15. श्री मुक्तसर साहिब जी का युद्ध
सरहिन्द के नवाब वज़ीर खान को जब आनंदपुर की छः माह की घेराबन्दी के पश्चात नाकाम
होकर वापस खाली हाथ लौटना पड़ा तो वह इस असफलता पर बौखलाया हुआ था, उसने इसी बौखलाट
में श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी के नन्हें बच्चों को, जो उसके हाथ लग गए थे जिन्दा
दीवार में चिनवा दिया। निर्दोष बच्चों के हत्यारे के रुप में बदनामी उसे चैन नहीं
लेने दे रही थी अतः उसे मालूम हुआ गुरु गोबिन्द सिंघ जी जीवित हैं, उनका जीवित होना
उसे अपनी मृत्यु का सँदेश मालूम पड़ने लगा। इसलिए उसने फिर से गुरु गोबिन्द सिंघ पर
आक्रमण करने की योजना बनाई। वह चाहता था कि मैं अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करके उसे
सदैव के लिए समाप्त कर दूँ। जिससे उसके प्राणों का खतरा टल जाए। इस प्रकार उसने
चौधरी शमीर व लखमीर को धमकी भरा पत्र लिखा और कहा कि वे गुरु गोबिन्द सिंघ को उसके
हवाले कर दें अथवा उसकी सहायता करे जिससे वह उनको पकड़ सके। परन्तु इन दोनो भाईयों
ने साफ इन्कार कर दिया। चौधरी शमीर और लखमीर का कोरा जवाब जब नवाब वज़ीर ख़ान को मिला
तो उसने बग़ावत को कुचल देने की ठान ली। गुरू साहिब जी ने पुनः तैयारियाँ आरम्भ कर
दीं, जिससे युद्ध की हालत में ईंट का जवाब पत्थर से दिया जा सके। दीना काँगड़ गाँव
युद्ध की दृष्टि से उत्तम नहीं था। इसके अतिरिक्त गुरू साहिब जी इस गाँव को युद्ध
की विभीषिका से क्षति पहुँचाना नहीं चाहते थे। अतः उन्होंने सामरिक दृष्टि से किसी
श्रेष्ठ स्थान की तलाश प्रारम्भ कर दी और दीना काँगड़ गाँव से प्रस्थान कर गये।
इस समय आपके पास बहुत बड़ी सँख्या में श्रद्धालु सिक्ख सैनिक
इक्ट्ठे हो चुके थे। युद्ध को मद्देनजर रखते हुए बहुत सी वेतनभोगी सेना भी भरती कर
ली थी और बहुत बड़ा भण्डार अस्त्र-शस्त्र का तैयार हो गया था। आप जी मालवा क्षेत्र
के अनेकों गाँव में भ्रमण करते हुए आगे बढ़ने लगे। इन गाँवों में आपके स्मारक हैं,
वह इस प्रकार हैं- जलाल, भगता, पवो, लम्भावाली, मलूके का कोट तद्पश्चात् आप कोटकपूरे
पहुँचे। यहाँ के चौधरी ने आपका हार्दिक स्वागत किया। गुरू साहिब जी को यह स्थान
युद्धनीति के अन्तर्गत उचित लगा। अतः आपने चौधरी कपूरे को कहा कि वह अपना किला उन्हें
मोर्चे लगाने के लिए दे दे, ताकि मुग़लों के साथ दो-दो हाथ फिर से हो जाये। चौधरी
कपूरा मुग़लों से भय रखता था। उसने गुरू साहिब जी को टालना शुरू कर दिया और कहा यदि
आप चाहे तो मैं आपकी मुग़लों के साथ सँधि करवाने में मध्यस्थता की भूमिका निभा सकता
हूँ। यह प्रस्ताव सुनकर गुरू साहिब जी ने बहुत रोष प्रकट किया और कहा– मैंने तो पँथ
के लिए सर्वत्र न्यौछावर कर दिया है, अब सँधि किस बात की करनी है। इस पर चौधरी कपूरे
ने गुरू साहिब जी को सामरिक दृष्टि से एक सर्वोत्तम स्थल का पता बताया जहाँ युद्ध
में विजय निश्चित थी। यह स्थल था ‘खिदराणे की ढाब’।
यहाँ पानी उपलब्ध था और इस समस्त क्षेत्र में इसके अतिरिक्त कहीं
पानी नहीं था। गुरू साहिब जी को यह सुझाव बहुत अच्छा लगा क्योंकि मरूस्थल में जीवन
के लिए पानी अनमोल वस्तु होती है और लम्बे युद्ध के समय तो शत्रु पक्ष की बिना पानी
