1. सिक्ख इतिहास का पहला युद्ध
सम्राट जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के प्रशासन के
साथ संबंधों में वह मधुरता न रही। धीरे-धीरे कटटरपँथी हाकिमों के कारण तनाव बनता चला
गया। एक बार श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी श्री अमृतसर साहिब जी से उत्तर-पश्चिम की
और के जँगलों में शिकार खेलने के विचार से अपने काफिले के साथ दूर निकल गये। इतफाक
से उसी जँगल में लाहौर का सुबेदार शहाजहाँ के साथ अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ आया हुआ
था। यह 1629 का वाक्या है। सिक्खों ने देखा कि एक बाज बड़ी बेरहमी से शिकार को मार
रहा था, यह शाहजहाँ का बाज था। बाज का शिकार को इस तरह से तकलीक देकर मारना सिक्खो
का न भाया। सिक्खों ने अपना बाज छोड़ा, जो शाही बाज को घेर कर ले आया, सिक्खो ने शाही
बाज को पकड़ लिया। शाही सैनिक बाज के पीछे-पीछे आये और गुस्से के साथ घमकियाँ देते
हुये शाही बाज की माँग की। गुरू जी ने शाही बाज देने से इनकार कर दिया। जब शाही फौज
ने जँग की बात कही। तो, सिक्खों ने कहा– कि हम तुम्हारा बाज क्या हम ताज भी ले लेंगे।
तूँ-तूँ मैं-मैं होने लगी, नौबत लड़ाई तक आ पहुँची और शाही फौजों को भागना पड़ा। शाही
फौज ने और खासकर लाहौर के राज्यपाल ने सारी बात नमक-मिर्च लगाकर और बढ़ा चढ़ाकर शाहजहाँ
को बताई। शाहजहाँ ने हमला करने की आज्ञा भेजी। कुलीटखान जो गर्वनर था, ने अपने
फौजदार मुखलिस खान को 7 हजार की फौज के साथ, अमृतसर पर धावा बोलने के लिए भेजा। 15
मई 1629 को शाही फौज श्री अमृतसर साहिब जी आ पहुँची। गुरू जी को इतनी जल्दी हमले की
उम्मीद नहीं थी। जब लड़ाई गले तक आ पहुँची, तो गुरू जी ने लोहा लेने की ठान ली।
पिप्पली साहिब में रहने वाले सिक्खों के साथ गुरू जी ने दुशमनों पर हमला कर दिया।
शाही फौजों के पास काफी जँगी सामान था, पर सिक्खों के पास केवल चड़दी कला और गुरू जी
के भरोसे की आस। भाई तोता जी, भाई निराला जी, भाई नन्ता जी, भाई त्रिलोका जी जुझते
हुये शहीद हो गये। दूसरी तरफ करीम बेग, जँग बेग ए सलाम खान किले की दीवार गिराने
में सफल हो गये। दीवार गिरी देख गुरू जी ने बीबी वीरो के ससुराल सन्देश भेज दिया कि
बारात अमृतसर की ब्जाय सीघी झबाल जाये। (बीबी वीरो जी गुरू जी की पुत्री थी, उनका
विवाह था, बारात आनी थी)। रात होने से लड़ाई रूक गयी, तो सिक्खों ने रातों-रात दीवार
बना ली। दिन होते ही फिर लड़ाई शुरू हो गयी। सिक्खों की कमान पैंदे खान के पास थी।
सिक्ख फौजें लड़ते-लड़ते तरनतारन की तरफ बड़ी। गुरू जी आगे आकर हौंसला बड़ा रहे थे।
चब्बे की जूह पहुँच के घमासान युद्व हुआ। मुखलिस खान और गुरू जी आमने-सामने थे। दोनों
फौजें पीछे हट गयी। गुरू जी के पहले वार से मुखलिस खान का घोड़ा गिर गया, तो गुरू जी
ने भी अपने घोड़े से उतर गये। फिर तलवार-ढाल की लड़ाई शुरू हो गयी। मुखलिस खान के पहले
वार को गुरू जी ने पैंतरा बदल कर बचा लिया और मुस्करा कर दूसरा वार करने के लिए कहा।
उसने गुस्से से गुरू जी पर वार किया। गुरू जी ने ढाल पे वार ले के, उस पर उल्टा वार
कर दिया। गुरू जी के खण्डे (दोधारी तलवार) का वार इतना शक्तिशाली था कि वह मुखलिस
खान की ढाल को चीरकर, उसके सिर में से निकलकर, धड़ के दो फाड़ कर गया। मुखलिस खान के
गिरते ही मुगल फौजें भागने लगी, गुरू जी ने मना किया कि पीछा न करें। गुरू जी ने
सारे शहीदों के शरीर एकत्रित करवाकर अन्तिम सँस्कार किया। 13 सिक्ख शहीद हुये जिनके
नाम:
1. भाई नन्द (नन्दा) जी
2. भाई जैता जी
3. भाई पिराना जी
4. भाई तोता जी
5. भाई त्रिलोका जी
6. भाई माई दास जी
7. भाई पैड़ जी
8. भाई भगतू जी
9. भाई नन्ता (अनन्ता) जी
10. भाई निराला जी
11. भाई तखतू जी
12. भाई मोहन जी
13. भाई गोपाल जी
शहीद सिक्खों की याद में गुरू जी ने गुरूद्वारा श्री सँगराणा
साहिब जी बनाया। शाही सेना की पराजय की सूचना जब सम्राट शाहजहाँ को मिली तो उसे
बहुत हीनता अनुभव हुई। उसने तुरन्त इसका पूर्ण दुखान्त ब्यौरा मँगवाया और अपने
उपमँत्री वजीर खान को पँजाब भेजा। जैसा कि विदित है कि वजीर खान गुरू घर का
श्रद्धालू था और उसने समस्त सत्य तथा तथ्यपूर्ण विवरण सहित बादशाह शाहजहाँ को लिख
भेजा कि यह युद्ध गुरू जी पर थोपा गया था। वास्तव में उनकी पुत्री का उस दिन शुभ
विवाह था। वह तो लड़ाई के लिए सोच भी नहीं सकते थे। शहजहाँ अपने पिता जहाँगीर से गुरू
उपमा प्रायः सुनता रहता था। अतः वह शान्त हो गया किन्तु लाहौर के राज्यपाल को उसकी
इस भूल पर स्थानान्तरित कर दिया गया।