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86. पण्डों को शिक्षा

(अगर आपने इस लोक में किसी को कोई वस्तु दी है तो वह आपको परलोक में किसी प्रकार से भी नहीं मिल सकती।)

श्री गुरू नानक देव जी कुरूक्षेत्र के सूर्यग्रहण मेले से लोटते हुए पेहेवा के पवित्र सरोवर पर पहुँचे वहाँ पर पण्डों ने दँत-कथाएँ प्रसिद्ध कर रखी थी कि वहाँ पर एक महिला के कान की बाली सरोवर में स्नान करते समय गिर गई तो उसने यह मानकर मन को समझा लिया कि वह बाली उसने दान दक्षिणा में दे दी तभी वह बाली विकसित होकर रथ के पहीए जैसी हो गई। अतः दान दिया जाना चाहिए जिससे आप को यहाँ मात लोक में दिया दान कई सो गुना बढ़कर स्वर्ग लोक में मिलेगा। यह सुनकर गुरुदेव ने कहा– ठीक है: फिर तो पाप उससे भी कई गुना फलना फूलना चाहिए। अतः हमे पहले अपने-अपने हृदय में झाँककर देखना चाहिए कि हमने कितने पाप किये हैं। यदि वह भी इसी गति से विकसित हो गए तो हमारा क्या होगा ? यह सुनकर पंडे निरूतर हो गए। इसलिए गुरुदेव से पूछने लगे– कि राजा पृथू जिस की याद मे यह स्थान है, उसने अपने पित्रों की आत्म-शान्ति के लिए पृथू-ऊदक नामक पनघट बनवाया है। इस कुँए पर स्नान का महत्व हमें प्राप्त होगा या नहीं। गुरुदेव ने उत्तर दिया–

जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अंम्रितु गुर पाही जीउ ।।
छोडहु वेसु भेखु चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ।।
राग सोरठि, अंग 598

तात्पर्य यह है कि आप जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह कर्मकाण्ड कर रहे हैं वह केवल गुरू-कृपा के पात्र बनने से ही प्राप्त हो सकता है। जब तक पूर्ण गुरू की शिक्षा पर जीवन यापन नहीं करेंगे तब तक सभी कर्म निष्फल रहेंगे। क्योंकि बिना गुरू के कर्म शून्य के बराबर है। गुरू ही उन सब कर्मो को फलीभूत होने के लिए मार्ग दर्शन करता है अर्थात शून्य के आगे एक लगाने का कार्य करता है। अतः कर्मकाण्डों में समय नष्ट न करके प्रभु चिंतन में ध्यान लगाएँ। जिससे हमें पूर्ण गुरू की प्राप्ति हो सके। इसी में सबका भला है। गुरुदेव यहाँ से प्रस्थान करके सरसा नगर चले गए।
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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