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11. श्री आनंदपुर साहिब जी का दुसरा युद्ध

अब गुरू साहिब जी का जो भी सिक्ख दर्शन करने आता था, उन्हें बोल रखा था कि वो अपने साथ युद्ध के हथियार या घोड़े की सौगात लेकर आये। गुरू जी की शानदार विजय का हाल सुनकर सिक्ख धूमधाम के साथ दर्शनों के लिए श्री आनंदुपर साहिब पहुँचे। कई हजार नये सिक्ख सज गये। सिक्ख मिस्त्रियों ने गुरू जी के तोशेखाने को बन्दूकों, तलवारों और खन्जरों के साथ लबालब भर दिया। सिक्के बारूद के भी ढेर लग गये। पहाड़ी राजा तो पहले ही सहमे हुए थे। दिन प्रतिदिन यह इक्टठा होते देखकर उनकी जान खुश्क हो गई। उन्होंने औरँगजेब की चापलूसी करने की सोची। राजा अजमेरचँद को तोहफे देकर दिल्ली भेजने का विचार बनाया। किन्तु हन्डूर के राजा भूपचँद ने इस विचार का विरोध करते हुए कहा– भाईयों, दिल्ली की ओर मुँह उठाये फिरने की बजाय अपने पैरों पर खड़ा होना सीखो। यदि इक्टठे होकर लड़ो तो मुटठी-भर सिक्खों को जीत लेना कठिन कार्य नहीं। मेरी बात मानों तो श्री आनंदुपर साहिब जी को घेर लो। इस तरह रसद बन्द होने पर सिक्खों का अन्न-पानी समाप्त हो जाएगा। स्वयँ भूखे मर जाएँगे। जो पहाड़ी राजा हमारे साथ न मिलें, उनका हुक्का-पानी बन्द कर दो। सिक्खों के पुराने शत्रु रँघणों और गूजरों को भी अपने साथ मिला लो, फिर सिक्खों की क्या मजाल ! यह बात सुनकर पहाड़ी राजाओं ने भूपचँद का प्रस्ताव स्वीकार किया और श्री आनंदपुर के घेरे की तैयारियाँ होने लगीं। जम्मू, नूरपूर, मण्डी, कुल्लू, कैंथाल, गुलेर, चम्बा, गढ़वाल और अन्य रियासतों के पहाड़ी राजा अपनी सेनाएँ लेकर पहुँच गए। राजा अजमेरचँद ने इन फौजों का नेतृत्व सम्भाला।

श्री आनंदपुर साहिब जी के आसपास घेरा डालने से पहले गुरू जी को एक चिटठी द्वारा कर भुगतान अथवा श्री आनंदपुर साहिब को छोड़ने और उनका प्रभुत्व स्वीकार करने की पुरानी रट लगाई गई। परन्तु गुरू साहिब जी ने उसी निडरता के साथ नकारात्मक उत्तर दिया जिस प्रकार एक बार पहले दिया था। यह बात सन 1701 की है। इस समय श्री आनंदपुर साहिब जी में बहुत सिक्ख नहीं थे पर जितने भी थे उनको छोटे-छोटे फौजी दस्तों में बाँट दिया गया। एक सौ फौजियों वाले एक दस्ते का नेतृत्व गुरू साहिब जी ने अपने सबसे बड़े पुत्र अजीत सिंघ जी को सौंपा। श्री आनंदपुर साहिब में लौहगढ़ और फतेहगढ़ नाम के दो किलों को एक हजार सेना के साथ दो कमाण्डर उदय सिंघ और नाहर सिंघ के सुपूर्द किया गया। गुरू साहिब जी ने सेनाओं को आज्ञा दी कि किलों के अन्दर जमकर बैठे रहें। माझा प्रदेश से पाँच सौ नवयुवक गुरू साहिब जी की सहायता को पहुँच गये। पहाड़ी फौजें टिडडी दल की भाँति श्री आनंदपुर साहिब के आसपास आ बैठीं। युद्ध शुरू हो गया। पहाड़ी राजाओं की तोपों से गोलों की वर्षा होने लगी। राजा केसरीचन्द ने फतेहगढ़ के किले पर हल्ला बोल दिया। दोनों ओर से तीरों की झड़ी लग गई। सिक्खों ने शहर से बाहर निकलकर सामना किया। रँघण घबराकर मैदान से भागने लगे। उनका नेता जगतउल्ला पहले दिन ही मारा गया। अजीत सिंघ जी ने दुश्मन के वह परखच्चे उड़ाये कि बाकियों को भी जोश आ गया। उन्होंने दुश्मन की कतारें साफ कर दी। गुरू साहिब जी भी एक ऊँचे