98. राजा रतन राय
(अगर किसी महापुरूष, गुरू या परमात्मा के किसी भक्त की अमृतमयी
बाणी के कारण उनसे लगाव हो जाए तो चाहे हम उनसे कितनी भी दूर हों, परन्तु हमारा मन
हमेशा उनके चरणों में ही रहता है।)
त्रिपुरा का युवक राजकुमार एक दिन प्रातःकाल दर्पण के समक्ष केशों
में कँघा कर रहा था कि उसकी दुष्टि अपने माथे के ऊपर भाग में एक दागनुमा निशान पर
पड़ी। यह दाग कोई अक्षर सा प्रतीत हो रहा था। युवराज ने कौतुलवश अपनी माता से इस
अक्षरनुमा निशान के विषय में पूछा। उत्तर में महारानी स्वर्णमती ने कहा– कि बेटा इस
निशान में तुम्हारे जन्म का रहस्य छिपा हुआ है। यह ज्ञात होते ही युवराज के दिल में
जिज्ञासा उत्पन्न हुई। और वह उत्सुकता में पूछने लगा– माता जी मुझे पुरा वृतान्त
सुनाओ कि यह दाग मेरे जन्म से क्या संबंध रखता है। इस पर माता स्वर्णमती ने कहा– कि
पँजाब से श्री गुरू नानक देव जी के नौवें उत्तराधिकारी श्री गुरू तेग बहादर साहिब
जी राजा रामसिँह के साथा आसाम में मुगल सम्राट का झगड़ा निपटाने आये थे। वह स्वयँ
गुरू नानक देव जी के उपदेशों व सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार कर रहे थे कि उनकी
भेंट तेरे पिता जी के साथ गोरीनगर में हुई। तेरे पिता पहले से ही गुरू नानक
मतावलम्बी थे जिस कारण उन्होंने श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की बहुत सेवा की ओर
उनका बहुत ही सम्मान किया ओर उनके अनुयायी हो गये। एक दिन तेरे पिता जी ने गुरू जी
से कहा कि मेरे घर में पुत्र की कमी है। अतः उन्हें आप इस दात से निवाजें। गुरू जी
उनकी सेवा भाव से बहुत सन्तुष्ट थे। अतः उन्होंने अपने हाथ की अँगुठी उतारकर तेरे
पिता जी को दी। जिस पर पँजाबी भाषा में एक ओंकार का अक्षर स्वर्णकार ने बनाया हुआ
था और उन्होंने कहा कि कुछ समय पश्चात आपकी यह कामना भी पूरी होगी। आपके यहाँ एक
पुत्र जन्म लेगा जिसके मस्तिष्क के किनारे यह अक्षर बना हुआ होगा। ऐसा ही हुआ। तेरे
जन्म पर हमने जब तुझे देखा तो तेरे मस्तिष्क पर यह निशान अँकित था। यह वृतान्त सुनते
ही युवराज के दिल में श्रद्धा की लहर उठी। वह कहने लगा– मैं उनके दर्शन करने पँजाब
जाना चाहता हूँ। इस पर महारानी स्वर्णमती ने कहा– वह अब नहीं हैं क्योंकि सम्राट
औरँगजेब ने उन्हें धर्मान्धता के जुनून में शहीद करवा दिया है। किन्तु अब उनके
पुत्र जो तेरी आयु के लगभग हैं और जिनका नाम श्री गुरू गोबिन्द राय (सिंघ) जी है।
वह उनकी गद्दी पर विराजमान हैं। यदि तुम चाहो तो उनके दर्शनों को पँजाब चलो तो मुझे
बहुत प्रसन्नता होगी और मैं भी तेरे साथ चलूँगी। गुरू दर्शनों की बात निश्चित करके
युवराज रतन राय तैयारी में व्यस्त हो गया। अब उसके समक्ष समस्या यह उत्पन्न हुई कि
गुरू जी को कौन कौन सी वस्तुएँ भेंट की जाएँ जो अदभुत तथा अनमोल हों। उसे ज्ञात हुआ
कि गुरू जी युद्ध सामाग्री पर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं तो उसने कुछ विशेष कारीगरों
को बुलाकर शस्त्र निर्माण का आदेश दिया। इस प्रकार एक नवीन शस्त्र की उत्पति हुई।
जो पाँच प्रकार के कार्य कर सकता था अर्थात वह समय-समय पर नये रूपों में परिवर्तित
किया जा सकता था। उन्होंने इसे "पंच कला शस्त्र" का नाम दिया। इस प्रकार उसने एक
विशेष हाथी मँगवाया जो छोटे कद का था परन्तु था बहुत गुणवान, उसको विशेष प्रशिक्षण
देकर तैयार किया गया था और वह बहुत आज्ञाकारी होकर कार्यरत रहता था। इसके अतिरिक्त
एक चौकी थी जिस पर पुतलियाँ स्वयँ चौपड़ खेलती थीं। त्रिपुरा से लम्बी यात्रा करता
हुआ यह राजकुमार अपनी माता स्वर्णमती के साथ पँजाब पहुँचा। गुरू जी ने उसका भव्य
स्वागत किया और रतनराय को गले से लगाया। रतनराय ने सभी उपहार गुरू जी को दे दिये।
गुरू जी ने पँचकला शस्त्र और हाथी के लिए बहुत प्रसन्नता व्यक्त की। हाथी के गुणों
को देखते हुए गुरू जी ने उसका नाम प्रसादी हाथी रखा। रतनराय आध्यात्मिक प्रवृति का
स्वामी था। अतः उसके साथ गुरू जी की बहुत सी विचार गोष्टियाँ हुई। जब वे सँश्यनिवृत
हो गये तो उसने गुरू जी से गुरू दीक्षा प्राप्त की। राजकुमार गुरू जी के पास आकर
बहुत सन्तुष्टि प्राप्त करने लगा। जैसा उसने सोचा था उससे भी कहीं अधिक पवित्र
वातावरण पाया। उसका गुरू जी के पास मन रम गया। एक तो गुरू जी उसकी आयु के थे। दूसरा
गुरू जी के यहाँ सभी राजसी ठाठ-बाठ था। गुरू जी उसे शिकार पर वनों मे ले जाते। वीर
रस की बातें सुनाते जो उसे बहुत अच्छी लगती। वास्तव में गुरू जी के दो स्वरूप उसे
देखने को मिलते, पहला संत और दूसरा सिपाही। यही कारण था कि वह गुरू जी के
व्यक्तित्व पर मँत्रमुग्ध हो गया और वापस जाना भूल गया। इसलिए कई महीने गुरू जी के
अतिथि के रूप में ठहरा रहा। उसकी माता तथा उसके मँत्रियों ने जब वापस लौटने का
आग्रह किया तो वह विवशता में गुरू जी से आज्ञा लेकर लौट गया किन्तु उसका मन गुरू
चरणों में ही रहा।