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89. सम्राट हमीद, कारू

(धन को बचाकर रखने से क्या लाभ है, वह साथ में तो जाता ही नहीं है, इसलिए धन को किसी अच्छे कार्य में लगाना ही हितकर होता है।)

श्री गुरू नानक देव जी मदीना नगर से ताबुक नगर होते हुए मिश्र देश की राजधनी काहिरा पहुँचे जो कि नील नदी के किनारे बसा हुआ है। उन दिनों वहाँ पर सम्राट हमीद का राज्य था, जिसका मुख्य लक्ष्य जनता का शोषण करके धन एकत्र करना था। वास्तव में राष्ट्रीय आय में से जनता की भलाई अथवा नागरिक सुख-सुविधाओं के लिए सम्राट हमीद कुछ भी खर्च नहीं करता था। जनसाधारण का जीवन कष्टों से भरा था, इसलिए जनता ने सम्राट को ‘कंजूस’ बादशाह कहना शुरू कर दिया। ‘कंजूस’ को मिश्री भाषा में कारू कहते हैं। इस प्रकार बादशाह का नाम हमीद कारू पड़ चुका था। परन्तु वह दरवेशों, फ़कीरों इत्यादि का सम्मान करता था। गुरुदेव जब उस नगर में पहुँचे तो सरकारी अधिकारियों ने अपने देशवासियों की व्यथा कह सुनाई और गुरुदेव से अनुरोध किया कि वे किसी युक्ति से बादशाह को धन के लोभ से मुक्ति दिलाएँ। ताकि प्रशासन की तरफ से जनता की भलाई के कार्यों में धन खर्च किया जा सके। पीड़ित जनता की कठिनाइयों को ध्यान में रखकर गुरुदेव ने अधिकारियों को अश्वासन दिया कि किसी विशेष तर्क से जनता की सेवा के लिए बादशाह को प्रेरणा देंगे। जनता तथा अधिकारियों को विश्वास में लेकर गुरुदेव, राजमहल तक जा पहुँचे तथा वहाँ कीर्तन आरम्भ कर दिया– 

चला चला जे करी जाणा चलणहारु ।।
जो आइआ सो चलसी अमरु सु गुरु करतारु ।।
भी सचा सालाहणा सचै थानि पिआरु ।।
दर घर महला सोहणे पके कोट हजार ।।
हसती घोड़े पाखरे लसकर लख अपार ।।
किसही नालि न चलिआ खपि खपि मुए असार ।।
सुइना रुपा संचीऐ मालु जालु जंजालु ।।
सभ जग महि दोही फेरीऐ बिनु नावै सिरि कालु ।।
राग सिरी राग, अंग 63 

कीर्तन की मधुर ध्वनि सुनकर उसके आकर्षण से बादशाह तथा बेगम दासियों सहित गुरुदेव के समक्ष उपस्थित इहुए। उन्होंने गुरुदेव के प्रवचन सुने। गुरुदेव ने कहा, यह दृष्टिमान समस्त विश्व मिथ्या है क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यहाँ कोई स्थिर नहीं है, सभी को एक न एक दिन जाना ही है। इसलिए सँसार रूपी सराय से विदा होने के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहना चाहिए। अतः अपने पास शुभ गुणों का भण्डार इकट्ठा करना चाहिए जो कि परलोक में भी सहायक हो सके। इस उपदेश को सुनकर बादशाह हमीद ने विचार की कि फ़कीर की बात में तथ्य है। तथा गुरुदेव की शरण में आकर कहने लगा– हे फ़कीर साईं ! आप कोई सेवा का अवसर प्रदान करें। इस पर गुरुदेव ने उसको एक सूई दी और कहा– आप इसको हमारी अमानत जानकर रख लें, हम इसको आपसे अगले जहान में ले लेंगे। बादशाह ने बिना विचारे किये सूई रख ली। और अपनी बेगम को देकर कहा– लो यह सूई सम्भालो, यह सूई नानक शाह फ़कीर की अमानत है, वे हमसे इसे अगले जहान में वापस ले लेंगे। यह सुनकर बुद्धिमान बेगम बोली– आप भी कैसी बातें करते हैं, अगले जहान में तो यह शरीर भी नहीं जाता, यह सूई क्या साथ जाएगी ? इस तर्क को सुनकर बादशाह तुरन्त लौट आया। और गुरुदेव को सूई लौटा कर कहने लगा– कृपया इस "सूई" को आप वापिस ले लें, मैं इसे साथ नहीं ले जा सकता क्योंकि मेरा शरीर भी यहीं छूट जाएगा। बादशाह का उत्तर सुनकर गुरुदेव बोले– जब इस "छोटी सी सूई" को तुम साथ नहीं ले जा सकते तो इतना विशाल धन का भण्डार जो सँचित किया है उसे वहाँ कैसे ले जाओगे ? यह बात सुनते ही वह गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा याचना करने लगा। गुरुदेव ने उसे उपदेश देते हुए कहा– नेक बादशाह वही है जो अपनी प्रजा की भलाई के लिए धन खर्च करे। इस तरह के नेक कार्य ही आपके शुभ गुण बनकर आपके साथ जाएँगे, जो कि प्रजा की दुआएँ बनकर दरगाह में तुम्हारी सहायता करेंगे। बादशाह हमीद ने गुरुदेव की शिक्षा को धारण करते हुए समस्त खज़ाने को प्रजा के लिए विकास के कार्यों पर तुरन्त खर्च करने की स्वकृति दे दी। वहाँ से गुरुदेव येरूशलम के लिए प्रस्थान कर गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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