स्थान से तीर चलाते रहे। आखिर दुश्मन को पीछे हटना पड़ा। जगतउल्ला की लाश जमीन पर पड़ी रही। सिक्खों ने उस लाश के उठाने के सभी प्रयत्न असफल कर दिये। जब रात हुई तो दोनों सेनाएँ अपनी-अपनी छावनियों में आ गईं। दूसरे दिन फिर घेरा डाला गया। सिक्खों ने फिर आकर मुकाबला किया। इस तरह दो महीने तक श्री आनंदपुर साहिब जी का घेरा पड़ा रहा। एक रात जब किसी प्रकार से सफलता नहीं मिली तो पहाड़ी राजाओं ने एक और युक्ति सोची। उन्होंने एक हाथी को शराब पीलाकर मस्त कर दिया। उसके माथे पर और आसपास लोहे की सँजो और माथे पर एक लोहे का तवा बाँध दिया और श्री आनंदपुर साहिब जी के दरवाजे की और धकेल दिया जिससे दरवाजा टूट जाए और पहाड़ी फौजें किले के अन्दर जा सकें। मंडी का राजा कहता रहा कि गुरू जी के साथ सँधि के बिना काम नहीं चलेगा। पर उसकी किसी ने नहीं सुनी। राजा केशरीचँद को मस्त हाथी की सफलता पर इतना विश्वास था कि उसने घमण्ड में आकर डीँग मारी कि यदि रात से पहले-पहले किला फतह न किया तो मैं अपने बाप का बेटा नहीं। आखिर किले में सिक्ख हैं भी कितने ? बस यही खिचड़ी में नकम के समान। उनका कोई अता-पता भी नहीं चलेगा।

दुनीचँद मसँद
जब गुरू जी को इस योजना का पता चला तो उसी समय दुनीचँद मसँद को अपने क्षेत्र के कुछ सिक्खों को साथ लेकर आया और गुरू जी के चरणों में प्रणाम किया। दुनीचँद का शरीर साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कुछ अधिक डीलडौल वाला था, अतः गुरू जी ने सहजभाव से उस समय कहा– हमारा हाथी भी आ गया है। हमारी और से दुनीचँद पहाड़ियों के हाथी को परास्त करेगा। यह वाक्य सुनते ही दुनीचँद भयभीत हो गया, उसके पसीने छूटने लगे। परन्तु वह गुरू जी के समक्ष अपनी कायरता प्रकट नहीं कर पाया। उसने कुछ मुखी सिक्खों से सम्पर्क किया और कहा कि वह गुरू जी से कहें कि मुझसे ऐसा नहीं होगा। कहाँ मैं मनुष्य ओर कहाँ विशालकाय हाथी। श्रद्धावान सिक्खों ने उसे बहुत समझाया कि गुरू समर्थ हैं, उन्होंने स्वयँ सब कार्य करने हैं, बस तेरे को तो वह एक मान दिलवा रहे हैं, किन्तु भक्ति और श्रद्धाविहिन दुनीचँद की समझ में यह बात नहीं आई। वह अपने साथ लाये हुए व्यक्तियों से अकेले में मिला और आधी रात को दीवार फाँदकर भागने की योजना बनाई। योजना अनुसार किले की दीवार में रस्सी लगाकर एक-एक करके उसके साथी नीचे उतर गये। अन्त में दुनीचँद जब उतरने लगा तो उसके भारी भरकम शरीर के कारण रस्सी टूट गई और नीचे गिर गया। उसके साथी उसे उठाकर घर ले गये। प्रातःकाल गुरू जी को सिक्खों ने बताया कि वह कल वाला हाथी तो किले की दीवार फाँदकर अपने साथियों सहित भाग गया है। तभी उनकी दृष्टि एक साधारण से युवक बचित्र सिंघ पर पड़ी और उन्होंने कहा– अब हमारा यह दुबला-पतला सैनिक हाथी के साथ भिड़ेगा। यह सुनते ही श्रद्धावान बचित्र सिंघ ने कहा– गुरू जी बस आपकी कृपा दुष्टि होनी चाहिए। इस हाथी को तो मैं चींटी की तरह मसल कर रख दूँगा। गुरू जी प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे एक विशेष नागनी बरछा दिया और कहा– कि यह रहा तेरा शस्त्र जो तुझे सफलता प्रदान करेगा और जो कायर होकर भागा है, मौत तो उसे घर पर भी नहीं छोड़ेगी और ऐसा ही हुआ। दुनीचँद को घर पर साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई।

