91. भाई भिखारी जी
(ब्रहमज्ञानी के लिए दुख और सुख एक समान होते हैं। जिस प्रकार
परमात्मा सबको एक समान मानता है, ब्रहमज्ञानी भी सभी को एक समान ही मानते हैं।)
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के दरबार में एक दिन एक गुरमुख नाम
का श्रद्धालू उपस्थित हुआ और वह विनती करने लगा। हे गुरूदेव ! मैं आप जी द्वारा
रचित रचना सुखमनी साहिब नित्यप्रति पढ़ता हूं मुझे इस रचना के पढ़ने पर बहुत आनँद
प्राप्त होता है, परन्तु मेरे दिल में एक अभिलाषा ने जन्म लिया है कि मैं उस विशेष
व्यक्ति के दर्शन करूँ जिसकी महिमा आपने ब्रहमज्ञानी के रूप में की है। गुरू जी इस
सिक्ख पर प्रसन्न हुए और कहने लगे आपकी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण की जाएगी। उन्होंने
एक पता बताया और कहा कि आप जिला जेहलम (पश्चिमी पँजाब) के भाई भिखारी नामक सिक्ख के
घर चले जाएँ। वहाँ आपके मन की मँशा पूर्ण होगी। गुरमुख सिंघ जी खोज करते-करते भाई
भिखारी जी के घर पहुँचे। उस समय उनके यहाँ उनके लड़के के शुभ विवाह की बड़ी धूमधाम से
तैयारियाँ हो रही थीं। आप जी भिखारी जी के कक्ष में उनको मिलने पहुँचे। किन्तु भाई
जी एक विशेष कपड़े की सिलाई में व्यस्त थे। भाई भिखारी जी ने आगन्तुक का हार्दिक
स्वागत किया और अपने पास बड़े प्रेम से बैठा लिया। गुरमुख सिंघ जी को बड़ा आश्चर्य
हुआ और वह पूछ बैठेः कि आप यह क्या सिल रहे हैं ? जो इस शुभ समय में अति आवश्यक है
? उत्तर में भिखारी जी ने कहाः कि आप सब जान जाएँगे, जल्दी ही इस कपड़े की आवश्यकता
पड़ने वाली है। इस वार्तालाप के पश्चात भाई भिखारी जी के सुपुत्र की बारात समधी के
यहाँ गई और बहुत धूम-धाम से विवाह सम्पन्न कर, बहु को लेकर लौट आई। जैसे ही लोग
बधाईयाँ देने के लिए इक्ट्ठे हुए तो उसी समय गाँव पर डाकूओं ने हमला कर दिया। गाँव
के लोग इक्ट्ठे होकर डाकूओं से लोहा लेने लगे, इन योद्धाओं में दूल्हा भी डाकूओं को
सामना करने पहुँच गया। अकस्मात मुकाबला करते समय डाकूओं की गोली दूल्हे को लगी, वह
वहीं वीरगति पा गया। इस दुखतः घटना से सारे घर पर शोक छा गया, किन्तु भाई भिखारी जी
के चेहरे पर निराशा का कोई चिन्ह तक न था। उन्होंने बड़े सहज भाव से वहीं अपने हाथों
से सिला हुआ कपड़ा निकाला और उसको बेटे के कफन रूप में प्रयोग किया और बहुत घैर्य से
अपने हाथों बेटे का अन्तिम सँस्कार कर दिया। तब आगन्तुक गुरमुख सिंघ जी ने पुछाः जब
आपको मालूम था कि आपके बेटे ने मर जाना है, तो आपने उसका विवाह ही क्यों रचा ? इसके
उत्तर में भाई भिखारी जी ने कहाः यह विवाह मेरे इस बेटे के सँयोग में था। इसलिए इस
कन्या के वरण हेतु ही उसने मेरे घर जन्म लिया था, क्योंकि इसके भूतपूर्व जन्म में
इसकी अभिलाषा इस कन्या को प्राप्त करने की थी परन्तु उस समय यह सँन्यासी, योग आश्रम
