18. गुरदास, नंगल के अहाते का घेराव
अप्रैल सन् 1715 ई0 के आरम्भ में शाही सेना ने गुरदास नँगल पहुँचते ही दुनीचँद के
अहाते को घेरे में ले लिया और सभी मार्ग बन्द कर दिए। उस समय लाहौर के सूबेदार के
पास लगभग 30 हज़ार प्यादे व घुड़सवार और बहुत बड़ा तोपखाना था। अबदुलसमद खान व उसके
पुत्र जकरिया खान ने अपनी तथा अपने सहायकों की कई हज़ार सेना के साथ दुनी चन्द के
अहाते पर ज़ोरदार आक्रमण किए परन्तु उनकी सभी चेष्टाएँ निष्फल रहीं। मुट्ठी भर सिक्खों
ने इस दिलेरी और वीरता से अपने स्थान की रक्षा की कि उनको नाकों चने चबवा दिए।
इबारतनामें का लेखक मुहम्मद कासिम जो कि प्रत्यक्षदर्शी था लिखता है कि जनूनी सिक्खों
के बहादुरी और दिलेरी के कारनामें आश्चर्य चकित कर देने वाले थे। जल्दी ही सिक्खों
ने गुरिला युद्ध का सहारा लिया। वे प्रतिदिन दो या तीन बार प्रायः चालीस अथवा पचास
की सँख्या में एक काफिले के रूप में अहाते से बाहर निकलते और शाही लश्कर पर टूट पड़ते।
गफलत में अथवा सहज में बैठे सिपाहियों को क्षण भर में काट डालते और खाद्यान
अस्त्र-शस्त्र इत्यादि जो हाथ लगता लूट ले जाते। जब शाही सेना सर्तक होती वे तब छू-मँत्र
हो जाते। इन बातों का शाही लश्कर के मन पर इतना आतँक बैठा कि वह अल्लाह से दुआ करते
कि कुछ ऐसा हो जाए कि बंदा सिंघ यह दुनीचन्द की गढ़ी खाली करके कहीं और चला जाए।
जिससे उनको रोज-रोज के आतँक से राहत मिले। मुग़ल सेना ने धीरे-धीरे गढ़ी का घेरा तँग
करना शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें एहसास हो गया था कि अब सिक्खों के पास गोला बारूद
समाप्त हो चुका है। सिक्खों को घिरे हुए कई महीने हो गए, आहते में खाद्य सामग्री
बिलकुल समाप्त हो चुकी थी। जब सिक्खों के भोजन की स्थिति डाँवाडोल हो गई तब वे जवान
जो तोपों, बन्दूकों अथवा तीरों से न डरे थे, उन्हें भूख ने तोड़कर रख दिया।
दल खालसा का मत था कि शत्रु लम्बे घेराव से स्वयँ तँग आ चुके
हैं। अतः वे जल्दी ही घेरा उठा लेगें। परन्तु मुग़ल सेना बादशाह के भय के कारण घेरा
उठाने की स्थिति में नहीं थी। इस पर खालसा पँचायत ने गढ़ी खाली कर देने का निर्णय ले
लिया। उनका मत था कि भूख से व्याकुल होकर मरने से लड़कर कर मरना अच्छा है। परन्तु दल
खालसा के नायक जत्थेदार बंदा सिंघ इस बार भाग निकलने के लिए सहमत नहीं हुए। उनका
मानना था कि यदि हम कुछ दिन और भूख का दुख झेल ले तो सदैव के लिए विजय हमारे हाथ
लगेगी। परन्तु जवानों से भूख का दुःख झेलते नहीं बनता था। इस बात को लेकर दल खालसा
में गुटबन्दी हो गई। अधिकाँश जवान वयोवृद्ध नेता विनोद सिंघ के विचारों से सहमति
रखते थे और उनका मानना था कि रणक्षेत्र में जुझते हुए वीरगति पाना ही उचित है न कि
भूख की व्याकुलता से पीड़ित होकर प्राण त्यागना। अतः मतभेद गहरा हो गया। अंत में
विनोद सिंह जी के सुपुत्र काहन सिंह जी ने एक प्रस्ताव रखा और कहा जो लोग गढ़ी छोड़ना
चाहें वे उसे त्याग दें और जो यहीं रहकर शहीदी देना चाहते है, वे यहीं रहे, इस बात
को लेकर आपस में झगड़ना उचित नहीं। ऐसा ही किया गया। बहुत बड़ी सँख्या में जवानों ने
सरदार विनोद सिंघ जी के नेतृत्व में दुनीचन्द की आहतानुमा गढ़ी त्याग दी और शत्रु
सेना के साथ सँघर्ष करते हुए दूर कहीं अदृश्य हो गए। शत्रु सेना भी बहुत तँगी में
थी। वे यही तो चाहते थे कि किसी भी प्रकार इस तँग घेरे वाले स्थान से उनका छुटकारा
हो, जहाँ प्रत्येक क्षण आतँक की छाया में जीना पड़ता है। अब पीछे वही जवान रह गए थे
जो जत्थेदार जी पर अथाह श्रद्धा-विश्वास रखते थे। इनमें कई तो बंदा सिंघ जी के वचनों
