13. श्री आनंदपुर साहिब जी की चौथी
लड़ाई
औरँगजेब को यह सूचनाएँ मिलने पर बहुत चिन्ता हुई कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के
पास लड़ने को गई मुगल सेनाओं के सरदार भी गुरू जी के मुरीद बन जाते हैं और बादशाही
सेनाओं के विरूद्ध गुरू जी के पक्ष में लड़ने लग जाते हैं। उसने दिल्ली, सरहन्द,
जम्मू व मुल्तान के नवाबों को लिखा कि वे मिलकर श्री आनंदपुर साहिब पर हमला करें और
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को कैद कर लें। यदि गुरू जी को जिन्दा न पकड़ा जा सके तो
उनका सिर काटकर लाया जाए। उसने बहुत सख्ती से लिखा कि इस काम में रती भर भी विलम्ब
न किया जाए। औरँगजेब का आदेश पहुँचने के उपरान्त, सरहन्द के नवाब वजीर खान ने पहाड़ी
राजाओं को कहा कि वे इस बार श्री आनंदपुर साहिब पर हमले के समय मुगल सेनाओं का साथ
दें। बिलासपुर के अमीरचंद, काँगड़ा के घुमंडचँद, जसवाल के वीर सिंह व कुल्लू, कैंथल,
मण्डी, जम्मू, नूरपूर, चंबा, गुलेर, श्री नगर (गढ़वाल), बुशहर, बिजरवाल और डढ़वाल आदि
के राजाओं ने मुगल सेनाओं का साथ देने का फैसला किया। रँघण और गुजर भी इस साँझे
महाज में शामिल हो गये। लाहौर का जबर्दस्त खान व सरहन्द का वजीर खान हजारों की सेना
लेकर श्री आनंदपुर की ओर चल पड़े। दिल्ली और कश्मीर से भी मुगल सेनाएँ इधर चल पड़ीं।
पठानी क्षेत्र में धर्म युद्ध का नारा लगाया गया, इसलिए मुस्लमान कश्मीर की सेना के
साथ शामिल हुए जो कि जेहादी थे ओर केवल लूटमार करने के लिए सेना में भर्ती हुए थे।
जब औरँगजेब के आदेशों की सूचना श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को मिली तो उन्होंने माझा,
मालवा व दुआबे के गाँवों में सिक्खों को सन्देश भेज दिये थे। जब सिक्खों को पला चला
कि मुगल और पहाड़ी सेनाएँ एक बार फिर श्री आनंदपुर साहिब जी का नामोनिशान मिटाने के
इरादे से लड़ाई करने की तैयारियाँ कर रही हैं तो वे गाँवों से संगठित होकर शस्त्र,
घोड़े व रसद और अन्य जरूरी सामान लेकर श्री आनंदपुर साहिब जी को चल पड़े। जो सिक्ख
श्री आनंदपुर साहिब जी में पहुँचे उनकी सँख्या मात्र दस हजार के करीब थी।
शत्रु दल सतलुज के इस छोर पर एकत्र हो गया। अतः शत्रु दलों के
एक हिस्से ने सूर्योदय की दिशा से और दूसरे हिस्से ने सूर्यास्त की दिशा से मई 1704
को श्री आनंदपुर साहिब जी पर आक्रमण कर दिया। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने
पाँच-पाँच सौ सिक्खों के पाँच जत्थे– 1. केसगढ़, 2. आनंदगढ, 3. होलगढ़, 4. लोहगढ़ और
5. अंगमपुरे मे तैनात कर दिये और श्री आनंदपुर साहिब जी को खाली करने का आदेश दे
दिया गया। शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए सिक्खों ने नगर से बाहर आकर मोर्चाबँदी
की। दोनों दिशाओं से तोपों के गोले, बन्दूकें आदि गोलियों और तीरों की वर्षा होती
रही। सिक्ख सेना ऊँचे स्थान पर थी और शत्रु सेना नीचे स्थान पर, इसलिए उस स्थान से
सिक्खों ने तीरों व बन्दूकों के साथ शत्रु का अच्छा-खासा नुकसान किया। तलवार चलाने
में तो सिक्ख विशेष तौर पर माहिर थे। जब सिक्खों के जत्थे विरोधी दल के समीप पहुँच
जाते, तो सिक्ख तलवारें लेकर दुश्मन पर भूखे शेरों की तरह टूट पड़ते। जहाँ सिक्ख
धार्मिक भावना के अधीन अत्याचार व जुल्म के विरूद्ध लड़ रहे थे, वहीं मुगल और पहाड़ी
सिपाही केवल वेतन की खातिर लड़ रहे थे। अतः यह स्वभाविक था कि मुगलों व पहाड़िये
