्रोध भरे शब्द निकले कि ‘जिन के बल पर तुम अभिमानी बने बैठे हो, वही लोग तेरा सर्वनाश करवाएँगे। तेरी जड़ भी नहीं बचेगी और सिक्ख पँथ दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होगा’। दीवान लखपतराय के हृदय को शान्ति तभी मिल सकती थी, यदि वह सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया और सरदार चड़त सिंघ और उनके साथियों को घोर यातनाएँ देने में सफल हो जाए। किन्तु वे उस समय लाहौर से बहुत दूर अपने अन्य दस हजार साथियों के साथ कान्हुवाल की झील के आसपास दिन काट रहे थे। उन दिनों नवाब कपूर सिंह, गुरदयाल सिंह हल्लेवालिया तथा अन्य महान नेता भी वहीं पर विराजमान थे। दीवान लखपत राय ने अपनी विशाल सेना के साथ सिक्खों का पीछा करना शुरू कर दिया। इस समय सिक्खों के पास न तो आवश्यक रसद थी और न ही गोला बारूद और न ही कोई किला था, फिर भी वे बड़ी दिलेरी के साथ लखपत राय की सेना का मुकाबला करने के लिए तत्पर हो गए, भले ही इस युद्ध में बहुत कड़े जोखिम झेलने की उन्हें शँका थी।

पहले-पहल सिक्खों ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने शत्रु को भ्रम में डालने के लिए बहुत बड़ी सँख्या में अपने आश्रयस्थल त्यागकर भाग निकलने का नाटक किया। जब रात्रि के समय लखपत राय की सेना असावधान हो गई तो सिक्खों ने लौटकर एकदम छापा मारा और वे शत्रु की छावनी से बहुत से घोड़े तथा खाना-दाना छीनकर अपने शिविरों में जा घुसे। इस प्रकार का काण्ड देखकर लखपत राय बहुत खीझा। उसने सिक्खों के आश्रय स्थलों को आग लगवा दी और भागते हुए सिक्खों को मारने के लिए तोपों की गोलाबारी तेज कर दी। रावी नदी के पानी का बहाव धीमा तथा गहराई एक स्थान पर कम देखकर बचे खुचे सिक्खों ने नदी पार कर ली। वे केवल इस विचार से कि शायद पहाड़ों में चले जाने पर बला टल जाएगी परन्तु स्थानीय बसोहली, यशेल और कठूहे के लोगों ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया और उनके साथ युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए। सिक्खों के साथ ‘आसमान से गिरे और खजूर में अटके’ वाली कहावत हुई। वे जिधर भी जाते उधर शत्रु युद्ध के लिए तैयार दिखाई देते। वे बुरी तरह फँस गए थे, न आगे बढ़ सकते थे और न पीछे मुड़ सकते थे। खैर, ऐसे में खालसे ने बहुत गम्भीरता से विचारविनिमय के उपरान्त यह निश्चय किया कि जैसे तैसे दो-दो, चार-चार की गिनती में गिआड़सी और दूसरे क्षेत्रों में बिखर जाओ। फिर कभी एकत्रित होकर लखपतराय से दो-दो हाथ कर लेंगे। तत्कालीन सिक्ख जत्थेदारों का कथन था कि युद्ध कला के दो रूप होते हैं। एक तो अपनी पराजय स्वीकार करके घुटने टेक देना, दूसरा दोबारा आक्रमण करने की आशा लेकर पहले तो शत्रु की आँखों से ओझल हो जाना और उपयुक्त समय पाते ही लौट कर वैरी के सामने छाती ठोककर जूझ मरना। अब पराजय स्वीकृति और समर्पण वाली बात को तो सोचा तक नहीं जा सकता था, क्योंकि खालसा गुरू के अतिरिक्त किसी के भी सम्मुख घुटने नहीं टेक सकता, इसलिए रणनीति के दूसरे रूप का ही सहारा लेना समय के अनुकूल था। खुर्द क्षेत्र पहुँचकर सिक्ख फिर से सँगठित हो गए और वे मैदानों की ओर पीछे मुड़कर लखपतराय की फौज पर पुनः टूट पड़े। उन्होंने आक्रमण के समय लखपतराय की तलाश की, किन्तु बहुत पीछे होने के कारण वह हाथ न आया।

