104. पद्मा, नूरशाह
(एक नारी में अगर गुण हैं तो वह अपने ससुराल में अपने पति को भी
पसन्द आती है। इसी प्रकार एक जीव आत्मा में अगर गुण होते हैं तो वह परलोक में
परमात्मा को पसन्द आती है।)
श्री गुरू नानक देव जी चिटा गाँव से त्रिपुरा, अगरतला होते हुए
नागा पर्वतों के राजा देवलूत को सत्य समाज के सिद्धाँत दृढ़ कराते हुए आसाम के
गोलाघाट जिले में पहुंचे। नगर के बाहर गुरुदेव ने डेरा लगाया। भाई मरदाना जी ने
भोजन की व्यवस्था की इच्छा व्यक्त करते हुए गुरुदेव से नगर में जाने की आज्ञा माँगी,
किन्तु गुरुदेव ने मरदाना जी को सावधान किया कि यहाँ के लोग ताँन्त्रिक विद्या जानते
हैं। अतः परदेसी व्यक्ति को पहचानते ही उस से अनुचित व्यवहार करते हैं तथा वहाँ पर
स्त्रियां शासन-व्यवस्था करती हैं। इसलिए यहाँ पर राज शक्ति का दुरुपयोग होता है,
यानी पुरषों का दमन किया जाता है। यह सभी जानकारी प्राप्त करके भाई मरदाना जी कहने
लगे, यह सब कुछ जो आप बता रहे हैं ठीक है। परन्तु भोजन बिना कार्य चल नहीं सकता।
उसके लिए तो नगर में जाना ही पड़ेगा। परन्तु मैं सावधनी से रहूँगा। जब भाई जी नगर
में पहुँचे तो वहाँ एक कुँए पर कुछ स्त्रियाँ जल भरती हुई दिखाई दी। भाई जी उनके
पास गए और विनम्रता से कहने लगे, मुझे प्यास लगी है। जल पिला दें। मरदाना जी की भाषा
तथा वेषभूषा देखकर स्त्रियाँ आपस में विचार करने लगी कि वह आगन्तुक है। अतः यह उनका
शिकार है। उस व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाया जाए। उनमें से एक ने मरदाना जी को जलपान
कराया और कहा, आप मेरे साथ मेरे घर चलें। मैं आप को भोजन कराऊँगी। मरदाना जी ने उसके
छल को नहीं समझा। भोजन के लिए उसके घर पहुँच गये। उस स्त्री ने भाई जी को भात परोस
दिया, जिसमें कुछ नशीला पदार्थ मिला दिया। उससे मरदाना जी अपनी सुध-बुध खो बैठे।
जैसे ही मरदाना जी को नशा हुआ। उस स्त्री ने एक धागा जो कि तान्त्रिक विद्या के
मन्त्र पढ़कर तैयार किया हुआ था। मरदाना जी के गले में बांध दिया। इस धागे में
वशीकरण मन्त्रों का प्रभाव था। जिससे व्यक्ति गुलाम होना स्वीकार कर लेता है।
अर्थात स्वयँ को दूसरो का शिकार, बकरा बनने देता है। किसी बात का विरोध नहीं करता
एक आज्ञाकारी सेवक की तरह सब कार्य करता है। जब भाई मरदाना जी वापस नहीं लौटे तो
गुरुदेव जी स्वयँ भाई मरदाना की खोज खबर लेने नगर पहुँचे। कुएँ के पास से बच्चों से
उन्हें मालूम हुआ कि एक आगन्तुक को एक महिला अपने यहाँ भोजन कराने ले गई थी।
गुरुदेव वहाँ पहुँचे परन्तु उस महिला ने गुरुदेव के पूछने पर कि उनका व्यक्ति उनके
यहाँ आया था साफ इन्कार कर दिया तथा किवाड़ लगा कर स्वयँ कुएँ पर घड़ा उठाकर पानी लेने
चली गई। वहाँ उसने अन्य तान्त्रिक स्त्रियों को इकट्ठा किया और कहा, एक और आगन्तुक
पहले आगन्तुक की खोज खबर लेने आया हुआ है। हमें उसे भी अपने बस में कर लेना चाहिए
किन्तु वह पहले व्यक्ति की तरह सीधा-सादा नहीं, बहुत तेज चतुर दिखाई देता है इसलिए
हमें अपनी मुखिया से सहायता लेनी चाहिए। यह विचार बनाकर वे सभी गुरुदेव के गले में
तान्त्रिक धागा डालने पहुँची। उन्हे गुरुदेव ने ललकारा और कहा, तुम शरीर रूप में तो
नारियाँ हो परन्तु तुम्हारे कार्य कुतियों जैसे हैं। इस सत्य को सुनकर सबको शर्म का
एहसास हुआ किन्तु क्रोध के मारे उन्होंनें अपनी मुख्य नेता नूरशाह को बुला भेजा ताकि
प्रतिशोध लिया जा सके। इस बीच सभी स्त्रियों ने अपनी सभी प्रकार की तान्त्रिक शक्ति
प्रयोग करने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु गुरुदेव पर वे सभी मन्त्र-तन्त्र असफल
