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2. हरिगोबिन्दपुर में द्वितीय युद्ध

श्री गुरू अरजन देव जी ने अपने जीवनकाल में अनेकों कार्य किये थे परन्तु करतापुर नगर का निर्माण उनका अद्वितीय कार्य था। इसी प्रकार श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने भी एक नवीनतम नगर बसाने के उद्देश्य से व्यास नदी के किनारे सामरिक दृष्टि से उचित क्षेत्र देखकर भूमि खरीद ली और नगर बसाना प्रारम्भ कर दिया। नगर की आधारशिला रखते समय नगर को सुन्दर स्वच्छ और अति आधुनिक बनाने की योजना बनाई गई। नगर का नाम गोबिन्दपुर रखा गया। आपको इतना समय नहीं मिल पाया कि नगर के विकास पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया जा सके। समय के अन्तराल के साथ लोग इस नगर को हरिगोबिन्दपुर पुकारने लगे। इस क्षेत्र का स्थानीय लगान वसूली का अधिकारी भगवानदास घेरड़, समस्त क्षेत्र को अपनी व्यक्तिगत सम्पित ही मानता था। जैसे जी सम्राट जहाँगीर की मृत्यु हुई और शाहजहाँ गद्दी पर बैठा तो उसकी नीतियों में भी भारी परिवर्तन आया, उसने हिन्दुओं से बहुत से अधिकार छीन लिए और सिक्ख गुरूजनों से मतभेद उत्पन्न कर लिये। जैसे ही शासक लोगों से अनबन की बात भगवान दास को मालूम हुई तो उसे एक शुभ अवसर प्राप्त हो गया। वह चाहता था कि किसी न किसी विधि से हरगोबिन्दपुर से सिक्खों की पकड़ ढीली पड़ जाए और वह इस क्षेत्र से दूर हो जाएँ। किन्तु हुआ इसके विपरीत। श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी प्रचार दौरा करते हुए वहाँ आ गये और पुनः नगर का विकास करने लगे। इस विकास की योजना में उन्होंने स्थानीय मुसलमान भाइयों की माँग पर एक मस्जिद का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। मस्जिद के निर्माण की बात भगवान दास घेरड़ को अच्छी नहीं लगी। वह इन कार्यों में बाधा उत्पन्न करने के लिए अपने कुछ सहयोगियों को लेकर गुरू जी के समक्ष आया और बहुत गुस्ताख अँदाज में वार्तालाप करने लगा।

उसकी अवज्ञापूर्ण भाषा को पास में बैठे हुए सिक्खों ने चुनौती माना। किन्तु गुरू जी के शान्ति के सँकेत के कारण मन मार कर रह गये। किन्तु भगवानदास को सन्तुष्टि नहीं हुई। कुछ दिन पश्चात अन्य सहयोगियों को लेकर पुनः आ धमका और फिर से गुस्ताखी वाली भाषा में धमकियाँ देने लगा कि तुम लोगों की प्रशासन से अनबन है। यदि तुमने इस क्षेत्र से अपना कब्जा न हटाया तो हम बल प्रयोग करेंगे। इतना सुनते ही इस बार सिक्खों ने उसे दबोच लिया और खूब पीटा। कुछ अधिक पिटाई हो जाने के कारण वह मृत या जीवित, भेद करना कठिन हो गया। तभी कुछ सिक्खों ने उसे उठाकर व्यासा नदी में बहा दिया। जब यह सूचना उसके पुत्र रतनचँद को मिली कि तुम्हारा पिता भगवान दास सिक्खों के हाथों मारा गया है तो वह तुरन्त दीवान चँदु के पुत्र कर्मचन्द से मिला। फिर ये दोनों जालन्धर के सूबेदार अब्दुल्ला खान से मिले। उन दोनों ने अब्दुल्ला खान को गुरू जी के विरूद्ध खुब भड़काया और सहायता का अनुरोध किया। अब्दुल्ला खान तो ऐसे ही किसी अवसरों की तलाश में था। उसे सूचना दी गई कि इस समय गुरू जी के पास फौज न के बराबर है वैसे भी उनके पास देहाती निम्न श्रेणी के लोग हैं, जो युद्ध की बात सुनते ही भाग खड़े होंगे। राज्यपाल अब्दुल्ला, बादशाह शाहजहाँ को खुश करना चाहता था। उसने बहुत सर्तकता बरतते हुए दस हजार जवानों की फौज के साथ गुरू जी पर आक्रमण कर दिया। इधर गुरू जी पहले से ही तैयारियों में जुटे हुए थे। उन्होंने भी सन्देश भेजकर आसपास के सभी अनुयाइयों को सँकट का सामना करने के लिए आमँत्रित कर लिया था। जब दोनों सेनाएँ आमने-सामने हुई तो घमासान का युद्ध हुआ। शाही सेना को कड़ा मुकाबला झेलना पड़ गया। उनका अनुमान था कि विशाल शाही सेना देखकर शत्रु भाग खड़ा होगा, झूठा साबित हो गया।