लखपत राय की सेना को खदेड़ते हुए सिक्ख सैनिक वापस रावी नदी पार करने के लिए तट पर पहुँचने में सफल हो गए किन्तु नदी का जल इस स्थान पर इतना तीव्र गति से बह रहा था कि कोई भी उसमें घुसने का साहस न कर पाता था। डल्लेवालिया सरदार गुरदयाल सिंघ के दो भाइयों ने साहस बटोरकर अपने घोड़े नदी में छोड़ दिए, किन्तु ठाठें मारती नदी के सामने किसी की पेश न चली, घुड़सवार और घोड़े देखते ही देखते जल-समाधि ले गए। इस करूणामय दृश्य से सिक्ख नेता कदाचित भी विचलित नहीं हुई। ऐसे में जस्सा सिंघ आहलूवालिया और अन्य कुछ सरदारों ने कहा कि डूबकर मरने की बजाय शत्रु से जूझकर मरना कहीं अच्छा है, इसलिए सरदार सुक्खा सिंघ के नेतृत्त्व में ‘सत श्री अकाल’ का जैकारा बोलकर और आखरी दाँव मानकर सिक्खों ने शत्रु सेना पर धावा बोल दिया। भीषण युद्ध हुआ। जिसमें जयपत का पुत्र हरिभजन राय, यहिया खाँ का बेटा नाहर खान, फौजदार सैफ अली, करमबख्श, रसूलन सहसिया तथा अगर खान आदि बहुत से प्रमुख लोग सदा की नींद सो गए। इस आक्रमण में सिक्खों को भी जानमाल की भारी क्षति सहन करनी पड़ी। सुक्खा सिंघ की टाँग पर ज़बूटक (देशी छोटी तोप) का एक गोला लगा, जिसके कारण उसकी जाँघ की हड्डी टूट गई। परन्तु वह उसे बाँधकर वापस दल में आ मिले। इस नाजुक समय में जस्सा सिंघ आहलूवालिया ने अन्य सरदारों की सहायता से एक भारी आक्रमण कर दिया। इसके फलस्वरूप वैरियों की नाकाबंदी अस्त-व्यस्त हो गई। इस स्थिति से लाभ उठाकर सिक्ख योद्धा घनी झाड़ियों में जा घुसे। इसी बीच रात हो गई। सिक्ख इतिहास में यह पहला अवसर था कि जब एक ही दिन में सिक्खों को इतनी भारी क्षति सहनी पड़ी।

फलस्वरूप इस दिन को ‘घल्लूघारे’ (घोर तबाही) का दिन पुकारा जाता है। यह पहला और छोटा ‘घल्लूघारा’ था। दूसरा और बड़ा ‘घल्लूघारा’ 5 फरवरी, 1762 ईस्वी को अहमदशाह अब्दाली (दुर्रानी) के साथ रणक्षेत्र में हुआ। अँधकार होने के कारण युद्ध समाप्त हो गया। लखपत की सेना ने समझ लिया कि सिक्ख बुरी तरह पराजित होकर भाग गए हैं। अतः वह बेखौफ होकर अपने शिविरों में आराम करने लगे। उधर झाड़ियों में से निकलकर खालसा दल पुनः एकत्रित हो गया, वे सभी बेहाल थे, परन्तु उनके सरदार जस्सा सिंह ने कहा कि खालसा जी ! वैरियों को आघात पहुँचाने का यही उपयुक्त अवसर है, हमें भागते हुए देखकर वैरी निडर होकर सो गए हैं। इस समय उन्हें नींद ने दबाया हुआ है, इसलिए धावा बोलकर उनसे कुछ घोड़े और अस्त्र-शस्त्र आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। सभी सिक्ख जवानों ने इस सुझाव पर पूरी तरह अमल करने का मन बना लिया और आक्रमण कर दिया। उन्होंने देखते ही देखते सोये हुए अनगिनत शत्रुओं को सदा की नींद सुला दिया और वैरियों द्वारा मशालें जलाने और सतर्क होने से पूर्व ही बहुत से बढ़िया घोड़े तथा हथियार छीनकर काँटेदार झाड़ियों में जा घुसे। प्रातःकाल लखपत राय अपनी विशेष कुमक लेकर उनकी सहायता के लिए आ पहुँचा। अनगिनत मुनसिफ (अवैतनिक स्थानीय लोग) भी उसके साथ थे। लखपत राय की सेना के आगे ढोलवँदन कर रहे थे। ढोल बजाने वालों के पीछे थे ग्रामों में बने तोड़े पलीता, बेल, नेजे, कुल्हाड़िया और गँडासाधारी सैनिक। वे लोग झाड़ियों में इस प्रकार झड़ रहे थे मानों शिकारी कुत्ते झाड़ियों में छिपे हुए हिरनों को ढूँढ रहे हों। यह समय जँगल में से बाहर आने के लिए बड़ा विकट समय था किन्तु सिक्ख सूरमाओं ने वाहिगुरू (परमात्मा) पर भरोसा रखकर एक बार फिर जोरदार आक्रमण किया, जिससे मुलखिया (अवैतनिक लोग) भाग निकले। सिर धड़ की बाज़ी लगाकर लड़ने वाले सिक्ख शूरवीरों के सामने मेला देखने के लिए आए दर्शकों की भीड़ भला कहाँ टिक पाती, वैरी पक्ष के तमाशबीन सैनिकों की दाल नहीं गल पाई। सिक्खों ने ‘सत श्री अकाल’ का जयघोष करते हुए तलवारें खींची ही थी कि लखपत राय की सेना में भगदड़ मच गई और उसके सैनिक जान बचाने के लिए झाड़ियों की ओट ढूँढने लगे। पीछे बचे हुए सिक्ख जवानों ने कुशा घासव वृक्षों के तनों को बाँधकर नाव बना ली, जिसके सहारे धीरे धीरे वे रावी नदी को पार करते गए और रिआड़बी क्षेत्र में पहुँच गए। यह क्षेत्र रामा रंधवा का था। उसका व्यवहार तो सिक्खों के प्रति बहुत ही बुरा था। उसके बारे में यह लोक कहावत किंवदन्ती प्रसिद्ध थी–