सिद्ध हुए। उनका कोई भी वार काम नहीं आया। तब गुरुदेव ने अपने एक सेवक को कहा, इसी
घर के किवाड़ खोल कर भाई मरदाना को अन्दर खोजो ऐसा ही किया गया भाई जी एक कोने में
शून्य अवस्था में अचेत पड़े हुए थे। भाई जी को बाहर लाया गया। गुरुदेव ने आदेश दिया
कि जल लेकर भाई मरदाना जी के मुहँ पर वाहिगुरू शब्द उच्चारण करते हुए छींटे दो तथा
उन के गले में पड़े हुए धागे को तोड़ डालो। ऐसे ही किया गया भाई जी फिर से सुचेत हो
गए जैसे किसी ने उन्हें गहरी नींद से उठाया हो। गुरुदेव ने भाई जी को रबाब थमाकर कहा,
भाई जी लो और कीर्तन आरम्भ करों यहाँ तो अब हमें शब्द से लड़ाई जीतनी होगी। गुरुदेव
ने शब्द उच्चारण किया:
गुणवंती सहु राविआ निरगुणि कूके काइ ।।
जे गुणवंती थी रहै ता भी सहु रावण जाइ।।
मेरा कंतु रीसालू की धन अवरा रावे जी।। रहाउ ।। राग वडहंस, अंग 557
अर्थ– हे बहिन, जिस जीव स्त्री के यकीन हो जाए कि मेरा पति प्रभु
सारे सुखों का देनहार है, तो वो स्त्री उस प्रभु को छोड़कर औरों को प्रसन्न नहीं करती।
वह जीव स्त्री उस प्रभु का पल्ला पकड़कर उसे प्रसन्न कर लेती है, वो आत्मिक सुख जानती
है। लेकिन जिसके पास यह गुण नहीं है, वो जगह जगह भटकती फिरती है, हाँ अगर उसके
अन्दर भी वो गुण आ जायें, तो वो अपने प्रभु को प्रसन्न कर सकती है। यहाँ की मुख्य
जादूगरनी नूरशाह थी जिसका वास्तविक नाम पद्मा था उस के पिता नरेन्द्र नाथ थे वह
धनपुर के एक सूफी मुसलगान फ़कीर के शिष्य हो गए थे। वह सूफी तांत्रिक सिद्धियों में
कुशल था। नरेन्द्र नाथ पर इस सूफी का इतना प्रभाव पड़ा कि वह और उसकी पुत्री पद्मा
ने इसका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। उस सूफी फ़कीर का नाम नूरशाह था। जब उस सूफी नूरशाह
की मृत्यु हो गई तो उसकी जादूगरी का आडम्बर और उसका डेरा पद्मा ने सम्भाल लिया। इस
तरह लोग पद्मा को ही नूरशाह कहने लग गए थे। जब नूरशाह, पद्मा वहाँ पहुँची उस समय
भाई मरदाना जी रवाब बजा रहे थे तथा गुरुदेव स्वयँ कीर्तन कर रहे थे। पद्मा संगीत
प्रेमी थी। अतः मधुर करुणा प्रिय संगीत और बाणी जो उसके लिए उपदेश रूप में थी सुनकर
स्तब्धः रह गई। वह पत्थर की मूर्ति बनी कीर्तन में खो गई। जब कीर्तन समाप्त हुआ तब
उसे स्वयँ की सुध हुई। उसके सामने एक तेजस्वी एवँ कलाधरी पराक्रमी पुरुष विद्यमान
थे। उसकी तान्त्रिक विद्या के यन्त्र मन्त्र के सभी शस्त्र व्यर्थ हो गए थे। उसकी
सम्पूर्ण मायावी शक्ति छिन्न-भिन्न होकर रह गई थी। जब वह अपने आपको निर्बल अनुभव
करने लगी तो गुरुदेव की शरणागत होकर क्षमा की भीख माँगने लगी और कहने लगी, हमारे
सिर पर पापों के घड़े भरे पड़े है। हमें इन से मुक्त कीजिए। गुरुदेव ने उसे कहा, अपनी
शक्ति का दुरुपयोग तो विनाशता को दावत देनी होती है। यदि अपना भला चाहती हो तो मानव
कल्याण के लिए कार्य करो। जिससे प्रभु प्रसन्न होंगे। तुम तथा तुम्हारे सब साथियों
का भी भला इसी में है कि तान्त्रिक विद्या त्यागकर यहाँ पर हरि यश के लिए सतसँग की
स्थापना करो, जिसमें प्रतिदिन राम-नाम की उपासना हो ? नूरशाह पद्मा ने गुरुदेव की
आज्ञा का पालन करना तुरन्त स्वीकार कर लिया। वह जानती थी कि आखिर बुरे काम का बुरा
नतीजा होता ही है, क्यों न वे समय रहते किसी महापुरुष की छत्र-छाया में यह गलत
मार्ग त्यागकर भला जीवन व्ययीत करें। जिससे उन सबका अन्त अच्छा हो। गुरुदेव ने
सतसँग की स्थापना करवाकर वहाँ पर पद्मा को गुरुमति दृढ़ करवाने के लिए प्रचारक
नियुक्त किया तथा एक धर्मशाला बनवाई।