93. कुमारी कौलां गुरू शरण में
(गुरू की शरण में जाने से जीवन ही सँवर जाता है। जिस प्रकार से
लोहे के जहाज में लकड़ी लगी होने से लोहा भी तैरने लग जाता है, वैसे ही गुरू के साथ
उसके शिष्य भी तर जाते हैं।)
श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी से विदा लेकर सम्राट लाहौर पहुँच
तो गया किन्तु उसका मन नहीं लगा वह गुरू जी से स्नेह करने लग गया था। अतः उसने
समीप्ता प्राप्त करने के लिए अपने निकटवर्ती उपमँत्री वजीर खान को श्री अमृतसर
साहिब भेजा कि गुरू जी को कुछ दिन के लिए लाहौर ले आयें। उनके द्वारा विनती लिख भेजी
कि मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया है, कृप्या कश्मीर जाने से पहले एक बार पुनः दर्शन देकर
कृतार्थ करें। गुरू जी उसकी विनती सहर्ष स्वीकार करके लाहौर पहुँच गये। वहां
उन्होंने एक पँथ दो काज वाली कहावत अनुसार गुरमति का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। आपको
भुँजग नामक स्थान पर ठहराया गया। इस क्षेत्र में गुरू जी नित्यप्रति अपने कार्यक्रम
चलाने लगे। दूरदराज के निवासी आपके प्रवचन सुनने आने लगे। आपकी महिमा सुनकर स्थानीय
काजी की लड़की जिसका नाम कौलां था, वह आपके सतसँग में आने लगी। यह युवती बड़ी धार्मिक
प्रवृति की थी। वह साँईं मीयाँ मीर की शिष्य थी और उन पर उसे बहुत आस्था थी। उसने
प्रभु स्मरण करने की दीक्षा प्राप्त की थी। जिससे वह बहुत निर्भय होकर आनन्दमय जीवन
जी रही थी। युवती कौलां श्री गुरू हरगोबिन्द जी के भव्य दर्शन तथा प्रवचनों से इस
कदर मुग्ध हुई कि प्रायः उनके सतसँग में भाग लेने पहुँच जाती, इस प्रकार वह गुरू जी
की परम शिष्य बन गई। जब यह बात उसके पिता काजी को मालूम हुई तो उसने अपनी पुत्री पर
प्रतिबन्ध लगा दिया और उसे सर्तक किया कि यदि वह गुरू जी के आश्रम में उनके प्रवचन
सुनने जाएगी तो कड़ा दण्ड दिया जायेगा। इस पर बेटी कौलां जी ने विरोध किया और कहा–
अब्बा हजुर, पीरों-अवतारों के प्रवचन सुनने में क्या बुराई है ? काजी का उत्तर था–
यह काफिर हैं और काफिरों के साथ मेल-जोल रखना पाप है।
किन्तु बेटी ने बगावत कर दी और कहा– अब्बा हजूर मुझे उनके पास
जाने से कोई नहीं रोक सकता। बेटी का यह दो टूक उत्तर सुनकर काजी की आखों में खून
उतर आया। वह दाँत भींचकर बोला– बेटी, अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो इसका अँजाम
बहुत बुरा होगा ? कौलां ने पूछा– क्या मतलब ? काजी ने कहा– मतलब यही कि यदि तुमने
दोबारा उस फकीर के पास जाने की जुर्रत की तो तुम्हारा कत्ल करवा दिया जायेगा। बाप
तो धमकी देकर चला गया किन्तु बेटी कौलां का दिल बैठ गया। भला गुरू जी के दर्शन किए
बिना उसका दिल कैसे मानता। अब क्या करे ? पिता की धमकी निरर्थक नहीं थी। कौलां जानती
थी कि यदि उसने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया और गुरू जी के सतसँग में जाने का
प्रयास किया तो उसके पिता अपनी धमकी को पूरा करने में जरा भी देर नहीं लगायेंगे।
समस्या का कोई समाधान न पाकर कौलां ने साईं मीयां मीर जी की शरण ली। और उन्हें अपने
पिता की धमकी से अवगत कराया। साईं जी उन लोगों में से थे तो शरणागत की अवश्य ही
सहायता करते थे। जब उन्होंने कौलां की दर्द भरी कहानी सुनी और गुरू जी के प्रति उसका
अथाह स्नेह देखा तो साईं जी द्रवित हो उठे। वह तत्काल श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी
से मिले और कौलां की व्यथा कह सुनाई। उन्होंने सुझाव दिया कि कौलां की सुरक्षा करना
आपका कर्तव्य है। यदि जरा सी उसकी हिफाजत में चूक हो गई तो उसका पिता अपनी बेटी की
हत्या करवा देगा। वह आपके दर्शनों के बिना नहीं रह सकती। अतः अपने शिष्यों की रक्षा
करना आपका ही कर्तव्य बनता है। श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी धर्मान्घता के सख्त
विरोधी थे। काजी का यह साम्प्रदायिक हठ उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने साईं मीयां
मीर जी का अनुरोध स्वीकार किया और कौलां जी को अपने पास बुला लिया। गुरू जी की
पुकार पर कौलां दोड़ी चली आई। गुरू जी ने उसे श्री अमृतसर साहिब भिजवा दिया और स्वयँ
कुछ दिनों के अन्तराल में अपने कार्यक्रम के अनुसार भुजँग क्षेत्र से कूच करके श्री
अमृतसर साहिब जी लौट आये। श्री अमृतसर साहिब जी में कौलां जी को एक अलग से निवास
स्थान दिया गया। कौलां जी गुरू जी की इस सहायता के लिए आजीवन कृतज्ञ रहीं। अब वह
अभय होकर गुरू जी के दर्शन करती थीं तथा उनके प्रवचन सुनकर उपकृत होती थीं। कौलां
जी की यह श्रद्धा रँग लाई, जहां उनका निवास स्थान था, वहाँ उनकी स्मृति में माई कौलां
के नाम से कौलसर सरोवर का निर्माण जिवित अवस्था में ही कर दिया गया था। आज भी लोग
उनके मार्मिक प्रसँग एक-दूसरे को सुनाकर उनके त्याग को याद करते हैं। आपका देहान्त
करतारपुर नगर में हुआ।