देश न रामे के तुम जाईओ, भले ही तुम कन्दमूल माझे क्षेत्र में खाइओ

सिक्खों ने एकाध दिन वहाँ कड़ी धूप में व्यतीत किया। वे फिर श्री हरिगोबिन्द के पावन नौका स्थल से व्यास नदी को लाँघकर दुआबा क्षेत्र में प्रवेश कर गए और मीरकोट के काँटेदार वृक्षों के झुरमुट में शिविर लगा लिया। सिक्ख कई दिन से भूखे थे। इस समय इनके पास न रसद थी और न भोजन तैयार करने के लिए उपयोगी बर्तन इत्यादि। उन्होंने निकट के देहातों से आटा दाना खरीदा और घोड़ों को घास चरने के लिए खुला छोड़ दिया। जब वे ढ़ालों को तवे के रूप में प्रयोग करके रोटियाँ सेंकने में व्यस्त थे, तभी दुआबा क्षेत्र का फौजदार अदीना बेग अलावलपुर आदि पठानों सहित वहाँ आ धमका। सिक्ख इनसे डटकर लोहा लेने के लिए मन बनाने लगे कि तभी गुप्तचर ने सूचना दी कि जसपत राय भी तोपें लेकर व्यास नदी पार कर चुका है। इस प्रकार सिक्ख असमँजस में पड़ गए, क्या करें और क्या न करें। ऐसे में उन्होंने भोजन बीच में ही छोड़कर घोड़ों की बाँगे पकड़ ली और क्रोध का कड़वा घूँट पीकर प्रभु आश्रय लेकर वहाँ से प्रस्थान कर गए। वे चलते-चलते आलीवाल के पतन के रास्ते सतलुज नदी पार करके मालवा क्षेत्र में पहुँच गए। मालवा क्षेत्र सरदार आला सिंघ का था। अतः सिक्खों को यहाँ राहत मिली और वे अपने निकटवर्ती के यहाँ चले गये। मालवा क्षेत्र के सिक्खों ने अपने पीड़ित भाइयों की यथायोग्य सहायता की और मरहम-पट्टी इत्यादि करके उनकी खूब सेवा की। इस अभियान में लगभग सात हजार (7000) सिक्खों का बलिदान हुआ और लगभग तीन हजार कैद कर लिए गए। यह अधिकाँश घायल अवस्था में थे। इनमें वे सिक्ख भी शामिल थे जिन्हें बसोहली के पहाड़ी लोगों ने तथा अन्य शत्रुओं ने पकड़कर लाहौर भेज दिया था। ये सभी तीन हजार सिक्ख लाहौर नगर के दिल्ली दरवाजे के बाहर बड़ी निर्दयतापूर्वक कत्ल कर दिए गए। यह सिक्खों के नरसँहार का भयानक स्थल रहा है। सिक्खों के विरूद्ध लखपत राय के अभियान में इतनी अधिक हानि के कारण सिक्ख इतिहास में यह घटना छोटे ‘घल्लूघारे’ (भयानक विनाश) के नाम से विख्यात है। उधर घल्लूघारे के अभियान से वापस आते ही लखपत राय ने लाहौर पहुँचकर और अधिक अत्याचार आरम्भ कर दिए। उसने सिक्खों के गुरूद्वारों पर ताले डलवा दिए और कई एक तो गिरा भी दिए। कई पवित्र स्थानों पर उसने ‘श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी’ तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों को अग्नि भेंट कर दिया अथवा कुँओं में फिँकवा दी। इतना ही नहीं, उसने यह घोषणा भी करवा दी कि एक खत्री ने सिक्ख पँथ की सृजना की थी और अब मुझ एक अन्य खत्री ने इसका सर्वनाश कर डाला है। भविष्य में कोई भी व्यक्ति गुरबाणी का पाठ न करे, न ही कोई श्री गुरू नानक देव जी और श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी का नाम ले, ऐसा करने वालों का पेट फाड़ दिया जाएगा। अहँकारी लखपत राय ने यह आदेश भी दिया कि कोई भी व्यक्ति ‘गुड़’ शब्द का प्रोग न करें, क्योंकि ध्वनि की समानता के कारण ‘गुरू’ का स्मरण होने लग जाता है। अतः लोगों को गुड़ के स्थान परभेली शब्द का प्रयोग करना चाहिए। वह समझता था कि शायद सिक्खों को इस ढँग से मूलतः समाप्त किया जा सकता है। किन्तुः

जा कउ राखै हरि राखणहार ।। ता कउ कोइ न साकै मार ।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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