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2. श्री आनंदपुर साहिब जी का तृतीय युद्ध

सैद खान
लाहौर तथा सरहन्द प्रान्तों की सँयुक्त सेनाओं की पराजय सुनकर औरंगजेब बौखला गया। उसको जब पुनः पर्वतीय नरेशों द्वारा प्रार्थना पत्र मिला कि हमारी सहायता की जाए। तब उसने अपने वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों का सम्मेलन बुलाया और उसने अपने जनरैलों को ललकारा और कहा– है कोई ऐसा योद्धा जो श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को पराजित करे और गिरफ्तार करके मेरे सामने लाये। यदि ऐसा कोई करके दिखा देगा तो उसे मुँहमाँगा पुरस्कार प्रदान किया जायेगा। इस घोषणा को सुनकर सब जनरैल शान्त थे। किन्तु सैदखान कुछ दुविधा के बाद उठा और उसने यह चुनौती स्वीकार कर ली। सम्राट ने उसे प्रत्येक प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया और उसको दिल्ली, सरहन्द तथा लाहौर की छावनियों से सेना लेकर श्री आनंदपुर साहिब पर आक्रमण करना था, इसके अतिरिक्त उसे हिमाचल के नरेशों द्वारा उनकी सैनिक सहायता तथा मार्गदर्शन मिलना था। सभी छावनियों से सेना श्री आनंदपुर साहिब पहुँचने में कुछ समय लगना था। इसी बीच जनरैल सैदखान अपने बहनोई पीर बुद्धूशाह जी व बहन नसीरा बेगम को मिलने सढौरा पहुँचा। उसने पँजाब में आने के प्रयोजन के विषय में बताया– मैं श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को गिरफ्तार करने आया हूं। यह सुनते ही पीर जी व नसीरा बेगम ने कहा– भैया तुम बहुत भूल में हो, वह कोई साधारण पुरूष नहीं, जैसे कि तुम जानते ही हो, हम लोग उनके पक्के श्रद्धालू हैं। भँगाणी के युद्ध में हमने अपने 700 मुरीदों के साथ उनका साथ दिया था। परिणावस्वरूप मेरे दो बेटे और एक देवर शहीद हो गये थे। यह सुनते ही सैदखान ने प्रश्न किया– कि आपने एक काफिर का क्यों साथ दिया ? उत्तर में नसीरा बेगम ने कहा– कि दृष्टि अपनी-अपनी है। हमें वह अल्लाह में अभेद दृष्टिगोचर होते हैं जो निरपेक्ष हैं। इस पर पीर जी ने उसे बताया कि गुरू जी तो सच्चे दरवेश हैं। वह किसी रियासत के स्वामी नहीं हैं और न ही उनका लक्ष्य किसी राज्य की स्थापना करना है। उन्होंने कई बार पर्वतीय नरेशों को पराजित किया है। परन्तु किसी की एक इँच भूमि पर भी कब्जा नहीं किया। वह किसी से भी शत्रुता नही रखते। वह तो अत्याचार और अन्याय के शत्रु हैं। असहाय व दीन दुखियों की सहायता करना उनका एकमात्र लक्ष्य है अतः उनके एक सँकेत पर उनके अनुयायी अपने को न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं। ऐसे उच्च आचरण वाले महान व्यक्तित्व के सँग बिना किसी आधार के शत्रुता डालना किसी के भी हित में नहीं हो सकता।

