16. छप्पड़चीरी का ऐतिहासिक युद्ध
सरहिन्द के सुबेदार वज़ीर खान को सूचना मिली कि बंदा सिंह के नेतृत्व में दल खालसा
और मांझा क्षेत्र का सिंघो का काफिला आपस में छप्पड़चीरी नामक गाँव में मिलने मे सफल
हो गया है और वे सरहिन्द की ओर आगे बढने वाले हैं। तो वह अपने नगर की सुरक्षा को
ध्यान में रखते हुए, सिक्खों से लोहा लेने अपना सैन्यबल लेकर छप्पड़चीरी की ओर बढने
लगा। दल खालसा ने वही मोर्चाबंदी प्रारम्भ कर दी। वज़ीद खान की सेना ने आगे हाथी,
उसके पीछे ऊँट, फिर घुड़सवार और उसके पीछे तोपे व प्यादे, सिपाही। अंत मे हैदरी
झण्डे के नीचे, गाज़ी जिहाद का नारा लगाते हुए चले आ रहे थे अनुमानतः इन सबकी सँख्या
एक लाख के लगभग थी। सरहिन्द नगर की छप्पडचीरी गाँव से दूरी लगभग 20 मील है। इधर दल
खालसा के सेनानायक जत्थेदार बंदा सिंह बहादुर ने अपनी सेना का पुनर्गठन करके अपने
सहायक फतेह सिंह, कर्म सिंह, धर्म सिंह और आली सिंह को मालवा क्षेत्र की सेना को
विभाजित करके उपसेनानायक बनाया। मांझा क्षेत्र की सेना को विनोद सिंह और बाज सिंह
की अध्यक्षता में मोर्चाबंदी करवा दी। एक विशेष सैनिक टुकड़ी, पलटन अपने पास संकटकाल
के लिए इन्दर सिंह की अध्यक्षता मे सुरक्षित रख ली और स्वयँ एक टीले, टेकरी पर
विराजकर युद्ध को प्रत्यक्ष दूरबीन से देखकर उचित निर्णय लेकर आदेश देने लगे। दल
खालसा के पास जो छः (6) छोटे आकार की तोपे थी उनको भूमिगत मोर्चो में स्थित करके
शाहबाज सिंह को तोपखाने का सरदार नियुक्त किया। इन तोपों को चलाने के लिए
बुँदेलखण्ड के विशेषज्ञ व्यक्तियों को कार्यभार सौंपा गया। तोपचियों का मुख्य
लक्ष्य, शत्रु सेना की तोपों को खदेड़ना और हाथियों को आगें न बढ़ने देने का दिया गया,
सबसे पीछे नवसीखियें जवान रखे गये और उसके पीछे सुच्चानँद के भतीजे गँडामल के एक
हज़ार जवान थे।
सूर्य की पहली किरण धरती पर पड़ते ही युद्ध प्रारम्भ हो गया। शाही
सेना नाअरा-ए-तकबीर अल्लाह हू अकबर के नारे बुलँद करते हुए सिंघों के मोंर्चो पर
टूट पड़ीं। दूसरी ओर से दल खालसा ने उत्तर में बोले सो निहाल, सत श्री अकाल जयघोष
करके उत्तर दिया और छोटी तोंपों के मुँह खोल दिये। यह तोपे भूमिगत अदृश्य मोर्चो
में थी अतः इनकी मार ने शाही सेना की अगली पँक्ति उड़ा दी। बस फिर क्या था शाही सेना
भी अपनी असँख्य बड़ी तोपो का प्रयोग करने लगी। दल खालसा वृक्षों की आड़ में हो गया।
जैसे ही शत्रु सेना की तोपों की स्थिति स्पष्ट हुई शाहबाज सिंह के तोपचियों ने अपने
अचूक निशानों से शत्रु सेना की तोपों का सदा के लिए शाँत करने का अभियान प्रारम्भ
कर दिया। जल्दी ही गोलाबारी बहुत धीमी पड़ गई। क्योंकि शत्रु सेना के तोपची अधिकाँश
मारे जा चुके थे। अब मुग़ल सेना ने हाथियों की कतार को सामने किया परन्तु दल खालसा
ने अपनी निर्धारित नीति के अंतर्गत वही स्थिति रखकर हाथियों पर तोप के गोले बरसाए