के पराजय सहज में हो सकती थी। गुरू साहिब जी अपने सैन्य बल के साथ निश्चित लक्ष्य
की ओर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में पाँचवे गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी के भाई
पृथ्वीचन्द की सन्तानों में से सोढी वँश के लोग रहते थे। इस ढिलवाँ नामक गाँव के
लोगों ने आपका भव्य स्वागत किया। गुरू जी उनके प्रेम के कारण रूक गये। जब सोढी वँश
के लोगों ने आपको नीले वस्त्रों में देखा तो उसका कारण पूछा और निवेदन किया कि आप
पुनः समान्य वस्त्र धारण करें। गुरू साहिब जी ने उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए नीले
वस्त्र उतार दिये और उनको चीथड़े-चीथड़े करके अग्नि की भेंट करते गये। उसमें से एक
लीर पास खड़े भाई मानसिंह जी ने माँग ली जो गुरू साहिब जी ने उन्हें दे दी। भाई
मानसिंह जी ने उस नीली लीर को अपने सिर पर बाँधी पगड़ी में सजा लिया। उस दिन से
निहँग सम्प्रदाय के लोग अपनी दस्तार नीले रंग की धारण करते हैं। ढिलवाँ गाँव से गुरू
साहिब जी जैतो कस्बे में पहुँचे। यहाँ आपको गुप्तचर नें सूचना दी कि सरहिन्द का
नवाब लगभग आठ से दस हजार की सेना लेकर आ रहा है, इसलिए गुरू साहिब जी ने अगला पड़ाव
सुनियार गाँव के खेतों में किया। गाँव वालों ने आपको प्रत्येक प्रकार की सहायता का
आश्वासन दिया। किन्तु गुरू साहिब जी अगली भोर सीधे खिदराणे की ढाब (टेकरी) की ओर
प्रस्थान कर गये।
मुक्तसर का युद्ध
श्री आनन्दपुर साहिब के किले में मुग़ल सेना द्वारा लम्बी घेराबन्दी के कारण जो
सिक्ख खाद्यान के अभाव में परास्त हो रहे थे, वे गुरू साहिब जी को बाध्य कर रहे थे
कि वह मुग़लों की कसमों पर विश्वास करते हुए उनके साथ सँधि करके किला त्याग दें जिससे
कठिनाईयों से राहत मिले। परन्तु गुरू साहिब जी दूरदृष्टि के स्वामी थे। उन्होंने कहा
कि वह सभी कसमें झूठी हैं कभी भी शत्रु पर उसकी राजनीतिक चालों को मद्देनजर रखकर
भरोसा नहीं करना चाहिए। किन्तु कई दिनों के भूखे-प्यासे सिंघ अन्त में तँग आकर अपने
घर वापिस जाने की जिद करने लगे। इस पर गुरू साहिब जी ने उन्हें कह दिया कि जो
व्यक्ति किला त्यागकर घर जाना चाहता है, वे एक कागज पर लिख दे कि ‘हम आपके सिक्ख,
शिष्य नहीं और आप हमारे गुरु नहीं’। उस पर अपने हस्ताक्षर कर दें और अपने घर को चले
जाएं। माझा क्षेत्र के झबाल नगर के महां सिंघ के नेतृत्त्व में लगभग 40 जवानों ने
यह दुस्साहस किया और गुरू साहिब जी को बेदावा (त्यागपत्र) लिख दिया। गुरू साहिब जी
ने वह पत्रिका बहुत सहजता से अपनी पोशाक की जेब में डाल ली और उनको आज्ञा दे दी कि
वे अब जा सकते हैं। ये सब जवान रात के अँधकार में धीरे–धीरे एक–एक करके शत्रु शिविरों
को लाँघ गये। जब ये जवान झबाल नगर पहुँचे तो वहाँ की संगत ने उनको आनन्दपुर के
युद्ध के विषय में पूछा और जब उन्हें मालूम हुआ कि यह केवल शरीरी कष्टों को न सहन
करते हुए गुरु से बेमुख होकर घर भाग आये हैं तो सभी बड़े–बूढ़ों से उनको फटकार मिलने
लगी कि तुमने यह अच्छा नहीं किया। युद्ध के मध्य में तुम्हारा घर आना यह गुरू साहिब