उदय सिंघ और बचित्र सिंघ
गुप्तचर विभाग ने बताया कि आज किले के द्वार को तोड़ने की योजना राजा केशरीचँद ने बनाई है और वही आज सभी पर्वतीय सैनिकों का नेतृत्व करेगा और उसने शपथ ली है कि मैं आज इस कार्य को सफलपापूर्वक सम्पूर्ण करके लौटूँगा और हमारी विजय निश्चित है, नहीं तो मैं नरेश कहलवाना त्याग दूँगा। इस पर गुरू जी ने तुरन्त निकट खड़े भाई उदय सिंघ को बुलाकर कहा– आप इस केसरीचँद से दो-दो हाथ करेंगे और उसका अभिमान तोड़ेंगे। भाई बचित्र सिंघ और भाई उदय सिंघ जी ने गुरू जी को शीश झुकाकर प्रणाम किया और युद्ध नीति के विपरीत आज लौहगढ़ किले का दरवाजा खोल दिया, उसमें से केवल दो योद्धा घोड़े पर सवार होकर बाहर निकले।मस्त हाथी किले के दरवाजे की ओर चल पड़ा। बचित्र सिंघ जी के हाथ में बरछा था। उनकी भुजाएँ फड़क रही थीं। एक विचित्र दृष्य था। एक ओर पूरी तरह कवच से लैस मस्त हाथी, जिसके माथे पर लोहे का तवा और सूँड में दोधारी तलवार बँधी थी और दूसरी ओर केवल हाथ में बरछा लिये हुए एक साधारण आदमी। आदमी ही नहीं, वीरता का जीता जागता पुतला। आश्रय उसे केवल प्रभु का था और निश्चय अपने गुरू पर। भाई बचित्र सिंघ जी ने नागनी बरछा उठाकर सीधे हाथी के माथे पर दे मारा। पता नहीं उसकी बाहों में इतनी शक्ति कहाँ से आ गई थी। बरछे की नोक लोहे की तवियों को पार करती हुई, हाथी के माथे में चुभ गई। मस्त हाथी दर्द और पीड़ा से चिंघाड़ उठा। रक्तरँजित हो गया और अधिक मस्त होकर पीछे की ओर दोड़ पड़ा। पीछे चली आ रही पहाड़ी सेनाएँ हाथी के पैर के नीचे आकर कुचली गई। कइयों को हाथी ने सूँड में लगे हुए खण्डे से घायल कर दिया। भगदड़ मच गई। बचित्र सिंघ मस्त हाथी से टकराने के बाद गुरू साहिब जी के पास पहुँचा। गुरू साहिब जी ने उसकी शुरवीरता की प्रशँसा की।

इधर तो हाथी ने पहाड़ियों को चक्की में पड़े हुए दानों की तरह दल दिया। उधर गुरू साहिब का हुक्म मानकर उदय सिंघ सूरमा राजा केशरीचँद का सिर तलवार के एक ही झटके से काटकर गुरू साहिब जी के पास पहुँचा। गुरू साहिब जी ने उसे भी थपथपाया। अब पहाड़ी राजाओं की कमर टूट चुकी थी। खँडूर का राजा भी जख्मी हो गया था। फौजें शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग खड़ी हुई। जिससे पहाड़ियों में छिपकर जान बचा सकें। मैदान सिक्खों के हाथ रहा। दूसरे दिन काँगड़ा के पहाड़ी राजा घमंडचँद ने बची-खुची फौजों को लेकर पुनः हमला किया। धमासान का युद्ध हुआ। दोनों ओर से पुनः हमला किया गया। धमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर से जान की बाजी लग गई। अचानक ही घमंडचँद गोली खाकर गिर पड़ा। घमंडचँद की मौत ने पहाड़ी फौजों का दिल तोड़ दिया और वे रातों-रात श्री आनंदपुर साहिब से परे हटकर दूर जा रूके। जब पहाड़ी राजाओं ने देखा कि लड़ाई से काम नहीं बनेगा और मस्त हाथी वाली योजना भी असफल हो गई तो एक और मक्कारी करने का विचार किया। गुरू साहिब जी को पम्मे पुरोहित द्वारा एक चिटठी भेजी और गऊ माता की कसम खाकर विनती की कि यदि आप एक या दो दिन के लिए ही श्री आनंदपुर साहिब छोड़कर ओर कहीं आसपास चले जाएँ तो हम आपको कुछ नहीं कहेंगे और