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95. भाई बिधिचन्द जी के करतब

(गुरू के सेवक पर अगर गुरू और परमात्मा की कृपा हो जाए तो वह सेवक किसी भी कार्य को दिमागी तौर पर और शारीरिक तौर पर पूरी तरह से और सफलता के साथ सम्पूर्ण कर सकता है।)

श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के दर्शनों को अफगानिस्तान के नगर काबुल से संगत काफिले के रूप में आई तो उनमें दो अच्छी नस्ल के घोड़े गुरू जी को भेंट करने के लिए लाई। इन घोड़ों का नाम गुलबाग व दिलबाग था। जब यह काफिला लाहौर नगर से गुजर रहा था तो इन घोड़ों पर लाहौर के प्रशाकर अनाइत-उल्ल की दृष्टि पड़ गईं। अनाइत-उल्ल ने वह घोड़े खरीदने की इच्छा प्रकट की किन्तु भाई करोड़ीमल जी ने उन्हें यह कहकर स्पष्ट इन्कार कर दिया कि ये घोड़े हमने अपने गुरू जी को भेंट करने हैं। अतः बेचे नहीं जा सकते। इस पर प्रशासक अनाइत-उल्ल ने वे घोड़े बलपूर्वक छीन लिए और शाही अस्तबल में बाँध लिए। जब काबुल नगर की संगत गुरू जी के सम्मुख उपस्थित हुई तो संगत ने अपनी व्यथा सुनाई। उत्तर में गुरू जी ने उन्हें साँत्वना दी और कहा– वे घोड़े हम युक्ति से प्राप्त कर लेंगे आप धैर्य रखें। तभी गुरू जी ने संगत से और प्रमुख सिक्खों को सम्बोधित करके कहा कि लाहौर से घोड़े वापिस लाने की अदभुत सेवा कौन करना चाहेगा। तब भाई बिधिचन्द जी तुरन्त आगे आये और यह सेवा ले ली। गुरू जी की आशीष प्राप्त करके भाई बिधिचन्द जी लाहौर नगर पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपनी वेशभूषा एक घास बेचने वाले व्यक्ति वाली बना ली और कुछ बढ़िया धास की गाँठ बनाकर शाही किले के समक्ष धासियों की कतार में बैठ गये। अस्तबल का दरोगा जब धास खरीदने के विचार से जब भाई बिधिचन्द की घास जाँचने लगा और उसने मूल्य पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि बिधिचन्द की घास अच्छी है और मूल्य भी उचित है। अतः घास खरीद ली गई और घासिये से कहा गया कि वह घास उठाकर अस्तबल में घोड़ो का डाल दे। यह क्रम कई दिन तक चलता रहा। इस बीच भाई बिधिचन्द जी ने उन दो घोड़ों की पहचान कर ली और उनकी सेवा करने लगा। दरोगा ने प्रसन्न होकर उनको घोड़ों की देखभाल के लिए नौकर रख लिया। भाई बिधिचन्द जी ने निर्धारित लक्ष्य के अनुसार अपना वेतन वहाँ के सन्तरियों पर खर्च करना प्रारम्भ कर दिया। जब सभी का वह विश्वास प्राप्त कर चुके थे तो उन्होंने उनमें से एक घोड़े पर काठी डालकर उसे तैयार करके किले की दीवार फाँदकर रावी नदी के पानी में छलाँग लगा दी। उन दिनों रावी नदी किले की दीवार से टकराकर बहती थी। घोड़ा पानी से सुरक्षित बाहर आ गया। भाई बिधिचन्द जी घोड़ा गुरू जी चरणों में श्री अमृतसर साहिब जी में लेकर पहुँचे।सभी भाई बिधिचन्द जी की इस सफलता पर अति प्रसन्न हुए किन्तु घोड़ा बीमार रहने लगा। इस पर गुरू जी ने भाई बिधिचन्द जी से कहा– आपका कार्य अभी अधूरा है क्योंकि यह घोड़ा अपने साथी के बिना अस्वस्थ रहता है। अतः आप पुनः कष्ट करें और दूसरा घोड़ा भी लेकर आयें।

बिधिचन्द जी आज्ञा अनुसार पुनः लाहौर पहुँचे। इस बार उन्होंने ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता के रूप में शाही किले के सामने अपनी दुकान सजा ली और लगे लोगों का भविष्य पढ़ने। एक दिन उनके पास दरोगा भी आ पहुंचा। उसने भी अपना हाथ दिखाया, बस फिर क्या था,  भाई बिधिचन्द जी उसे बतलाने लगे– तुम्हारी कोई चोरी हुई है, शायद कोई घरेलु पशु ? यह सुनना था कि दरोगा को विश्वास हो गया, वह कहने लगा– मैं आपकों मुँह माँगा धन दूँगा आप मुझे इस बारे में अधिक जानकारी विस्तार से उपलब्ध करवा दें। इस पर ज्योतिष रूप में भाई बिधिचन्द कहने लगे– "अधिक जानकारी" प्राप्त करने के लिए उसे वह स्थान और वहाँ के वातावरण का अध्ययन करना होगा तभी वह ठीक से चोर के विषय में ज्योतिष के आँकड़ों की गणना प्राप्त कर सकता है। दरोगा तुरन्त उनको अस्सतबल में ले आया। ज्योतिष रूप में बिधिचन्द जी ने सभी स्थानों को ध्यान से देखा और सूँघा, फिर कहा– यहाँ उसके साथ का एक घोड़ा और भी है शायद यहीं है। उन्होंने दूसरे घोड़े को पहचान कर बताया और कहा– आपके घोड़े की चोरी अर्धरात्रि को हुई है। अतः उसी परिस्थितियों में अनुमान लगाये जा सकते हैं। इस प्रकार दरोगा उसकी चाल में फँस गया, वह अर्धरात्रि की प्रतीक्षा करने लगे। अर्धरात्रि के समय बिधिचन्द जी ने बहुत ही सहज अभिनय करते हुए कहा– आप सब उसी प्रकार का वातावरण तैयार करें, मैं ठीक से अनुभव लगाता हूँ, जब सब अपने अपने कमरों में सो गये। तो भाई बिधिचन्द जी ने दरोगा से कहा– कृप्या इस घोड़े पर काठी लगवाएँ, मैं इस पर बैठकर और इसे घुमा फिराकर अन्तिम निर्णय पर जल्दी ही पहुँच जाऊँगा। ऐसा ही किया गया, तभी भाई बिधिचन्द जी ने घोड़े की सवारी की और उसे खूब घुमाया फिराया। अकस्मात वह दरोगा को बताने लगे– कि आपका घसिया नौकर घोड़े को श्री अमृतसर साहिब जी श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के पास ले गया है और अब वही घासिया दोबारा ज्योतिष के रूप में इसे वहीं ले जा रहा है और उन्होंने किले की दीवार फाँदकर रावी नदी में घोड़े सहित छलाँग लगा दी। वह इस युक्ति से दूसरा घोड़ा भी गुरू चरणों में लाने में सफल हो गये। घोड़े तो श्री अमृतसर साहिब जी पहुँच गये परन्तु भाई बिधिचन्द जी ने गुरू हरगोबिन्द साहिब जी को सर्तक किया कि सम्भव है कि हमारे ऊपर मुगल सेना आक्रमण कर दे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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