108. दन्त कथा दुर्गा देवी
(जब कोई चारा ना बचा हो तो एक औरत को अपने मान-सम्मान की रक्षा
आप ही करनी चाहिए। अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अगर किसी दुष्ट का नाश भी करना
पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए।)
श्री गुरू नानक देव जी स्यालकोट से अख़नूर होते हुए कटड़ा नाम के
कस्बे में पहुँचे। वहाँ पर उन दिनों भी वैष्णो देवी की मान्यता ऐसी ही थी जैसे कि
आजकल है। गुरुदेव को स्थानीय लोगों ने उस स्थान के विषय मे किंवदन्तियाँ सुनाई कि
एक समय था जब महिलाएँ अपनी परम्परा अनुसार प्रतिदिन मवेशियों के लिए चारा अथवा ईंधन
की लकड़ियाँ इत्यादि लेकर पहाड़ी से स्नान आदि करके लौटती थीं। एक दिन की बात है कि
एक कुलीन परिवार की एक अति सुन्दर युवती जिसका नाम दुर्गा था अपनी सखियों के साथ
लौटते समय स्नान कर रही थी कि स्थानीय जमींदार का बिगड़ा हुआ लड़का, जिसका नाम भैरव
था, अपने मित्रों के साथ शिकार खेलता हुआ वहाँ पर पहुँचा। यह युवक धन की अधिकता के
कारण चँचल प्रवृति का स्वामी था। उसका एक मात्र ध्येय ऐश्वर्य का जीवन जीना था। अतः
वह प्रत्येक क्षण सुरा-सुन्दरी के लिए लालायित रहता था। जब उसने उन युवतियों को नदी
में स्नान करते देखा तो उससे रहा न गया और वह युवतियों के पीछे हो लिया। दुर्गा ने
उसे चुनौती दी, तुम हमारे निकट न आना वरना हम तुम्हें अपनी दराँती से काट फेकेंगी।
परन्तु काम चेष्टा में अँधा भैरव कहाँ मानने वाला था, वह तो युवती दुर्गा के रूप का
रसास्वादन करना चाहता था। अतः उसने चुनौती स्वीकार कर ली और बोला, मैं गीदड़ धमकियों
से डरने वाला नहीं। इस पर कोई चारा न देखकर युवती दुर्गा भयभीत अवस्था में हाथ में
दराँती लेकर पहाड़ी के ऊपर भाग खड़ी हुई। यह देखकर युवक भैरव घोड़े से उतरा और उसके
पीछे हो लिया। इस प्रकार वह युवक, भैरव काम वासना के लिए युवती दुर्गा का पीछा करने
लगा। आगे-आगे युवती दुर्गा और पीछे-पीछे भैरव, पहाड़ी चढ़ते ही गए, परन्तु दुर्गा को
पकड़ने में वह सफल न हो सका तभी पहाड़ी के मध्य एक चट्टान में एक गुफा नुमा सँकरी
सुरँग थी जिसमें युवती दुर्गा ने छिपकर शरण ली। परन्तु भैरव भी धुन का पक्का था वह
कहाँ मानने वाला था। उसने खोजते-खोजते दुर्गा को आखिर ढूँढ ही लिया। उसने दुर्गा को
पीछे से जाकर दबोचा। परन्तु चतुर दुर्गा तीव्र गति से दूसरे रास्ते से बाहर निकलने
में सफल हो गई और फिर से पहाड़ी की शिखर की तरफ भाग खड़ी हुई। भैरव भी कँदरा से बाहर
निकला और फिर से पीछा करने लगा। दोनों भागते-भागते पहाड़ी के शिखर से होते हुए उस
पार एक बड़ी चट्टान पर जा पहुँचे, और दोनों का आमना-सामना हुआ। भैरव ने कहा, तुम भागो
नहीं मैं तुम्हें हमेशा के लिए अपना बना लूँगा। मैं तुम से विवाह करना चाहता हूँ।
दुर्गा ने उत्तर में कहा, मैं तुम्हें भली भान्ति जानती हूँ, तुमने कई स्त्रियों का
सतीत्व भँग किया है तथा कई युवतियों को झाँसा देकर उनको पतित किया है। मैं तुम्हारे
छलावे में आने वाली नहीं। भैरव ने भगवान को साक्षी मानकर शपथ लेते हुए कहा, मैं इस
बार सच कह रहा हूँ कि मैं तुम से विवाह करना चाहता हूँ। उत्तर में युवती दुर्गा ने
कहा, मैं तुमसे किसी भी कीमत पर विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि तुम माँस-मदिरा का
सेवन करते हो तथा दुराचार करना तुम्हारा कर्म है। इसलिए मैं किसी कुकर्मी से कोई
सम्बन्ध नहीं बनाना चाहती। इस कड़वे सत्य को सुनकर भैरव आखरी दाव के लिए युवती दुर्गा
पर झपटा। परन्तु युवती दुर्गा सावधान थी। उसने तुरन्त अपनी दराँती पूरे वेग से भैरव
की गर्दन पर दे मारी, बस फिर क्या था, जमींदार के पुत्र भैरव की गर्दन उसी क्षण धड़
से अलग हो गई और वह वहीं ढेर हो गया। इस अनचाही हत्या को देखकर युवती दुर्गा भयभीत
हो गई और प्रशासन की तरफ से दण्ड मिलने की आशँका से वह काँपने लगी। कोई चारा न
देखकर छिपने के विचार से निकट ही एक गुफा में जाकर शरण ले ली। युवती दुर्गा ने
एकान्तवास के समय में सर्वशक्तिमान प्रभु की आराधना प्रारम्भ कर दी, कि हे प्रभु!