श्री आनंदपुर साहिब जी का घेरा हटाकर अपने घर चले जायेंगे। इस तरह लोगों के सामने हमारा निरादर भी नहीं होगा और आपका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। आप फिर श्री आनंदपुर साहिब आ सकते हैं। गुरू साहिब जी पहाड़ियों की कसमों और फरेबों को अच्छी तरह से जानते थे। वह इन पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं करते थे। पर दोनों ओर का पर्याप्त नुकसान हो चुका था। सिक्खों ने गुरू साहिब जी को कहा कि और व्यर्थ खून क्यों बहाया जाए। श्री आनंदपुर साहिब फिर वापिस आने में क्या नुकसान है।

गुरू साहिब जी ने अपने सिक्खों की बात मान ली। श्री आनंदपुर साहिब से बिल्कुल थोड़ी दूर परे कीतरपुर के समीप निरमोह के ऊँचे स्थान पर जा डेरा लगाया। कुछ एक सिक्ख श्री आनंदुपर की रक्षार्थ पीछे छोड़कर शेष अपने साथ ले गए। पहाड़ियों का वास्तविक मतलब या था कि गुरू साहिब किसी प्रकार श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़कर बाहर आ जाएँ, फिर उन पर विजय प्राप्त करना आसान होगा। गुरू साहिब जी को बाहर निकलने की देर थी कि पहाड़ी राजाओं ने धावा बोल दिया। गऊ माता की कसम भूल गए। अब तक सरहन्द के सूबेदार वजीर खाँ की फौजें भी उनके साथ आ मिली थीं। एक ओर से गुरू साहिब को पहाड़ी फौजों से और दूसरी ओर से वजीर खाँ की फौजों के विरूद्ध लड़ना पड़ गया। पर वे बिल्कुल नहीं घबराये। सिक्खों के हौंसले ऊँचे थे। गुरू जी के लिए तो वे इस प्रकार मरने को तैयार थे जिस प्रकार दीपक पर पतँगा। अपनी अल्पसँख्या की चिन्ता न करते हुए उन्होंने सिर-धड़ की बाजी लगा दी। लड़ाई दो दिन जारी रही। एक मुगल तोपची को बुलाकर कहा गया कि यदि वह ऊँचें स्थान पर बैठे हुए गुरू साहिब जी पर निशाना बिठा दे तो उसे बड़ा भारी इनाम दिया जाएगा। तोपची बड़ा नामी निशानेदार माना जाता था। उसने सीध लगाकर तोप का गोला गुरू जी की ओर फैंका। गोला गुरू साहिब के चँवर झुलाने वाले सेवक पर गिरा और वह वहीं मर गया। दूसरी बार वह गोला भरकर चलाने की वाला था कि गुरू साहिब ने एक ऐसा तीर छोड़ा कि ठीक तोपची को आकर लगा और वह वहीं ढेर हो गया। दूसरे तीर से गुरू साहिब जी ने तोपची का भाई भी, जो तोप चलाने में उसकी मदद कर रहा था, मार गिराया। गुरू साहिब ऐसे बाँके तीरंदाज थे कि उनका निशाना कभी भी खाली नहीं गया था। सतलुज नदी के किनारे दोनों दलों का धमासान युद्ध हुआ, जिसमें पहाड़ी राजाओं और शाही फौज का इतना नुकसान हुआ कि उन्हें पीछे हटना पड़ा। वजीर खाँ राजाओं से बहुत सारे पुरस्कार और भेंट लेकर वापिस सरहन्द जा पहुँचा। पहाड़ियों ने अपने मन को तसल्ली देते हुए कहा– भले ही गुरू हारा नहीं, फिर भी उसे श्री आनंदपुर साहिब जी तो छोड़ना ही पड़ा। वे सब अपने मन को झूठी तसल्ली देकर अपने घर वापिस लौट गए। पर पहाड़ियों की यह तसल्ली भी शीघ्र ही समाप्त हो गई। कुछ देर वसाली ठहरकर गुरू जी फिर डँके की चोट से श्री आनंदपुर साहिब जी आ पहुँचे। राजा अजमेरचँद ने गुरू जी को बहुत से तोहफे और भेंटे भेजकर सँधि के लिए विनती की। बाकी पहाड़ी राजाओं ने भी सुलह सफाई कर ली।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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