101. सच्चा सौदा
(जीवन में सच्चा सौदा वही हैं, जिससे आपकी आत्मा आध्यात्मिक
दुनियाँ में शिखर पर पहुँच जाए और आपके साथ जो जुड़े वह भी तर जाए।)
नानक जी की आयु 17 वर्ष की हो चुकी थी। अतः पिता जी ने बहुत सोच
समझकर व्यापार के लिए नानक को 20 रुपये दिये तथा कहा, नानक तुम अब इन रुपयों से एक
छोटा सा व्यापार प्रारम्भ करो। लाभ होने पर मैं तुम्हारी लगातार सहायता करता रहूँगा।
मुझे पूर्ण आशा है एक दिन तुम बहुत बड़े व्यापारी बन सकते हो। बहुत समझा बुझाकर एक
सहायक के रूप में पड़ोसियों का लड़का, जिसका नाम बाला था जो कि नानक जी का बचपन का
मित्र होने के कारण समान आयु का था, उनके साथ में भेज दिया ताकि नानक को अपनी राय
देकर सहायता भी करता रहे। नानक जी को पिता जी ने विशेष आदेश दिया– कि बेटा कहीं धोखा
नहीं खाना, खरा सौदा ही करना, जिस में लाभ निश्चित ही हो। दोनों मित्र तलवण्डी से
पड़ौसी नगर के लिए चल पड़े। रास्ते में एक स्थान पर सड़क के किनारे पर साधुओं का डेरा
दिखाई दिया। नानक जी ने साधुओं के दर्शनों की इच्छा प्रकट की तथा दोनों साथी रास्ता
छोड़ साधुओं के डेरे पहुँच गये। सभी साधु भजन में व्यस्त थे। नानक जी ने उनके महन्त
से बातचीत की– आपके भोजन की क्या व्यवस्था की हुई है ? उत्तर में महन्त ने बताया–
कि कोई दानी भोजन ला देता है तो हम भोजन कर लेते हैं नहीं तो बिना भोजन के हम समय
व्यतीत करते हैं। यह सुनकर नानक जी ने महन्त को 20 रुपये दे दिये तथा कहा– कि आप
इनसे अपने भोजन का प्रबन्ध कर लें। किन्तु महन्त जी ने पूछा– बेटा यह रुपये तुम हम
साधुओं को क्यों देना चाहते हो ? उत्तर में नानक जी ने कहा– मुझे पिता जी ने एक खरा
सौदा करने के लिए भेजा है। मुझे ऐसा लगता है कि इससे अच्छा खरा सौदा और हो ही नहीं
सकता। इसमें लाभ ही लाभ दिखाई देता है। तब महन्त ने कहा– बेटा हम रुपये नहीं लेते
अगर तुम्हारी इच्छा है तो हमें अनाज ला दो हम स्वयँ भोजन तैयार कर लेंगे। यह सुनकर
नानक जी पास के नगर चूड़काणे गये वहाँ से सभी प्रकार की रसद खरीद कर एक बैलगाड़ी में
लदवाकर साधु सन्यासियों को देकर वापस घर को लौटे। तलवण्डी गाँव के निकट पहुँचने पर
आप अपने गाँव की बाहर वाली चौपाल पर बैठ गये तथा बाले को घर भेज दिया। जब पिता कालू
जी को ज्ञात हुआ कि ‘बाला’ लौट आया है, परन्तु नानक का कहीं पता नहीं तो उन्होंने
तुरन्त बाले को बुला कर सारी जानकारी प्राप्त की। उनको जैसे ही यह ज्ञात हुआ कि सभी
रुपये नानक जी ने साधुओं को भोजन कराने पर खर्च कर दिये हैं तो वह क्रोधित हो उठे
और नानक जी की खोज में चल दिये। उन्हीं दिनों बहन नानकी जी विवाह के पश्चात् पहली