सैदखान यह सच्चाई जानकर गम्भीर हो गया और उसके मन में गुरू जी के प्रत्यक्ष दर्शन करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वह अपने नेत्रों से उन्हें देखकर अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहता था। अतः उसने निर्णय लिया कि युद्ध तो अवश्य होगा, यदि वह पूर्ण पुरूष हैं तो मुझे रणक्षेत्र में धमासान युद्ध के समय में मिलें। सैदखान अपनी सेना को युद्ध नीति के अर्न्तगत तैनात कर ही रहा था कि अवकाश के समय में शतरंज खैलने बैठ गया। तभी उसकी चारपाई में एक बाण आकर लगा, निकालकर देखने से पता चला कि यह आनंदगढ़ दुर्ग में से आया है और उसके पीछे सोना मढ़ा हुआ है। अधिकारियों ने उसे बताया कि केवल श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के तीर के पीछे ही सोना होता है, उसका कारण यह है कि यदि शत्रु मर जाता है तो उसके कफन के लिए स्वर्ण राशि प्रयोग में लाओ। यदि शत्रु घायल अवस्था में है तो उसका उपचार किया जाए। यह सब सुनकर सैदखान प्रसन्न भी हुआ और आश्चर्य में पड़ गया और विचारने लगा कि मैं तो दुर्ग में लगभग एक कोस की दूरी पर हूं। यहाँ मेरे पर अचूक निशाना लगाना एक करामात ही है।  तभी दूसरा बाण उसकी दूसरी ओर चारपाई के पाये में लगा, उसमें एक कागज का टुकड़ा बँधा हुआ था, जल्दी से उसे खोलकर पढ़ा गया। उस पत्र में लिखा था– सैदखान यह करामात नहीं करतब है। इस पर सैदखान और उसके साथी विचार करने लगे, माना दूर तक मार करने वाला वाण चलाना करतब है परन्तु हमारे दिल की जानना यह तो करामात ही है। अगले दिन युद्ध शुरू हो गया, जब दोनों पक्ष की सेनाएँ आमने-सामने होकर भयँकर युद्ध में उलझी हुई थीं। तभी श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी घोड़े पर सवार होकर रणक्षेत्र में बढ़ने लगे। उन्हें सिक्खों ने रोका और कहा– आप युद्ध में ने जाएँ क्योंकि आगे धमासान युद्ध हो रहा है और शत्रु की सेना बड़ी सँख्या में है परन्तु गुरू जी ने उन्हें साँत्वना दी और कहा– हमें कोई याद कर रहा है, इसलिए जाना ही पड़ेगा और गुरू जी अपनी सैनिक टुकड़ी लेकर आगे बढ़ते हुए सैदखान के समक्ष पहुँच गये। सैदखान ने जब गुरू जी को प्रत्यक्ष देखा तो देखता ही रह गया, वह उनका तेजस्व सहन नहीं कर पाया, तभी गुरू जी ने उसे ललकारा और कहा– सैदखान मैं आ गया हूं। अब मुझ पर शस्त्र उठाओ और करो वार। सैदखान विचलित हो उठा। उसके कुछ क्षण आत्मसंघर्ष में व्यतीत हुए। वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था। किन्तु उसने अनुभव किया कि मैंने जो माँगा था वह पूर्ण हुआ, अब मुझे क्या चाहिए। वह जल्दी से घोड़े से उतरा और गुरू जी के सम्मुख होकर अस्त्र-शस्त्र उनके चरणों में रख दिये और कहने लगा कि जैसा सुना था वैसा ही पाया है और उनके घोड़े की रकाब में सिर रख दिया। गुरू जी ने उसकी नम्रता और जीवन मे क्रान्ति देखकर, घोड़े से उतरकर उसे गले से लगाया और कहा– मांगो क्या चाहते हो ? यह दृश्य देखकर युद्ध रूक गया और दोनों पक्षों की सेनाएँ विस्मय अवस्था में आ गईं। गुरू जी ने उसे रणभूमि में ही शाश्वत ज्ञान दिया और वह वर्दी उतारकर, कहीं दूर अदुश्य हो गया।युद्ध रूक गया किन्तु सेना की कमान रमजान खान ने सम्भाली। एक रात अंधेरे में गुरू जी के सैनिकों ने दुर्ग से बाहर आकर जो धावा बोला तो उसमें न केवल रमजान बल्कि दूसरे जनरैल भी मारे गये। पराजय की घटना जब औरँगजेब के पास पहुँची तो वह आग-बबूला हो गया। उसे अपनी सेना की पराजय सहन नहीं हो रही थी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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