इससे हाथियों में भगदड़ मच गई। इस बात का लाभ उठाते हुए घुड़सवार सिंघ शत्रु खेमे
में घुसने में सफल हो गए और हाथियों की कतार टूट गई। बस फिर क्या था ? सिंघों ने
लम्बे समय से हृदय में प्रतिशोध की भावना जो पाल रखी थी, उस अग्नि को ज्वाला बनाकर
शत्रु पर टूट पड़े घमासान का युद्ध हुआ। शाहीसेना केवल सँख्या के बल पर विजय की आशा
लेकर लड़ रही थी, उनमें से कोई भी मरना नहीं चाहता था जबकि दल खालसा विजय अथवा शहीदी
में से केवल एक की कामना रखते थे, अतः जल्दी ही मुग़ल फौजें केवल बचाव की लडाई लड़ने
लगे। देखते ही देखते शवों के चारों ओर ढेर दिखाई देने लगे। चारों तरफ मारो-मारो की
आवाजें ही आ रही थीं। घायल जवान पानी-पानी चिल्ला रहे थे और दो घण्टों की गर्मी ने
रणक्षेत्र तपा दिया था। जैसे-जैसे दोपहर होती गई जिहादियों का दम टूटने लगा उन्हें
जेहाद का नारा धोखा लगने लगा, इस प्रकार गाजी धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगे। वह इतने
हताश हुए कि मध्य दोपहरी तक सभी भाग खड़े हुए। दल खालसे का मनोबल बहुत उच्च स्तर पर
था। वे मरना तो जानते थे, पीछे हटना नहीं। तभी गददार सुच्चानँद के भतीजे गँडामल ने
जब खालसा दल मुग़लों पर भारी पड़ रहा था, तो अपने साथियों के साथ भागना शुरू कर दिया।
इससे सिंघों के पैर उखड़ने लगे क्योंकि कुछ नौसिखिए सैनिक भी
गर्मी की परेशानी न झेलते हुए पीछे हटने लगे। यह देखकर मुग़ल फौजियों की बाछें खिल
उठी। इस समय अबदुल रहमान ने वजीर खान को सूचना भेजी गँडामल ब्रह्माण ने अपना इकरार
पूरा कर दिखाया है, जहाँपनाह। इस पर वजीर खान ठहाका मारक हंसा और कहने लगा, अब
मरदूद बंदे की कुमक क्या करती है, बस देखना तो यही है। अब देरी न करो बाकी फौज भी
मैदान-ए-जंग में भेंज दो इन्शा-अल्ला जीत हमारी ही होगी। दूसरी तरफ जत्थेदार बंदा
सिंह और उसके संकटकालीन साथी अजीत सिंह यह दृश्य देख रहे थे। अजीत सिंह ने आज्ञा
माँगी गँडामल और उसके सवारों को गद्दारी का इनाम दिया जाए। परन्तु बंदा सिंह हंसकर
कहने लगा मैं यह पहले से ही जानता था खैर, अब आप ताजा दम संकट कुमक लेकर विकट
परिस्थितियों में पडे सैनिकों का स्थान लो। अजीत सिंह तुरन्त आदेश का पालन करता हुआ
वहाँ पहुँचा जहाँ सिंघों को कुछ पीछे हटना पड़ गया था। फिर से घमासान युद्ध प्रारम्भ
हो गया। मुग़लो की आशा के विपरीत सिंघों की ताजा दम कुमक ने रणक्षेत्र का पासा ही
मोड़ दिया। सिंह फिर से आगे बढ़ने लगे। इस प्रकार युद्ध लड़ते हुए दोपहर ढलने लगी। जो
मुग़ल कुछ ही देर में अपनी जीत के अन्दाजे लगा रहे थे। वह भूख-प्यास के मारे पीछे
हटने लगे किन्तु वह भी जानते थे कि इस बार की हार से उनके हाथ से सरहिन्द तो जायेगा
ही साथ में मृत्यु भी निश्चित ही है। अतः वह अपना अन्तिम दाँव भी लगाना चाहते थे।
इस बार वजीर खान ने अपना सभी कुछ दाँव पर लगाकर फौज को ललकारा और कहा कि चलो गाजियों