को सत्य-सत्य कर मानने वाले थे और उनके एक सँकेत पर अपने प्राणों की आहुति देने के
लिए तत्पर रहते थे। कुछ जवानों ने बंदा सिंघ जी से विनम्र विनती की कि वह अब कोई
चमत्कार दिखाएँ जैसा कि वह प्रायः विपत्तिकाल में आलौकिक शक्तियाँ का प्रदर्शन करते
ही रहते थे। परन्तु इस बार बंदा सिंघ जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मैं
प्राचश्चित करना चाहता हूँ क्योंकि हमारे हाथों न जाने कितने निर्दोष व्यक्तियों की
भी हत्याएँ हुई हैं। अब हम साम्राज्य स्थापित करने के लिए नहीं लड़ेंगे बल्कि अपनी
भूलों को सुधारनें के लिए अपने किए अपराधों को अपने खून से धो देने के लिए मृत्यु
से लड़ेंगे। यही हमारी आलौकिक शक्ति का प्रदर्शन अथवा शहीदी प्राप्त करने का
चमत्कार होगा।
सभी जवानों ने उनके हृदय के भावों को समझा और उन पर पूर्ण
विश्वास दर्शाया और कहा आप जैसे कहेंगे, हम उसी प्रकार अपने जीवन का बलिदान दे देंगे।
इस पर बंदा सिंघ जी ने कहा कि गुरमति सिद्धाँतों के अनुसार किए गए कर्मों का लेखा
देना ही पड़ता है। अतः हमें पुनर्जन्म न लेना पड़े। इसलिए हमें इस जन्म में दण्ड
स्वीकार कर लेना चाहिए। ताकि हम प्रभु चरणों में स्थान प्राप्त कर सकें। वैसे भी
स्वेच्छा से शहीदी प्राप्त करना अमूल्य निधि है। सरदार विनोद सिंघ जी समय रहते
खाद्यान के अभाव को देखते हुए दुनीचन्द की अहातानुमा गढ़ी खाली कर गए। पीछे केवल
250-300 के लगभग योद्धा रह गए। जिन्होंने भूखे मरना स्वीकार कर लिया, किन्तु
असमान्य परिस्थितियों के कारण सभी जवान कुपच रोग से पीड़ित रहने लगे। कई तो बिमारी
की दशा में शरीर त्यागकर परलोक सिधार गए। भोजन के अभाव में लगभग सभी जवान सूख कर
काँटा बन गए और कमजोरी की हालत में निडाल हो गए। अहाते के अन्दर सिक्ख अर्धमृत
अवस्था में पडे थे। रोग व दुर्बलता के कारण शिथिल, युद्ध करने में असमर्थ थे। परन्तु
शाही सेना पर सिक्खों का ऐसा आतँक बैठा हुआ था कि भय के कारण कोई अहाते के भीतर जाने
का साहस न करता था। मुग़ल सेना अध्यक्ष अब्दुलसमद खान ने सिक्खों को एक पत्र द्वारा
कहा कि यदि तुम द्वार खोलकर आत्मसमर्पण कर दोगे तो मैं तुम्हें वचन देता हूँ बादशाह
से तुम्हारे लिए क्षमा याचना करूँगा। कोई भी सिक्ख इस झाँसे में आने वाला था ही नहीं।
वे तो पहले से ही आत्मबलिदान देने के लिए तैयार बैठे थे। उन्होनें लड़ना बँद कर दिया
था। परन्तु आत्मसमर्पण का समय आने की प्रतीक्षा में थे। अतः वह समय भी आ गया। सिक्खों
ने दरवाजा खोल दिया। बस फिर क्या था शत्रु जो उनके नाम से काँपते थे। अब उनकी बेबसी
पर बहादुरी के जौहर दिखाने लगे। सफलता के गर्व में अब्दुलसमद खान अच्छे व्यवहार के
सभी वचन भूल गया और निढाल हो रहे सिक्खों के हाथ-पाँव जकड़कर उन्हें यातनाएँ दी गईं।
कुछ एक बेसुध सिक्खों का उसी स्थान पर वध कर दिया गया और उनके पेट इस लोभ मे चीर
दिए गए कि कहीं वे स्वर्ण मुद्राएँ निगल न गए हों। इस प्रकार समस्त मैदान रक्त
रँजित कर दिया गया। इसके पश्चात् उनके सिर काटकर घासफूस से भर दिए गए और भालों पर
टाँग लिए। गुरदास नँगल का गाँव तथा भाई दुनीचन्द का अहाता सब तहस-नहस कर दिए गए। अब
वहाँ केवल एक खण्डहर शेष है। यह घटना दिसम्बर के प्रारम्भ में सन् 1715 ई0 को हुई।
मुहम्मद हादी कामवर खान लिखता है ‘यह किसी की बुद्धिमत्ता या शूरवीरता का परिणाम न
था अपितु परमात्मा की कृपा थी कि यह इस प्रकार हो गया, अन्यथा हर कोई जानता है कि
स्वर्गीय बादशाह बहादुरशाह ने अपने चारों शहजादों तथा असँख्य बड़े-बड़े अफसरों सहित
इस विद्रोह को मिटाने के कितने प्रयत्न किए थे। परन्तु वह सब विफल हुए थे।