जी के साथ धोखा अथवा गद्दारी है। नगर की महिलाओं ने एक सभा बुलाई। उसमें एक वीराँगना
माई भाग कौर ने भाषण दिया कि इन पुरूषों को घर में स्त्रियों के वस्त्र अथवा गहने
धारण करके घरेलू कार्य करने चाहिए। और शस्त्र हमें दे देने चाहिए। हम सभी महिलाएं
शस्त्र धारण करके गुरू साहिब जी की सहायता के लिए युद्ध क्षेत्र में जाने को तैयार
हैं। जब इन जवानों का समाज में तिरस्कार होने लगा तो उनको उस समय अपने पर बहुत
ग्लानि हुई और उनका स्वाभिमान जागृत हो उठा।
वे सभी गुरू साहिब जी से क्षमा याचना की योजना बनाने लगे परन्तु
उनको अब किसी परोपकारी मध्यस्थ की आवश्यकता थी। अतः उन्होंने सर्वसम्मति से उसी
वीराँगना माई भाग कौर को उनका नेतृत्त्व करने का आग्रह किया। जो कि माता ने सहर्ष
स्वीकार कर लिया और वे सभी गुरू साहिब जी की खोज में घर से चल पड़े। रास्ते में उनको
ज्ञात हुआ कि गुरू साहिब जी इन दिनों दीना काँगड़ नगर में हैं। वे सभी दीना काँगड़
पहुँचे किन्तु गुरू साहिब जी युद्ध की तैयारी में किसी उचित स्थान की खोज में, चौधरी
कपूरे के सुझाव अनुसार जिला फिरोजपुर के गाँव खिदराना पहुँच चुके थे। यह काफिला भी
गुरू साहिब जी से क्षमा याचना माँगने के लिए उनकी खोज में आगे बढ़ता ही गया। जल्दी
ही इस काफिले के योद्धाओं को सूचना मिल गई कि सरहिन्द का नवाब वज़ीर ख़ान बहुत बड़ी
सेना लेकर गुरू साहिब जी का पीछा कर रहा है। अतः उन्होंने विचार किया कि अब गुरू
साहिब जी से हमारा मिलना असम्भव है क्योंकि शत्रु सेना हमारे बहुत निकट पहुँच गई
है। माता भाग कौर ने परामर्श दिया कि क्यों न हम यहीं शत्रु से दो-दो हाथ कर लें।
शत्रु को गुरू साहिब जी तक पहुँचने ही न दें। महा सिंघ तथा अन्य जवानों को यह सुझाव
बहुत भाया। उन्होंने शत्रुओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपने झोलों में से
चादरें निकालकर रेत के मैदान में उगी झाड़ियों पर इस प्रकार बिछा दिया कि दूर से
दृष्टि भ्रान्ति होकर वह कोई बड़ी सेना का शिविर मालूम हो। जैसे ही वज़ीर ख़ान सेना
लेकर इस क्षेत्र से गुजरने लगा तो उनको दूर से वास्तव में दृष्टिभ्रम हो ही गया। वे
आगे न बढ़कर इसी काफिले पर टूट पड़े। विडम्बना यह कि गुरू साहिब जी का सैन्य शिविर भी
यहाँ से लगभग आधा कोस दूर सामने की टेकरी पर स्थित था। अब महा सिंघ के जत्थे के
जवान आत्मबलिदान की भावना से शत्रु दल से लोहा लेने लगे। देखते ही देखते रणक्षेत्र
में चारों ओर शव ही शव दिखाई देने लगे। समस्त सिंघ बहुत ऊँचे स्वर में जयकारे लगा
रहे थे। जिनकी गूँज ने गुरू साहिब जी का ध्यान इस ओर खींचा।
उन्होंने भी टेकरी से शत्रु सेना पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर
दी। 40 सिक्खों का जत्था बड़ी ही बहादुरी से लड़ा परन्तु जत्था वीरगति पा गया। अब
वज़ीर ख़ान के समक्ष अपने सैनिकों को पानी पिलाने की समस्या उत्पन्न हो गई। रास्ते
में तो कहीं पानी था ही नहीं। आगे गुरू साहिब जी पानी पर कब्जा जमाये बैठे थे। वज़ीर
ख़ान ने एक भारी आक्रमण किया किन्तु दूसरी ओर से गुरू साहिब जी के सैनिकों ने उसे
तीव्रगति के बाणों से परास्त कर दिया। मुग़ल सैन्यबल बिना पानी के पुनः आक्रमण करने