आगे बढ़ो और काफ़िरों को मारकर इस्लाम पर मँडरा रहे खतरे को हमेशा के लिए खत्म कर दो।
इस हल्ला शेरी से युद्ध एक बार फिर भड़क उठा। इस बार उपसेनानायक बाज सिंह, जत्थेदार
बंदा सिंह के पास पहुँचा और उसने बार-बार स्थिति पलटने की बात बताई। इस बार बंदा
सिंघ स्वयँ उठा और शेष संकटकालीन सेना लेकर युद्ध भूमि में उतर गया। उसे देखकर दल
खालसा में नई स्फूर्ति आ गई। फिर से घमासान युद्ध होने लगा।
इस समय सूर्यास्त होने में एक घण्टा शेष था। उपनायक बाज सिंह व
फतेह सिंह ने वजीर खान के हाथी को घेर लिया। सभी जानते थे कि युद्ध का परिणाम आखरी
दाँव में छिपा हुआ है, अतः दोनों ओर के सैनिक कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। सभी
सैनिक एक-दूसरे से गुथम-गुथा होकर विजयी होने की चाहत रखते थे। ऐसे में बंदा सिंह
ने अपने गुरूदेव श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी द्वारा प्रदान वह बाण निकाला जो उसे
संकटकाल सें प्रयोग करने के लिए दिया गया था। गुरूदेव जी ने उसे बताया था, वह बाण
आत्मबल का प्रतीक है। इसके प्रयोग पर समस्त अदृश्य शक्तियाँ तुम्हारी सहायता करेंगी।
ऐसा ही हुआ देखते ही देखते वजीर खान मारा गया और शत्रु सेना के कुछ ही क्षणों में
पैर उखड़ गँ और वे भागने लगे। इस समय का सिंघों ने भरपूर लाभ उठाया, उन्होंने तुरन्त
मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खान तथा ख्वाजा अली को घेर लिया वे अकेले पड़ गए थे।
उनकी सेना भागने में ही अपना भला समझ रही थी। इन दोनों को भी बाज सिंह व फतेह सिंह
ने रणभूमि में मुकाबले में मार गिराया। इनके मरते ही समस्त मुग़ल सेना जान बचाती हुई
सरहिन्द की ओर भाग गई। सिंघो ने उनका पीछा किया किन्तु जत्थेदार ने उन्हें तुरन्त
वापस आने का आदेश भेजा। उनका विचार था कि हमें समय की नजाकत को ध्यान मे रखते हुए
अपने घायलों की सेवा पहले करनी चाहिए। उसके बाद जीते हुए सैनिकों की सामग्री कब्जे
में लेना चाहिए। इसके बाद शहीदों को सैनिक सम्मान के साथ अन्तिम सँस्कार उनकी रीति
अनुसार करने चाहिए। यह ऐतिहासिक विजय 12 मई सन् 1710 को दल खालसे को प्राप्त हुई।
इस समय दल की कुल सँख्या 70 हजार के लगभग थी। इस युद्ध में 30 हजार सिंघ काम आए और
लगभग 20 हजार घायल हुए। लगभग यही स्थिति शत्रु पक्ष की भी थी। उनके गाजी अधिकाँश
भाग गए थे। युद्ध सामग्री में सिंघों को 45 बड़ी तोपे, हाथी, घोड़े व बन्दूकें बड़ी
सँख्या मे प्राप्त हुईं। नवसिखिये सैनिक जो भाग गए थे। उनमें से अधिकाँश लौट आए और
जत्थेदार से क्षमा माँगकर दल में पुनः सम्मिलित हो गए। जत्थेदार बंदा सिंह ने
खालसे-दल का जल्दी से पुनर्गठन किया और सभी को सम्बोधन करके कुछ आदेश सुनाए:
1. कोई भी सैनिक किसी निर्दोष व्यक्ति को पीड़ित नहीं करेगा ।
2. कोई भी महिला या बच्चों पर अत्याचार व शोषण नहीं करेगा। केवल दुष्ट का दमन करना
