84. सालस राय जौहरी
(हमें अपने अन्तःकरण में छिपे हुए परमात्मा को खोजना चाहिए, जिस
प्रकार एक जौहरी असली हीरे को खोजता है।)
एक बार भाई मरदाना जी ने गुरुदेव से प्रश्न किया कि ‘सभी जानते
है यह शरीर हमारी अमूल्य निधि है, फिर क्यों लोग इसके साथ नशे तथा विकार करके
खिलवाड़ करते हैं ? गुरू जी ने कहा, सभी मनुष्यों को इतनी योग्यता भरी दृष्टि
प्राप्त नही हुई, वह इस शरीर रूपी अमूल्य रत्न को कौड़ी बदले व्यर्थ गँवाने में
व्यस्त है अर्थात जिस डाली पर बैठे है उसी को काटने में लीन है। इस लिए अज्ञानतावश
मनुष्य दुःखी है। यदि आपको इस में संदेह है तो आप एक परीक्षण कर के देख सकते है कि
सभी को एक सी दृष्टि प्राप्त नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि अनुसार वस्तु
की कीमत आँकता है, भले ही वह बहुमूल्य रतन ही क्यों न हो। मरदाना जी बोले– यह किस
प्रकार सम्भव है ? वस्तु का जो वास्तविक मूल्य है वह सभी के लिए है। फिर
भिन्न-भिन्न व्यक्ति एक ही वस्तु का मूल्य अलग-अलग कैसे मान लेंगे ? गुरुदेव, मरदाना
जी से बोले– वह देखो सामने रेत में कोई वस्तु चमक रही है, आप उसे उठा लाओ। मरदाना
जी ने ऐसा ही किया। वह चमकीली वस्तु एक चमकीला रत्न था। मरदाना जी को गुरुदेव ने
आदेश दिया– भाई जी, इसे नगर में जाकर अधिक से अधिक मूल्य पर बेच कर दिखाओ। यह आज्ञा
प्राप्त कर भाई मरदाना निकट के नगर पटना में पहुँचे। उन्होंने वह सुन्दर रतन एक
सब्जी के विक्रेता को दिखाया। उसने कहा– यह सुन्दर पत्थर का टुकड़ा है, यह मेरे किसी
काम का नहीं। परन्तु सुन्दर है, मैं बच्चों के खेलने के लिए ले लेता हूँ। अतः आप
अपनी आवश्यकता अनुसार मुझसे बदले में सब्जी ले सकते हैं। परन्तु मरदाना जी सोचने लगे
कि गुरुदेव ने तो इसे अमूल्य बताया है। मैं कहीं और दूसरे व्यापारियों को दिखाता
हूँ। वह एक हलवाई की दूकान पर गये ओर रतन दिखाया। उस दुकानदार ने कहा– यह सुन्दर
पत्थर है परन्तु मेरे किसी काम का तो है नहीं। यदि तुम इसे बेचना ही चाहते हो तो
मैं तुम्हें पेटभर भोजन-मिठाई आदि खाने को दे सकता हूँ। इस पत्थर को मैं अपने तराजू
पर लगाऊँगा। फिर वे एक कपड़े की दुकान पर गये उसे उन्हें एक जोड़ा वस्त्रों का देना
स्वीकार किया। अतः वहाँ से भी मरदाना जी पूछते-पूछते आगे एक जौहरी सालस राय की
दुकान पर पहुँचे। उसके कर्मचारी अधरका ने उस रतन को देखा तथा बहुत प्रभावित हुआ। वह
कहने लगा– मैं इस रतन को अपने मालिक को दिखाकर इसका वास्तविक मूल्य बता पाऊँगा।
क्योंकि यह रतन असमान्य है। पहले कभी ऐसा रतन देखा नहीं गया। जब सालस राय ने वह रतन
देखा तो सिर झुकाकर रतन को प्रणाम किया।
तथा कहा– यह रतन नहीं ये कुदरत का करिश्मा है। इसके भीतर के
प्रकाश पुँज एक विशेष प्रकार का प्रतिबिम्ब बनाते है जिसमें सँकलित है कि, दर्शन
भेंट 100 रुपये। अतः यह अमूल्य है मैं इसे खरीदने योग्य नहीं हूँ। मैं तो इस की
दर्शन भेंट ही दे सकता हूँ। उसने मरदाना जी का भव्य स्वागत एवँ भोजन इत्यादि से
अतिथि सत्कार करके कहा, यह रतन आप लौटा ले जाए मुझसे इसकी दर्शन भेंट स्वीकार करके
अपने स्वामी को दे दें। किन्तु मरदाना जी का उत्तर था– मैं, यह धनराशि बिना कारण
स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि आपने हमारा रतन खरीदा ही नहीं। अतः मैं यह रुपये क्यों
ले लूँ। सालसराय के विवश करने पर मरदाना जी ने वह रुपयों की थैली गुरुदेव तक
पहुँचानी स्वीकार कर ली। जब यह थैली ले कर गुरुदेव के समक्ष उपस्थित हुए तो गुरुदेव