में था, इसलिए ऐसा सम्भव नहीं था। तभी इसकी भक्ति सम्पूर्ण हो गई परन्तु इसे मोक्ष
प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि इसके मन में एक तृष्णा रह गई थी कि मैं इस लड़की को
प्राप्त करूँ। इस सँक्षिप्त उत्तर से आगन्तुक श्रद्धालु का सँशय निवृत नहीं हुआ।
उसने पुनः भाई जी से विनती कीः कृप्या मुझे विस्तारपूर्वक सुनाएँ।
इस पर भाई भिखारी जी ने यह वृतान्त इस प्रकार सुनायाः मेरे इस बेटे ने अपने
भूतपूर्व जन्म में एक कुलीन परिवार में जन्म लिया था। इसे किसी कारण युवावस्था में
सँसार से विराग हो गया। अतः इसने सँन्यास ले लिया ओर एक कुटिया बनाकर वनों में अपनी
अराधना करने लगा परन्तु जीवन जीने के लिए यह कभी-कभी गाँव-देहातों में आता और भिक्षा
माँगकर पेट की आग बुझा लेता। कुछ दिन ऐसे जी व्यतीत हो गए परन्तु एक दिन इस युवक को
कहीं से भी भिक्षा नहीं मिली एक स्वस्थ युवक को कोई सहज में भिक्षा न देता। अन्त
में एक घर पर यह पहुँचा, वहाँ एक नवयुवती ने बड़े सत्कार से इसे भोजन कराया। वास्तव
में वह युवती इस युवक के तेजस्वी मुखमण्डल से बहुत प्रभावित हुई थी, क्योंकि इस छोटी
सी आयु में इस युवक ने बहुत अधिक प्राप्तियाँ कर ली थीं। अतः इसका चेहरा किसी
अज्ञात तेज से धहकने लगा था। इसी प्रकार दिन व्यतीत होने लगे। जब कभी इस युवक को कहीं
से भिक्षा न प्राप्त होती तो वह इसी नवयुवती के यहाँ चला जाता और वह युवती बड़े
स्नेहपूर्वक इस सँन्यासी युवक को भोजन कराती थी और सेवा करती। भोजन उपरान्त यह
तपस्वी वापिस अपनी कुटिया में लौट जाता। यह क्रम बहुत दिन चलता रहा। इसी बीच इन दोनों
को परस्पर कुछ लगाव हो गया। यह तपस्वी चाहने पर भी अपने को इस बन्धन से मुक्त नही
कर पाया। बस इसी लगाव ने एक अभिलाषा को जन्म दिया कि काश हम गृहस्थी होते। तभी इस
युवक तपस्वी की भक्ति सम्पूर्ण हो गई तथा इसने अपना शरीर त्याग दिया परन्तु मन में
बसी अभिलाषा ने इसे पूर्नजन्म लेने पर विवश किया और अब इसने मेरे बेटे के रूप में
उस सँन्यासी ने उसी युवती का वरण किया है जो इसको भोजन कराती थी। वास्तव में इसकी
भक्ति सम्पूर्ण थी केवल पुनः जन्म एक छोटी सी तृष्णा के कारण हुआ था, जो वह आज पूरी
हुई थी। इस प्रकार वह तपस्वी युवक मेरे बेटे के रूप में बैकुण्ठ को जा रहा है।
इसलिए मुझे किसी प्रकार का शोक हो ही नहीं सकता। अतः मैं हर प्रकार से सन्तुष्ट
हूँ। यह वृतान्त सुनकर उस श्रद्धालू गुरूमुख सिंघ की शँका निवृत हो गई और वह जान गया
कि ब्रहमज्ञानी हर समय प्रभु रँग में रँगे रहते हैं। उनको कोई सुख-दुख नहीं होता।
उनके लिए मिटटी और सोना एक समान हैं और इनका शत्रु अथवा मित्र कोई नहीं होता। अतः
यह लोग गृहस्थ में रहते हुए भी मन के पक्के वैरागी होते हैं और प्रभु लीला में ही
इनकी भी खुशी होती है। यह प्रभु के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते।