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19. शहीद भाई तारा सिंह ‘वां’

सन् 1726 ईस्वी में अब्दुलसमद खान के पुत्र खान बहादुर जक्रिया खाँ ने पँजाब प्रान्त के राज्यपाल का पद सँभाला और उसने लाहौर में सिक्खों के विरूद्ध सुव्यवस्थित दमनचक्र की कार्यवाही करने की घोषणा कर दी। उन्हीं दिनों जिला श्री अमृतसर साहिब तहसील तरनतारन के नौशहिरे क्षेत्र के गाँव ‘वां’ में भाई तारा सिंघ जी निहंग रहते थे। उन्होंने अपना एक आश्रम बना रखा था, जहाँ वह यात्रियों की लँगर (निशुल्क भोजन) से निस्वार्थ सेवा करते थे, उनके बहुत से खेत थे। वह कृषि से होने वाली आय अतिथि सत्कार पर व्यय करते थे। इनके पूर्वजों ने श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के समय सिक्खी धारण की थी और उन्हीं की छत्रछाया में अमृत धारण किया था और गुरूदेव जी के साथ कई युद्धों में भाग लिया था। भाई तारा सिंह का जन्म सन् 1702 ईस्वी में श्री गुरदास सिंह के यहाँ हुआ। भाई तारा सिंह जी ने स्वयं सन् 1722 ईस्वी में भाई मनी सिंह जी से अमृत धारण किया था। वे बहुमुखी प्रतिभावान थे। उनका व्यक्तित्व मधुरभाषी, उज्ज्वल आचरण और मर्यादापालक था। वहीं आप एक योद्धा तथा विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण और अच्छे घुड़सवार भी थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वे गुरूवाणी के रसिया और भजनबंदगी में व्यस्त रहते थे। उनके आश्रम में सिक्खों का आवागमन सदैव बना रहता था। वे समस्त प्राणीमात्र की निष्काम सेवा में विश्वास रखते थे। बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों में स्थानीय हिन्दू चौधरी साहिबराय ने अपने क्षेत्र में सिक्खों के इस अड्डे को अपने लिए एक चुनौती माना। अतः वह बिना कारण सिक्खों से ईर्ष्या करने लगा। इसी द्वेष भावना में उसने सिक्खों को परेशान करना प्रारम्भ कर दिया। वह अक्सर सिक्खों के खेतों में अपने घोड़े अथवा मवेशी चरने भेज देता। इस प्रकार सिक्खों की खेती बर्बाद हो जाती। इस बात को भाई तारा सिंह के नेतृत्त्व में स्थानीय सिक्ख किसानों ने उठाया।

इस पर चौधरी साहिब राय ने सिक्खों को धमकी दी और कहा कि मेरी कृपा से ही तुम यहाँ बसे हुए हो, नहीं तो कभी के शाही सेना की गश्ती टुकड़ियों के हाथों पकड़ लिए जाते और तुम लोगों पर विद्रोही (बागी) होने का आरोप लगाकर तुम्हारी हत्या कर दी जाती। उत्तर में सिक्खों ने कहा कि हम लोग अपने बलबूते अथवा प्रभु भरोसे रहते हैं, इसमें तुझे अहसान दिखाने की आवश्यकता नहीं है। चौधरी ने अहँ भाव में आकर कहा कि मेरे पास रस्से नहीं हैं, मैं मवेशियों अथवा घोड़ों को बाँध कर रखूँ, इसलिए तुम्हारे बालों को काटकर उसके रस्से बनाऊँगा फिर पशुओं को तबोले में बाधूँगा। यह कटाक्ष सिक्खों के हृदय को चीर गया, उसने साहबराय चौधरी को उन्हीं के घर से चलते समय यह चुनौती दी। अच्छा ! इस बार तुम हमारे खेत में घोड़े खुले छोड़कर तो देखो, हम तुम्हें दो-दो हाथ दिखाएँगे और तुम्हारा घमण्ड ठीक कर देंगे। इस घटना के पश्चात् भाई तारा सिंह जी ने समस्त क्षेत्र के सिंहों की एक सभा बुलाई और चौधरी की करतूतों पर गम्भीरता से विचारविमर्श हुआ। इस सभा में लगभग पचास सिक्खों ने भाग लिया। सभी सिक्खों का कहना था कि ‘हाथा बाज करारेयां वैसी मित्र न होवे’ भाव शक्ति सँतुलन के बिना शान्ति कभी भी स्थापित नहीं हो सकती। सभी ने परामर्श दिया कि हमें भी बदले में कड़े कदम उठाने चाहिए। इस पर सरदार अमर सिंह तथा बघेल सिंह ने इस कार्य को करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। इन्होंने एक योजना बनाई। चौधरी ने अपनी आदतों के अनुसार जैसे ही हमारे खेतों में घोड़े तथा मवेशी चरने भेजे, उनको पकड़ लिया जाए और घोड़ों को दूर किसी धनाढ़य व्यक्ति के पास बेच दिया जाए।

यह शुभ अवसर उन्हें शीघ्र ही मिल गया। एक दिन चौधरी साहबराय ने अपने स्वभाव अनुसार मवेशी और घोड़े सिक्खों के खेतों में चरने भेज दिए। पशुओं ने गेहूँ की खेती बर्बाद कर दी। इस पर सिक्खों ने घोड़ों को तो पकड़ लिया और मवेशियों को पीट पीटकर भगा दिया। इस पर साहबराय ने घमण्ड में अपने लठ्ठरधरियों की सेना लेकर सिक्खों के साथ लड़ने चला आया। पहले ही से सतर्क सिक्खों ने उसके सभी लठ्धरियों को धमकाकर भगा दिया और साहब राय को पकड़कर वहीं खेतों में पटककर खूब धुनाई की और उनसे पूछा कि अब बता, हमारे केश कौन काटने की क्षमता रखता है। इस धुनाई को चौधरी साहब ने अपना बहुत बड़ा अपमान समझा, सिक्खों ने उसकी घोड़ियाँ भी न लौटाई और उसे कह दिया कि खेतों की क्षतिपूर्ति के रूप में घोड़ियाँ हमारी हुईं। ये घोड़ियाँ सरदार अमर सिंह ने लखबीर सिंह को सौंप दी। उन्होंने ये घोड़ियाँ पटियाला के सरदार आला सिंह को बेच दी और वह धनराशि भाई तारा सिंह के कोष में डाल दी अथवा उनके अस्त्र-शस्त्र खरीद लिए। चौधरी साहबराय अपमान का बदला लेने के लिए पट्टी क्षेत्र के फौजदार जाफरबेग के पास अपनी फरियाद लेकर गया। उसने पूरी तैयारी के साथ 200 जवानों के साथ भाई तारा सिंह के आश्रम पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण के लिए भोर का समय निश्चित किया गया ताकि सिक्खों को सहज में दबोच लिया जाए किन्तु सिक्ख सतर्क थे। वे सदैव मोर्चे में रहते थे। उस समय सरदार बघेल सिंह शौच स्नान के बाद जँगल के लिए जा रहे थे कि तभी उन्होंने घोड़ों की टापों की आवाज सुनी।

धुँधले प्रकाश में उन्होंने जाफरबेग के सिपाहियों को ललकारा और ऊँचे स्वर में जयघोष करते हुए शत्रु पर अपनी तलवार से टूट पड़ा। बस फिर क्या था, शत्रु सेना ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दी। भाई तारा सिंह के आश्रम में विराजमान सभी सिक्ख योद्धाओं ने अपने अपने अस्त्र-शस्त्र उठाए और सरदार बघेल सिंह की सहायता को दौड़ पड़े। शत्रुओं को इतने बड़े मुकाबले की आशा न थी। वे तो अपनी सँख्या के बल पर सहज ही विजय प्राप्ति की कामना कर रहे थे। यह क्षेत्र सिक्खों का था। अतः जहाँ युद्ध प्रारम्भ हुआ, उस बाग के वृक्षों की आड़ लेकर सिंघ लड़ने लगे और ऊँचे स्वर में ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ का नारा बुलँद करने लगे। इस जैकारे की गर्ज से शत्रु सेना में भय की लहर दौड़ गई। उनका साहस टूट गया। वे रक्षात्मक युद्ध लड़ने लगे। उस समय सिक्खों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी। अपनी तलवारों से बहुत से शाही सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। शत्रु सेना की बँदूकों की गोलियाँ अँधकार के कारण व्यर्थ गईं। जब सूर्य पूर्णतः उदय हुआ तो शत्रु सेना का भारी जानी नुक्सान हो चुका था। वे अपने लोगों के शवों के ढ़ेर को देखकर जान बचाकर भागने में ही अपनी भलाई समझने लगे। इस प्रकार शाही सेना धैर्य छोड़कर पीछे हटने लगी और फिर पीठ दिखाकर भाग गई। इस बीच सरदार बघेल सिंह बहुत से घावों के कारण शरीर त्यागकर गुरू चरणों में जा विराजे। शत्रु पक्ष में जाफर बेग के दो भतीजे तथा एक अन्य सिपाही मारे गए। अधिकाँश सिपाही घायल हुए।

इस युद्ध के पश्चात् सिक्खों ने अनुभव लगाया कि प्रशासन अपनी पराजय का बदला लिए बिना नहीं रहेगा। अतः किसी बड़े युद्ध होने की सम्भावना बढ़ गई है, वहीं सिक्ख समुदाय में आत्मविश्वास की लहर दौड़ गई कि यदि हम सँगठित होकर शत्रु का सामना करें तो क्या कुछ नहीं कर सकते ? जाफर बेग पराजय की गलती के कारण तुरन्त लाहौर नगर गया और वहाँ राज्यपाल जक्रियाखान से मिला और उसे सिक्खों की बढ़ी हुई शक्ति का बहुत बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया, जिसे सुनकर जक्रिया खान ने क्रोध में आकर सिक्खों के दमन के लिए दो हजार सिपाही तथा अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार देते हुए कहा कि ‘मैं अब उस क्षेत्र में किसी सिक्ख को जीवित नहीं देखना चाहता’। बस फिर क्या था, सेना नायक सोमनखान के नेतृत्त्व में शाही सेना ने भाई तारा सिंह के बाड़े पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान कर दिया। यह सूचना लाहौर के सहजधारी सिक्खों ने तुरन्त भाई जी को भेज दी और उनसे अनुरोध किया कि आप कुछ दिनों के लिए अपना आश्रम त्यागकर कहीं और चले जाएँ। इस पर भाई जी ने उस समस्त क्षेत्र के सिक्खों की सभा बुलाई तथा बहुत गम्भीरता से विचारविमर्श हुआ। अधिकाँश सिक्खों ने युद्ध समय के लिए उन्हें आश्रम त्यागकर कहीं गुप्तवास में जाने के लिए परामर्श दिया। इस पर भाई जी ने अपनी ‘पोथी साहिब जी’ (गुरूबाणी) से वाक लिया। उस समय शब्द उच्चारण हुआ:

सूरा सो पहिचानीऐ, जु लरै दीन के हेतु ।
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहु न छाडै खेतु । अंग 1105

इस पँक्ति के अर्थ भाव को पढ़कर भाई तारा सिंह ने आश्रम को त्यागने का निर्णय स्थगित कर दिया और शहीद होने का दृढ़ निश्चय करके आश्रम के बाड़े में मोर्चाबन्दी करने में व्यस्त हो गए। उन्हें कई सिक्खों ने समझाने का प्रयत्न किया कि समय की नाजुक परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए गोरिल्ला युद्ध का आश्रय लेना चाहिए। हम इतनी विशाल सैन्यबल के समक्ष टिक नहीं सकेंगे। इस प्रकार यही डटे रहना आत्महत्या के समान है, किन्तु वह आत्मबल के सहारे अडिग रहे। उनकी दृढ़ता देखकर 21 सिंह भी उनके साथ हो लिए। बाकी अपनी नीति के अनुसार अज्ञातवास के लिए चले गए। पट्टी क्षेत्र के जाफर बेग के पराजित होने पर सिंहों के हाथ बहुत से अस्त्र-शस्त्र व घोड़े आए थे, वे इस विपत्ति के समय बहुत सहायक सिद्ध होने वाले थे। भाई तारा सिंह जी ने अपने आश्रम के बाड़े को किले का रूप दिया। वहाँ प्रत्येक प्रकार की रक्षा सामग्री जुटाई गई। अब शत्रु सेना की प्रतीक्षा करने लगे। अन्त में प्रतीक्षा समाप्त हुई, सेना ने 2000 की विशाल सँख्या में भाई तारासिंह के आश्रम पर भोर के समय आक्रमण कर ही दिया। सिंह उस समय भले ही सँख्या में आटे में नमक के समान थे, परन्तु सभी शहीद होने के लिए तत्पर थे। आगे से आक्रमणरियों पर सिक्खों ने मोर्च से गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं, आगे के जवान धरती पर गिरने लगे। घमासान युद्ध हुआ। मोमनखान ने तभी बेग को आगे भेजा। तभी बेग को आगे बढ़ता देखकर, घात लगाकर बैठे हुए भाई तारा सिंह जी ने उसके मुँह पर भाला दे मारा। बेग के मुँह से खून के फव्वारे फूट पड़े। वह शीघ्र ही पीछे मुड़ा।

पीछे खड़े मोमन खान ने तभी बेग को व्यँग किया कि: खान जी ! पान खा रहे हो ? तभी बेग ने मारे दर्द के कहा कि: सरदार तारा सिंघ आगे पान के बीड़े बाँट रहा है। आप भी आगे बढ़कर ले आओ। इस बार मोमन खान ने अपने भतीजे मुराद खान को भेजा, जिसका सिर सरदार भीम सिंह ने काट दिया। अब मोमन खान ने सारी फौज को सिंघों पर धावा बोलने का आदेश दिया। गोलियाँ समाप्त होने पर सिंघ मोर्चे छोड़कर तलवारें लेकर रणक्षेत्र में कूद पड़े। सिंघों ने मरने-मारने का युद्ध किया। इस प्रकार भाई तारा सिंह जी ने अनेकों को सदा की नींद सुलाकर स्वयँ भी शहीदी प्राप्त की। जब रणभूमि में सिक्खों के शवों की गिनती की गई तो वह केवल बाईस थे जबकि हमलावर पक्ष के लगभग सौ जवान मारे जा चुके थे और बड़ी सँख्या में घायल थे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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