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105. नाम की महिमा

(परमात्मा के नाम का अभ्यास करना चाहिए। अगर आपको एक (परमात्मा) को पाना है, तो आपको भी एक बनना पड़ेगा, यानि कि आप परमात्मा के गुणों को धारण करो। सभी को एक समान मानो और किसी से भी ईष्या न करो। किसी का बूरा नहीं सोचो, अगर किसी की यथासँभव सहायता कर सकते हो तो, जरूर करो।)

श्री गुरू नानक देव जी भावनगर से होते हुए साबरमती में आये। आप जी ने साबरमती नदी के तट पर अपना खेमा लगाया। वह स्थान नगर के घाट के निकट ही था। जब प्रातःकाल हुआ तो कीर्तन प्रारम्भ कर दिया। घाट पर स्नान करने आने वाले, कीर्तन द्वारा मधुर बाणी सुनते ही, वहीं सुन्न से होकर बैठ गए। गुरुदेव उच्चारण कर रहे थे:

बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ ।।
अहिनिस बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ ।। राग आसा, अंग 360

देखते ही देखते सूर्य उदय हो गया घाट पर भीड़ बढ़ती चली गई। अधिकाँश लोग कुछ समय के लिए गुरुदेव का कीर्तन सुनने बैठ जाते। नाम महारस की शब्द द्वारा व्याख्या सुनकर नाम में लीन होने की अभिलाषा जिज्ञासुओं के हृदय में जाग उठी। कीर्तन समाप्ति पर जिज्ञासुओं ने गुरुदेव जी से प्रश्न किया– नाम सिमरन का अभ्यास, किस विधि पूर्वक किया जाए ? तथा कहा कि उनका मन एकाग्र नहीं होता, मन पर अँकुश लगाने की युक्ति क्या हो, कृपया बताएँ ? गुरुदेव जी ने समस्त संगत को सम्बोधित करते हुए कहा– यदि कोई व्यक्ति नाम महारस पाना चाहता है तो उसे प्रारम्भिक अवस्था में सूर्यउदय होने से पूर्व, अमृत समय में शौच स्नान से निवृत होकर एकान्त वास करके सहज योग में आसन लगाकर सतिनाम वाहिगुरू, सतिनाम = सत्य नाम का जाप प्रारम्भ करके उसके गुणों का मनन करना चाहिए। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जिसे लोग चाहते हैं या प्यार करने की भावना रखते हैं उसके स्वभाव के अनुसार वे अपना स्वभाव तथा आदतें बना लें तो दूरी समाप्त हो जाती है, जिससे निकटता आते ही परस्पर प्यार हो जाता है। क्योंकि प्यार होता ही वहाँ है जहां विचारों की समानता हो। अतः प्रभु के गुणों का अध्ययन करके उस जैसे गुण अपने अन्दर उत्पन्न करने का भरसक प्रयास करते रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, प्रभु कृपालु है निर्भय है निरवैर है। यह उसके प्रमुख गुण हर एक व्यक्ति अपने अन्दर उत्पन्न करने की क्षमता रखता है कि वह सभी का मित्र बन जाए। किसी से ईर्ष्या, द्वेष न रखकर निरवैर बन जाए। न किसी से डरे न किसी को डराए तथा प्रत्येक गरीब जरूरतमँद की सहायता करने की चेष्टा करे। प्रत्येक क्षण उस प्रभु को समस्त जीवों में विद्यमान देखें। बस यही गुण उत्पन्न होते ही उसमें तथा उस प्रभु में भेद समाप्त हो जाएगा। धीरे-धीरे मित्रता की वह अवस्था भी आ जाएगी जहां वे प्रभु से अभेद हो जाएगा। गुरु जी की शिक्षा सुनकर सारे श्रोतागण आग्रह करने लगे– हे गुरू जी आप हमारे यहाँ कुछ दिन ठहरें। क्योंकि हम आप से हरियश करने की विधि-विधान सीखना चाहते हैं। गुरुदेव ने उन का अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा– आप एक धर्मशाला यहाँ तैयार करें जहां प्रतिदिन कीर्तन हो सके तथा संगत, प्रभु की स्तुति करने के लिए एकत्र हो। बहुत से नर-नारियों ने आप से गुरू दीक्षा की अभिलाषा व्यक्त की। गुरुदेव ने कहा आप पहले साधसंगत की स्थापना करें, हरियश करने की विधि-विधान दृढ़ कर लें ततपश्चात, आपकी यह अभिलाषा भी अवश्य पूर्ण करेंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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