सिपाहियों में सिक्खों जैसा जोश, भावना व बुलन्दी की भावना नहीं थी। कुछ दिनों में
ही मुगलों को यह बात साफ हो गई कि यदि वे सिक्खों के हाथों ऐसे ही अपने जवान मरवाते
रहे तो श्री आनंदपुर साहिब जी को नहीं जीता जा सकेगा। अतः लगभग एक महीने तक ऐसे लड़ने
के बाद उन्होंने पीछे हटकर, रणनीति अपनाते हुए श्री आनंदपुर साहिब जी को चारों ओर
से घेरने का फैसला किया ताकि न तो सिक्ख श्री आनंदपुर पहुँच सकें और न ही दूर्गों
में सिक्खों को रसद पानी पहुँच सके और अंततः वे भूख से तँग आकर हथियार फेंक दें।
शत्रु द्वारा श्री आनंदपुर साहिब जी की नाकाबँदी करने से सिक्खों
को रसद पानी की कठिनाईयाँ प्रतीत होने लगी। जो नहरी पानी, नाले से श्री आनंदपुर
साहिब जी को चलता था, मुगलों ने उसका मुँह भी मोड़ दिया। दुश्मन की इन चालों को असफल
करने के लिए सिक्खों ने छापे मार जत्थे तैयार कर लिये। बेखबर बैठी मुगल फौज पर
सिक्ख अचानक हमला बोलते, कई शत्रुओं को मौत के घाट उतारकर और रसद व जंगी सामान
लुटकर वापिस आ जाते। ये छापे भिन्न-भिन्न समय पर मारे जाते थे। कभी दोपहर को, कभी
आधी रात को कभी रात के पिछले पहर मे जिस समय शत्रु आराम से सोए होते थे। सिक्खों के
इन छापों के कारण शत्रु दल भी सावधान हो गया। रसद व जँगी सामान पीछे हटाकर सुरक्षित
स्थान पर रखा जाने लगा। नगर का घेरा और कस दिया गया। शत्रु के इन प्रयत्नों के कारण
सिक्ख बहुत मुश्किल में फँस गए। जो कुछ शहर में व सिक्खों के किलों में था, सिक्ख
उसी पर गुजारा करने लगे। पर अन्दर रसद पानी बहुत ज्यादा नहीं था। श्री आनंदपुर
साहिब एक तो छोटा सा नगर था, फिर दस हजार सिक्खों की आवश्यकताओं की पुर्ति के लिए
भी, रसद पानी की जरूरत थी। भले ही घरों से चलते समय सिक्ख हथियार और हर प्रकार का
जरूरी सामान लेकर चले थे, पर किसी को इस बात की आशा न थी कि कई महीने लगातार इसी
सामान पर गुजारने पड़ जायेंगे। जैसे-जैसे घास और अन्न में कमी होती गई, सभी की दैनिक
रसद घटने लगी। हालात यहाँ तक पहुँच गये कि एक एक मुटठी चनों से सिक्खों को पेट की
ज्वाला को शाँत करना पड़ा। कई बार चने भी न मिलते। भूख के कष्ट से हाथी व घोड़े भी
तड़प-पड़प कर मरने लगे। यदि सिक्ख किले में भूख और बीमारियों के कारण मुसीबत में थे
तो बाहर शत्रु दल भी सुखी नहीं था। दो लाख बावर्दी सेना के अतिरिक्त, जेहादी और
लूटमार करने को आए झूँड भी लाखों की सँख्या में थे। अतः मुगल सेनाओं ने अन्न और धन
की प्राप्ति के लिए चारों ओर गाँवों के गाँव उजाड़ दिये। गाँवों की महिलाओं व बच्चों
पर भी अत्याचार किए गए। फसलों ओर घरों के उजाड़ व महिलाओं के अपमान के कारण लोगों
में हाहाकार मच गया। लोग शाही सेनाओं व पहाड़ियों के साथ नफरत करने लग गए। वजीर खान
और जबरदस्त खान ने नीति अपनाने की राह को चुना। एक दूत गुरू जी की ओर भेजा ताकि वे
अधीनता स्वीकार कर लें। पर सिक्खों ने उस दूत को गुरू जी तक पहुँचने ही नहीं दिया
और वह गुरू जी को बिना मिले ही वापिस आ गया। मुगल सेनाओं ने एक बार जोरदार हमला भी
किया परन्तु सिक्खों ने उन्हें दीवार तक भी न आने दिया। भूखे पेट सिक्ख जैकारे लगाते
हुए लड़ रहे थे।
मुगल सरदार बहुत ही उदास हो गये थे। घेरा लम्बा चल रहा था ओर
सिक्ख थे कि अधीनता को स्वीकार करने की जगह पर लड़ने मरने को तैयार बैठे थे। मुगल
सेना को पहले गर्मी, वर्षा व बाढ़ के कारण बहुत परेशानी हुई थी। अब सर्दियाँ समीप आ