का साहस नहीं कर पा रहा था, उनको लग रहा था कि उन्हें यदि पानी न मिला तो प्यासे ही
दम तोड़ना पड़ेगा क्योंकि वे गुरू साहिब जी की शक्ति और उनका युद्ध कौशल कई बार देख
चुके थे। जल्दी ही वज़ीर ख़ान ने निर्णय लिया कि वापिस लौटा जाए। इसी में हमारा भला
है, देरी करने पर सभी सैनिकों की कब्रें मरूस्थल में बिना लड़े पानी से प्यासे होने
के कारण बनेगी। वज़ीर ख़ान जल्दी ही अपनी सेना लेकर वापिस लौट गया। जब मैदान खाली हो
गया तो गुरू साहिब जी अपने सेवकों के सँग रणक्षेत्र में आये और सिक्खों के शवों की
खोज करने लगे। लगभग सभी सिक्ख वीरगति पा चुके थे परन्तु उनका मुखिया महां सिंघ अचेत
अवस्था में था, श्वास धीमी गति पर थी। जब गुरू साहिब जी ने उसके मुख में पानी डाला
तो वह सुचेत हुआ और अपना सिर गुरू साहिब जी की गोदी में देखकर प्रसन्न हो उठा। उसने
गुरू साहिब जी से विनती की कि उन्हें क्षमा कर दें। इस पर गुरू साहिब जी ने उसे
बहुत स्नेहपूर्वक कहा– मुझे मालूम था तुम्हें अपनी भूल का अहसास होगा और आप सभी लौट
आओगे। अतः मैंने वह तुम्हारा बेदावे वाला पत्र सम्भाल लिया था, मैंने सब कुछ लुटा
दिया है परन्तु वह पत्र अपने सीने से आज भी चिपकाए बैठा हूँ और प्रतीक्षा कर रहा
हूँ कि वे मेरे भूले-भटके पुत्र कभी न कभी अवश्य ही वापिस लौटेगें। गुरू साहिब जी
का सहानुभूति वाला व्यवहार देखकर महासिंघ की आँखों से अश्रुधरा प्रवाहित होने लगी
और उसने सिसकियाँ लेते हुए गुरू साहिब जी से अनुरोध किया यदि आप हम सभी पर दयालु
हुए हैं तो हमारी सभी की एक ही इच्छा थी कि हमने जो आपसे आनन्दपुर में दगा दिया था
अथवा बेदावा पत्र लिखा था, वह हमें क्षमा करते हुए फाड़ दें, क्योंकि हम सभी ने अपने
खून से उस धब्बे को धोने का प्रयत्न किया है। कृपया आप हमें पुनः अपना शिष्य
स्वीकार कर लें, जिससे हम शान्तिपूर्वक मर सकें।
गुरू साहिब जी ने अथाह उदारता का परिचय दिया और वह पत्र अपनी
कमर में से निकालकर महां सिंघ जी के नेत्रों के सामने फाड़ दिया तभी महां सिंघ जी ने
प्राण त्याग दिये, मरते समय उसके मुख पर हल्की सी मुस्कान थी और वह धन्यवाद की
मुद्रा में थे। जब सभी शवों को देखा गया तो उनमें एक स्त्री का शव भी था जिसने
पुरूषों का वेष धारण किया हुआ था, ध्यानपूर्वक देखने पर उसकी नब्ज चलती हुई मालूम
हुई। गुरू साहिब जी ने तुरन्त उसका उपचार करवाया तो वह जीवित हो उठी। यह थी माई भागों,
जो जत्थे को क्षमा दिलवाने के विचार से उनका नेतृत्त्व कर रही थी। गुरू साहिब जी ने
उसके मुख से सभी समाचार जानकर उसको ब्रह्मज्ञान प्रदान किया। शहीदों के शवों की खोज
करते समय गुरू साहिब जी इनकी वीरता पर भावुक हो उठे और उन्होंने प्रत्येक शहीद के
सिर को अपनी गोद में लेकर उनको बार-बार चूँमा और प्यार करते हुए कहते गये। यह मेरा
:पाँच हज़ारी योद्धा: था। यह मेरा: दस हजारी योद्धा: था, यह मेरा :बीस हज़ारी योद्धा:
था, तात्पर्य यह था कि गुरू साहिब जी ने उनको मरणोपरान्त उपाधी देकर सम्मानित किया।
वर्तमानकाल में इस स्थान का नाम मुक्तसर है, जिसका तात्पर्य है कि वे बेदावे वाले
सिंघों ने अपने प्राणों की आहुति देकर यहाँ पर मोक्ष प्राप्त किया था।