116. गुरू दरबार में कश्मीरी पण्डितों
की पुकार
(तैरना हो तो नदी में तो कूदना ही पड़ता है, अर्थात अपने श्रद्धालूओं और भक्तों की
आन के लिए तो कभी-कभी कुर्बानी भी देनी पड़ती है।)
इफ़तखार-खान ने पण्डितों पर अत्याचार करने आरम्भ कर दिये।
हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया जाने लगा। इनकार करने वाले के लिए मृत्युदण्ड
दिया जाता। कहते हैं कि औरँगजेब हिन्दुस्तान में पण्डितों का सवा मन जनेऊ उतरवाकर
खाना खाता था। इन अत्याचारों के विरूद्ध कश्मीर के लोगों की पुकार सुनने वाला कोई न
था। पण्डितों ने अपने धर्मिक विश्वासों के अनुसार देवी-देवताओं की आराधना की और उनके
आगे हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए सहायता के लिए प्रार्थना की परन्तु उनकी
प्रार्थनाओं का कोई प्रभाव न हुआ। किसी भी दैवी शक्ति ने उनकी सहायता न की। अन्ततः
लाचार होकर हिन्दुओं ने एक सभा बुलाई और इस सँकट का कोई उपाय निकालने की युक्ति
सोचने लगे। ताकि किसी तरह धर्म सुरक्षित किया जा सके। अन्त में वे इस निर्णय पर
पहुँचे कि गुरू नानक देव जी के नौवें उत्तराधिकारी गुरू तेगबहादुर जी के पास जाकर
यह समस्या रखी जाए, क्योंकि उस समय वही एक मात्र मानवता एवँ धर्म निरपेक्षता के
पक्षधर थे। अतः मटन निवासी कृपा राम जो कि गोबिन्द राय जी को सँस्कृत पढ़ाते थे और
उन दिनों छुट्टियाँ लेकर घर आये हुए थे, उसके नेतृत्व में कश्मीरी पण्ड़ितो का एक
प्रतिनिधिमण्डल पँजाब में श्री आनंदपुर साहिब जी पहुँचा। वास्तव में वे कोई सरल
समस्या लेकर आये तो नहीं थें। कश्मीरी गैर-मुस्लिमों पर होने वाले अत्याचारों का
विवरण पाकर श्री गुरू तेग बहादुर साहिब सिहर उठे ओर करूणा में पसीज गये। गुरूदेव को
प्रतिनिधि मण्डल ने कहा– उन्हें औरँगजेब के कहर से तथा हिन्दू धर्म की डूब रही नैया
को बचायें। गुरूदेव भी बलपूर्वक व अत्याचार द्वारा किसी का धर्म परिवर्तन करने के
सख्त विरूद्ध थे। वे स्वयँ जनसाधारण में जागृति लाने के लिए उपदेश दे रहे थे कि– न
डरो और न डराओ अर्थात:
भय काहू कौ दे नहिं नहिं भय मानत आन ।।
इसलिए प्रतिनिधि मण्डल की विनती पर नौवें गुरूदेव विचार मग्न हो
गये। तभी गुरूदेव के 9 वर्षीय पुत्र गोबिन्द राय जी दरबार में उपस्थित हुए। जब
उन्होंने प्रतिदिन के, हर्ष-उल्लास के विपरीत उस स्थान पर सन्नाटा तथा गम्भीर
वातावरण पाया। तो बाल गोबिन्द राय ने अपने पिता जी से प्रश्न किया– पिता जी ! आज
क्या बात है, आप के दरबार में भजन कीर्तन के स्थान पर यह निराशा कैसी ? गुरूदेव ने
उस समय बालक गोबिन्द राय को टालने का प्रयत्न किया और कहा– पुत्र ! तुम खेलने जाओ।
परन्तु गोबिन्द राय कहाँ मानने वाले थे। अपने प्रश्न को दोहराते हुए वह कहने लगे–
पिता जी खेल तो होता ही रहता है। मैं तो बस इतना जानना चाहता हूँ कि ये सज्जन कौन
हैं ? तथा इनके चेहरों पर इतनी उदासी क्यों ? गुरूदेव ने बताया– ये लोग कश्मीर के
पण्डित हैं। इनका धर्म सँकट में है, ये चाहते हैं कि कोई ऐसा उपाय खोज निकाला जाए,
जिससे औरँगजेब इन हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का अपना आदेश वापस ले ले। गोबिन्द राय
जी तब गुरूदेव से पूछने लगे– आपने फिर क्या सोचा हैं ? गुरूदेव ने कहा– बेटा ! ऐसा
तभी सम्भव हो सकता है जब औरँगजेब की इस नीति के विरोध में कोई महान व्यक्तित्व अपना
बलिदान दें ! यह सुनकर गोबिन्द राय जी बोले– तो फिर देर किस बात की है ? आपसे बड़ा
धर्मरक्षक व लोक प्रिय सत्पुरूष और कौन हो सकता हैं और वैसे ही तैरना हो तो नदी में
तो कूदना ही पड़ता है, यें पण्डित जब आपकी शरण में आये हैं तो आप इनके धर्म की रक्षा
करें। क्योंकि श्री गुरू नानक देव साहिब जी के उत्तराधिकारी होने के नाते, उनके
सिद्धान्तों पर पहरा देना आपका कर्तव्य हैं। उनका कथन है– "जो शरण आये तिस कंठ लाये"
यही उनकी बिरद है। गोबिन्द राय के मुख से यह वचन सुनकर गुरू तेग बहादुर जी अति
प्रसन्न हुए तथा बोले, बेटा तुमसे मुझे यही आशा थी। बस मैं यही सुनने की प्रतीक्षा
कर रहा था। संगत भी गोबिन्द राय के विचार सुनकर अवाक् और भावुक हो गई।