पहले दिन के युद्ध में ही शाही सेना के कई वरिष्ठ अधिकारी मुहम्मद खान, बैरक खान अली बक्श मारे गये। रात्रि होने तक शाही सेना की कमर टूट गई और राज्यपाल अब्दुल्ला खान के स्वप्न चकनाचुर हो गये। उसने अपना सारा क्रोध करमचँद व रतनचँद पर निकाला। उसे एक तरफ तो इन दोनों की बात में दम लगता था किन्तु युद्ध का परिणाम उसके विरूद्ध जा रहा था, वह आश्चर्य में था कि उसकी विशाल प्रशिक्षित सेना अपने से चौथाई देहातियों से क्यों पराजित हुई जा रही है ? दूसरी तरफ गुरू जी के समर्पित सिक्ख तन मन व धन गुरू घर पर न्यौछावर करने पर तुले हुए थे। वे अपनी जान को हथेली पर रखकर गुरू जी की प्रशँसा प्राप्त करने के लिए अपने प्राणों की आहूति देने के लिए तत्पर थे। ऐसे में केवल कुछ चाँदी के सिक्कों की प्राप्ति के बदले लड़ने वाले सैनिक उनका सामना करने में अपने को असमर्थ अनुभव कर रहे थे। बस यही कारण था कि शाही सेना के बार-बार के आक्रमण बूरी तरह विफल हो रहे थे और उनकी भारी सँख्या में सेना मर रही थी। राज्यपाल अब्दुल्ला खान एक विचार बनाने लगा कि बची हुई सेना लेकर भाग लिया जाये किन्तु उसे स्वाभिमान ने रोके रखा। वह सोचने लगा जो होगा देखा जायेगा, कल का युद्ध अवश्य ही लड़ा जाए। वैसे युद्ध एक जुआ ही तो है। क्या पता कल हमारा पलड़ा भारी हो जाये। सूर्य उदय होते ही पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया। दूसरे दिन का आक्रमण पहले दिन की अपेक्षा अधिक धातक था। चारों और योद्धा एक दूसरे से खूनी होली खेल रहे थे। कुछ परिणाम न निकलता देख अब्दुल्ला खान पश्चाताप करने लगा कि मैं किन मूर्खों के बहकावे में आ गया और अल्लाह के बन्दों पर हमला कर बैठा। परन्तु अब पीछे हटना कार्यरता थी। मजबूरी में उसने अपने बेटे नबी वख्श को रणक्षेत्र में भेज दिया क्योंकि सभी वरिष्ठ अधिकारी मुत्यु शैया पर सो चुके थे। नबीबबक्श ने रणक्षेत्र को खूब गर्म किया, किन्तु वह जल्दी ही गुरू जी के परम सेवक परसराम के हाथों मारा गया। इस पर राज्यपाल अब्दुल्ला खान का दूसरा लड़का जिसका नाम करीम बख्श था, ने सेना का नेतृत्व किया और युद्ध स्थल पहुँच गया। वह योद्धा था इसने युद्ध कौशल दिखाया किन्तु भाई बिधीचन्द के हाथों मारा गया। अब अब्बदुल्ला खान हारे हुए जुआरी की तरह अन्दर से बुरी तरह से टूट गया था किन्तु अन्तिम दांव के चक्कर में वह स्वयँ बची हुई सेना लेकर घायल शेर की तरह गुरू जी के समक्ष आ धमका, उसके साथ रतनचँद और भी करमचँद थे। अब तक आधी सेना मारी जा चुकी थी और बाकियों में अधिकाँश घालय थे। एक बार ऐसा महसूस होने लगा कि गुरू जी इस नये हमले में घिर गये हैं। किन्तु जल्दी ही स्थिति बदल गई। गुरू जी ने उनके कई सैनिकों को तीरों से भेद दिया। उतने में गुरू जी की सहायक सेना ठीक समय पर पहुँच गई और देखते ही देखते युद्ध का पासा पलट गया। गुरू जी ने क्रमशः तीनों को अपनी कृपाण की भेंट चढ़ा दिया। करमचँद ओर रतनचँद के मरने पर केवल अंतिम युद्ध अब्दुल्ला खान और गुरू जी के बीच हुआ जो देखते ही बनता था। अब्दुल्ला खान ने कई घातक वार किये किन्तु असफल रहा गुरू जी हर बर पैंतरा बदल लेते थे। जब गुरू जी ने खण्डे का वार अब्दुल्ला खान पर किया तो वह दो भागों में विभाजित होकर भूमि पर गिर पड़ा। उसकी मृत्यु पर समस्त शाही सेना भाग खड़ी हुई। शाही सेना भागते समय अपने घायल सैनिक तथा शव पीछे छोड़ गई। घायलों की सेवा सम्भाल के लिए गुरू जी ने अपने अनुयाइयों को विशेष आदेश देकर कहा कि किसी भी घायल के साथ भेदभाव न किया जाये। शाही सेना के मृत सैनिकों के शवों को सैनिक सम्मान के साथ दफना दिया गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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