मेरी रक्षा करें। मैंने यह हत्या किसी नीच विचार के कारण नहीं की। सच्चे हृदय तथा
एकान्त होकर की गई, प्रभु चरणों में प्रार्थना स्वीकार हुई और युवती दुर्गा को
वरदान के रूप में तेज प्रताप प्राप्त हुआ। उधर गाँव निवासी भी युवती दुर्गा को
खोजते-खोजते वहाँ पहुँचे, जहां दुर्गा ने शरण ले रखी थी। सभी बुजुर्गों ने दुर्गा
को बाहर आने को कहा परन्तु वह मान नहीं रही थी। तब उसे अधिकारी वर्ग की तरफ से
आश्वासन दिया गया कि उसे कुछ नहीं कहा जाएगा क्योंकि वह हत्या उसने आत्मरक्षा तथा
आत्मगौरव के लिए की है। अतः वह अपराध, अपराध नहीं उसका अधिकार था। इस आश्वासन पर
दुर्गा ने आत्मसमर्पण कर दिया। प्रशासन की ओर से मुकदमा चलाया गया, जिसमें न्यायधीश
ने युवती दुर्गा को सम्मानपूर्वक स्वतन्त्र करते हुए अपनी ओर से प्रसन्नता व्यक्त
करते हुए कहा, इस युवती ने जो वीरता का उदाहरण प्रस्तुत किया है वह स्वर्ण अक्षरों
से लिखा जाएगा। दुर्गा एक ऐसी वीराँगना है जिस पर सभी गर्व कर सकते हैं। उसने एक
दुष्ट को समाप्त करके इस क्षेत्र को बुराई से मुक्ति दिलवाई है, इसलिए यह माँ तुल्य
है। इस प्रकार दुर्गा के शरण स्थल को उसकी याद मे पूजा जाने लगा। समय व्यतीत होने
के साथ-साथ मान्यताएँ भी बदलने लगीं। इस वृताँत को सुनकर गुरुदेव ने कहा, इस महान
नारी के चरित्र से जनसाधारण को शिक्षा लेनी चाहिए। कम से कम वे लोग जो यहाँ इन्हें
अपना इष्ट मानकर तीर्थ यात्रा के लिए आते हैं उन्हें तो इस घटना क्रम से प्रेरणा
लेनी चाहिए कि अपने आत्म गौरव के लिए नारी रणचँडी बनकर दुष्टों का दमन कर सकती है।
भले ही उसे इस सँघर्ष में कितनी ही विपत्तियों का सामना करना पड़े। उन्हें विलासिता
का जीवन नहीं जीना चाहिए क्योंकि युवती दुर्गा माँस, मदिरा का सेवन करने वालों से
अति घृणा करती थी। अतः गुरुदेव ने सभी यात्रियों को उपदेश दृढ़ करवाने के लिए अपने
विचार व्यक्त करते हुए कहा, मानव को प्रत्येक स्थान से गुण ग्रहण करने चाहिए तथ
अवगुण त्यागकर उज्ज्वल जीवन जीना सीखना चाहिए।
गुणा का होवै वासुला कढि वासु लईजै ।।
जे गुण होवनि साजना मिलि सांझ करीजै ।।
सांझ करीजै गुणह केरी छोडि अवगण चलीऐ ।।
पहिरे पटंबर करि अडंबर आपणा पिड़ु मलीऐ ।।
जिथै जाइ बहीऐ भला कहीऐ झोलि अंम्रितु पीजै ।।
गुणा का होवै वासुला कढि वासु लईजै ।। राग सूही, अंग 765
गुरुदेव ने प्रवचनों में कहा, जिज्ञासु को सदैव ध्यान में रखना
चाहिए कि वह साधना किसी व्यक्ति विशेष की न करके निरगुण स्वरूप सत्यचित आँनद (परमात्मा)
की करनी चाहिए क्योंकि व्यक्ति का शरीर नाशवान है तथा मानव होने के नाते उसमें
शारीरिक कमजोरियाँ होती हैं। अतः ‘शब्द गुरू’ से सम्बन्ध स्थापित करके उसको अपना
जीवन उज्ज्वल करना चाहिए।