रही थीं। वह भी इस जँग के पीछा छुड़वाना चाहते थे। उन्होंने श्री गुरू गोबिन्द सिंघ
जी को धोखे से फँसाने की चाल चली। उनका विचार था कि यदि भूख और बीमारियों से सताये
हुए सिक्ख, किलों से बाहर आ जाएँ तो उनको पकड़ा या मारा जा सकता है। उन्होंने दो दूत
एक ब्राहम्ण व एक सैयद गुरू जी के पास भेजे। उन्होंने गुरू जी को एक पत्र दिया जिसमें
मुगल सरदारों ने कुरान और पहाड़ी राजाओं ने गीता की कसमें खाकर कहा कि यदि सिक्ख किला
छौड़ जायेंगे तो उनको कुछ नहीं कहा जाएगा और सभी मुगल सरदार भी औरँगजेब को मुँह
दिखलाने योग्य हो जायेंगे। गुरू जी ने सिक्खों को समझाया कि यह सब शत्रु की रणनितियाँ
व चाले हैं। पर रसद पानी की तंगी के कारण और इतने लम्बी जँग में सिक्ख शूरवीरों की
सँख्या कम हो जाने के कारण वे कमजोर दिल हो गये थे। उन्होंने गुरू जी से कहा कि जब
दुश्मन धार्मिक पुस्तकों की कसमें खाते हैं तो किला छोडकर जाने में कोई हर्ज नही।
गुरू जी ने ऐसा निराला खेल खेला कि शत्रुओं की पोल खुल गई।
उन्होंने कुछ बैलगाड़ियों, खच्चरों व गधों पर फटे पुराने कपड़े,
टूटे जूते वे कूड़ा आदि लाद दिया। इस सबको कीमती सामान की भान्ति ढककर शहर से बाहर
भेजा। आधी रात का समय था और खच्चरों व गधों के सिरों पर जलती हुई मशालें बाँध रखी
थीं। जब शत्रुओं ने सोचा कि कीमती सामान बैलगाड़ियों और खच्चरों पर लादकर बाहर भेजा
जा रहा है तो उन्होंने उस माल पर हमला बोल दिया। जब फटे पुराने कपड़े तथा कूड़ा हाथ
लगा तो उनको बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी। कुछ समय और बीत गया। सिक्खों को दुश्मन से
घिरे हुए और शत्रु के साथ लड़ते हुए छः सात महीने बीत गये थे। खुराक की कमी ने उनके
शरीर ढीले कर दिये थे और उनको कई प्रकार की बीमारियाँ लग गई थीं। इन दिनों में ही
औरँगजेब की एक चिटठी आई जिसके साथ उसने दस्तखत किया हुआ कुरान भी भेजा था। उसने उस
चिटठी में गुरू जी को कई आश्वासन दिये हुए थे और लिखा था कि शाही प्रतिष्ठा को कायम
रखने के लिए यह जरूरी है कि आप श्री आनंदपुर साहिब जी का किला खाली कर दें। जब
सिक्ख योद्धाओं को औरँगजेब की चिटठी का पता चला तो उन्होंने मिलकर गुरू जी के
सम्मुख विनती की कि सभी की भलाई के लिए गुरू जी जँग बन्दी का ऐलान कर दें और सिक्ख
सैनिकों सहित नगर खाली कर दें। गुरू जी ने सबको धैर्य बँधवाया और समझाया कि यह भी
दुश्मन की एक नई चाल है। उधर गुरू जी ने प्रमुख सिक्खों के साथ हालात के बारे में
विचारविमर्श किया। सिक्खों के पास रसद पानी तो खत्म हो चुका था। पेड़ों के छिलके भी
पीस-पीस कर खा लिये गये थे। इस दशा में और अधिक लम्बे समय के लिए लड़ा नहीं जा सकता
था। अतः यह फैसला किया गया कि दुश्मन के साथ रण में जूझ लिया जाए। जो सिक्ख जूझते
हुए सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ वे तैयारी करके फिर मुगल हाकिमों के विरूद्ध सँघर्ष
छेडें। नगरवासियों की महिलाएँ व बच्चे तो जँग आरम्भ होने से पहले ही बाहर भेजे जा
चुके थे परन्तु गुरू जी का परिवार श्री आनंदपुर साहिब में ही था। दूरदर्शी गुरू जी
ने शत्रु के हर तरह के धोखे ओर चालों को दृष्टि में रखते हुए छोटे साहिबजादों, पत्नी
और माता गुजरी जी की सुपरदारी अलग-अलग सिक्खों में कर दी ताकि प्रत्येक सिक्ख
अपनी-अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग रहें। गुरूद्वारों की सेवा सम्भाल के लिए उदासी
सिक्ख भाई गुरूबक्श सिंघ जी को श्री आनंदपुर साहिब जी में रहने की आज्ञा दी।