है और गरीब की रक्षा करनी है। इसलिए किसी की धार्मिक भावना को क्षति नहीं पहुँचानी
है।
3. हमारा लक्ष्य अपराधियों को दण्डित करना, दल खालसा को सुदृढ करने के लिए यथाशक्ति
उपाय हैं।
सरहिन्द नगर पर आक्रमण
14 मई को दल खालसे सरहिन्द नगर पर आक्रमण ने कर दिया। उन्होंने सूबे वजीर खान का शव
साथ में लिया और उसका प्रदर्शन करने लगे। इस बीच बजीर खान का बेटा समुंद खान
सपरिवार बहुत सा धन लेकर दिल्ली भाग गया। उसे देखते हुए नगर के कई अमीरों ने ऐसा ही
किया क्योकि उन्हें ज्ञात था कि शत्रु सेना के साथ अब मुकाबला हो नहीं सकता। अतः
भागने में ही भलाई है। जनसाधारण भी जानते थे कि दल खालसा अब अवश्य ही सरहिन्द पर
कब्जा करेगा। उस समय फिर रक्तपात होना ही है अतः कुछ दिन के लिए नगर छोड़ जाने में
ही भलाई है। इस प्रकार दल खालसे के सरहिन्द पहुँचने से पहले ही नगर में भागम भाग हो
रही थी। दल खालसा को सरहिन्द में प्रवेश करने में एक छोटी सी झड़प करनी पड़ी। बस फिर
आगे का मैदान साफ था। सिंघों ने वजीर खान का शव सरहिन्द के किले के बाहर एक वृक्ष
पर उल्टा लटका दिया, उसमें बदबू पड़ चुकी थी। अतः शव को पक्षी नौचने लगे। किले में
बची-खुची सेना आकी होकर बैठी थी। स्वाभाविक था वे करते भी क्या ? उनके पास कोई चारा
नही था। दल खालसा ने हथियाई हुई तोपों से किले पर गोले दागे, घण्टे भर के प्रयत्न
से किले में प्रवेश का मार्ग बनाने में सफल हो गए। फिर हुई हाथों-हाथ शाही सैनिकों
से लड़ाई। बंदा सिंह ने कह दिया "अड़े सो झड़े, शरण पड़े सो तरे" के महावाक्य
अनुसार दल खालसा को कार्य करना चाहिए। इस प्रकार बहुत से मुग़ल सिपाही मारे गए।
जिन्होने हथियार फैंककर दल खालसा से पराजय स्वीकार कर ली उनको युद्ध बन्दी बना लिया
गया। दल खालसा के सेना नायक बंदा सिंह ने विजय की घोषणा की और अपराधियों का चयन करने
को कहा। जिससे उन्हें उचित दण्ड़ दिया जा सके परन्तु कुछ सिंघो का मत था कि यह नगर
गुरू शापित है अतः इसे हमें नष्ट करना है। किन्तु बंदा सिंह इस बात पर सहमत नहीं
हुआ। उनका कहना था कि इस प्रकार निर्दोष लोग भी बिना कारण बहुत दुख झेलेगें जो कि
खालसा दल अथवा गुरू मर्यादा के विरूद्ध है। बंदा सिंह की बात में दम था अतः सिंघ
दुविधा में पड़ गए। वे सरहिन्द को नष्ट करना चाहते थे। इस पर बंदा सिंह ने तर्क रखा
हमें अभी शासन व्यवस्था के लिए कोई उचित स्थान चाहिए। इस बात को सुनकर कुछ सिंह आकी
को गए। उनका कहना था सरहिन्द को सुरक्षित रखना गुरू के शब्दों में मुँह मोड़ना है।
इस पर बंदा सिंह से अपनी राजधानी मुखलिसगढ़ को बनाने की घोषणा की। सरहिन्द से मिले
धन को तीन सौ बैलगाड़ियों में लादकर वहाँ पहुँचाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया।
तद्पश्चात इस गढ़ी का नाम बदलकर लौहगढ़ कर दिया और इसका आगामी युद्ध को ध्यान में रखते
हुए आधुनिकीकरण करने का कार्यक्रम बनाया।