बार मायके आई हुई थी। जैसे ही उनको ज्ञात हुआ कि पिता जी क्रोध में हैं तो वह पिता
जी के पीछे चल दी। खोजते-खोजते नानक जी पिता कल्याण चंद जी को सूखे तालाब के किनारे
की चौपाल पर बैठे मिल गये। तब क्या था ! पिता जी ने नानक जी को आ दबोचा तथा पूछा–
रुपये कहाँ हैं ? इस पर नानक जी शांत चित्त बैठे रहे। कोई उत्तर न पाकर कालू जी ने
क्रोध में आकर नानक जी के गाल पर जोर से एक चपत जड़ दी तथा फटकारने लगे। जैसे ही
उन्होंने दोबारा चपत लगाने के लिए हाथ ऊपर उठाया तभी नानकी जी ने उनका हाथ पकड़ लिया
तथा स्वयँ अपने प्यारे भइया और पिता जी के बीच दीवार बनकर खड़ी हो गई। पिता जी का
क्रोध शाँत होने को नहीं आ रहा था, किन्तु करते भी क्या ? जो होना था वह तो हो चुका
था। अतः बेटी नानकी जी के समझाने-बुझाने पर नानक जी को साथ लेकर घर लौट आए। यह घटना
जँगल की आग की तरह समस्त तलवण्डी नगर में फैल गई कि मेहता कालू जी ने नानक की पिटाई
की है। जैसे ही राय बुलार को यह घटना मालूम हुई उन्होंने मेहता कालू जी को बुला भेजा।
जब पिता पुत्र दोनों राय बुलार जी के सम्मुख उपस्थित हुए। तो राय जी ने नानक जी पर
प्रश्न किया– बेटा तुमने सभी रुपये फ़कीरों पर क्यों खर्च कर दिये ? उत्तर में नानक
जी कहने लगे– कि मुझे जाते समय पिता जी ने विशेष आदेश दिया था कि देखना बेटा खरा
सौदा ही करना। इसलिए मैंने अपनी ओर से बहुत सोच-समझ कर खरा सौदा ही किया है। इस में
लाभ ही लाभ है। यह उत्तर सुन कर राय बुलार ने मेहता कालू जी से कहा– देखो कालू मैं
पहले भी कई बार कह चुका हूँ कि नानक जी से भूलकर भी अभद्र व्यवहार नहीं करना। परन्तु
एक तुम हो कि बात को समझते ही नहीं तथा अपनी मनमानी करते हो। आज से एक बात गाँठ से
बांध लो कि नानक जी जो भी कार्य करें, जैसा वह चाहें उसमें बाध मत डालना। अगर तेरे
को कोई हानि होती है तो मैं उसकी क्षति पूर्ति कर दिया करूँगा। इस घटना के पश्चात्
नानक जी को पिता कालू जी ने फिर से समझा-बुझा कर कहा– बेटा मेरे शब्दों का कदाचित्
अर्थ यह नहीं था कि तुम सभी रुपये एक ही बार में परमार्थ के लिए लगा दो। मैं तो
चाहता था कि तुम आत्म निर्भर बनो, ताकि तेरा विवाह भी किया जा सके, क्योंकि तेरी
सगाई हुए दो वर्ष होने को हैं। इस प्रकार समझा-बुझा कर पिता जी ने फिर से नानक जी
को व्यापार के लिए राज़ी कर लिया तथा उन को पंसारी की एक दुकान तलवण्डी में चलाने के
लिए तैयार कर लिया। वास्तव में नानक जी भी चाहते थे कि वह स्वयँ उपजीविका हेतु अपने
हाथों से परीश्रम करे तथा स्वावलम्बी बनें। अतः उन्होंने एक दुकानदारी प्रारम्भ कर
दी। कुछ दिनों मे ही नानक जी के स्नेह पूर्ण व्यवहार से दुकान चल निकली जिससे नानक
जी व्यस्त रहने लगे।