ने वहीं बात मरदाना जी से कही कि जब उसने हमारा रतन खरीदा ही नहीं तो हम उसका धन
बिना कारण क्यों स्वीकार करें। अतः यह धन लौटा दो। मरदाना जी थैली को लोटाने सालस
राय के पास आए। सालस राय और उसके कर्मचारी अधरका ने सोचा कि इस रतन का स्वामी या तो
कोई महान धनवान है, जिसके लिए यह बहुमूल्य पदार्थ साधरण सी वस्तु है या कोई
महापुरुष होगा जो धन सम्पति के मोह से विमुख है। तब सालस राय ने अपने सेवक अधरका को
कहा– ठीक है तुम इस धन को लेकर मरदाना जी के साथ इनके गुरू जी के पास पहुँचो, मैं
कुछ उपहार लेकर तुम्हारे पीछे आ रहा हूँ। पहले सेवक अधरका गुरुदेव के सन्मुख हुआ,
उस ने चरण बन्दना करके वह रतन तथा 100 रू की थैली गुरू जी को अर्पित की। गुरुदेव जी
ने उस पर प्रश्न किया– तुम क्या कार्य करते हो ? सेवक अधरका बोला– मैं रतनों का
परीक्षण करता हूँ। गुरू जी बोले– तब तो तुमने इस अमूल्य जीवन रूपी रत्न का भी
परीक्षण किया होगा ? सेवक अधरका– जी, मैं अभी तक तो इन कँकर पत्थरो के परीक्षण में
ही खोया रहा हूँ। मुझे आप दृष्टि प्रदान करें जिससे मैं इन कँकर पत्थरों से उपर
उठकर, जीवन रूपी अमूल्य निधि का निरीक्षण कर पाऊँ तथा अपने बहुमूल्य श्वासो का
सदोपयोग कर सकूँ।
गुरुदेव जी– तुम विवेकशील हो, जीवन के महत्व को जानते हो किन्तु
तुम्हें केवल मार्ग दर्शन की आवश्यकता है। तभी सालस राय भी अपने सेवकों के साथ वहाँ
पर जा पधारे तथा उन्होंने डण्डवत प्रणाम कर प्रार्थना की, आप यह तुच्छ भेंट स्वीकार
करें। गुरुदेव जी– भक्तजन यह रुपयों की थैली किसलिए दे रहे हों ? सालस राय– जी, यह
तो आप के रतन की दर्शन भेंट है। गुरुदेव जी– तो तुम रतनो के पारखी हो ?
सालसराय बोले– जी हां। गुरुदेव जी बोले– तो इस मनुष्य जन्म रूपी रतन को तो तुमने
खूब परख कर कसौटी पर कसा होगा ? सालसराय बोले– नहीं महाराज मैं तो केवल चमकीले
पत्थर ही परख-परख कर इकट्ठे करता रहा हूँ। गुरुदेव जी– आखिर इन कँकर पत्थरो का करोगे
क्या ? जब श्वासों की अमूल्य पूँजी ही समाप्त हो जाएगी ? सालस राय– जी यह तो मैंने
कभी सोचा ही नहीं ? गुरुदेव जी– अभी भी समय है अपनी "दृष्टि" बदलो, "वास्तविक जौहरी"
बनो, अपना जन्म सफल करना ही मनुष्य का मुख्य लक्ष्य है। अतः चूकना नहीं। स्वयँ की
पहचान ही हमें अमूल्य निधि देती है। हमें अपने अंतःकरण में छिपे उस प्रभु के अंश को
खोजना चाहिए, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार तुम रतनों में से प्रकाश के पुँज को खोजते
हो ? सालस राय– आपने मुझ पर कृपा की है जो मुझे जागृत करके जीवन का लक्ष्य बताया
है। मैं आप के बताए मार्ग अनुसार अपने भीतर उस प्रभु के अंश रूपी रतन की खोज में
जुट जाऊँगा। गुरुदेव जी– सालस राय तुम महान हो परन्तु तुम्हारा "सेवक अधरका" तुम से
भी महान है क्योंकि वह इस रहस्य को पहले से ही जानता है। इसलिए वह आध्यात्मिक दुनियाँ
में तुम से भी आगे है, अतः उसे अपना पथ प्रदर्शक मानो। इसी में तुम्हारा कल्याण होगा।
सालस राय– जी, आपकी जैसी आज्ञा। इस प्रकार गुरू नानक देव जी ने पटना नगर के एक धनी
को धन के मोह से हटाकर जीवन का वास्तविक रहस्य बताया तथा वहाँ कुछ महीने ठहरे। सालस
राय और अधरका जी को गुरू दीक्षा दी तथा पटना में अपनी धर्म प्रचार केन्द्र स्थापित
किया। इसका "प्रथम उपदेशक" भी सालसराय को ही नियुक्त किया और उसे आदेश दिया कि उसके
देहान्त के पश्चात् उसका सेवक अधरका धर्म प्रचार केन्द्र का मुख्य अधिकारी होगा।