83. जागीरदास हरिनाथ
(कर्मकाण्ड, पाखण्ड करना और पण्डितों के चँगूल में फँसकर उनके
कहे अनुसार कार्य करना कि ऐसा कर लो तो ये हो जाएगा। यह सब बकवास है। जीवन की सबसे
बड़ी कूँजी तो एक ही है कि प्रभू भजन में मग्न रहना और उसका नाम जपना।)
प्रयाग, इलाहबाद से प्रस्थान करके "श्री गुरू नानक देव जी बनारस
पहुँचे उन दिनों शिवरात्रि का मेला था। वहाँ पर लोगों में यह धारणा फैला रखी गई थी
कि शिवरात्रि पर्व पर यदि कोई दानी अपना सर्वस्व दान करके माया के बन्धनों से मुक्त
होकर तृष्णा पर विजय पाकर शिव मन्दिर में रखे एक विशेष प्रकार के आरे, से अपने शरीर
के दो भाग करवा ले तो वह मोक्ष को प्राप्त होगा। इस अँधविश्वास के जाल में एक
स्थानीय राजा जागीरदार हरिनाथ, बहला-फुसला लिया गया था। वास्तव में वह महानुभाव
बैराग्य को प्राप्त हो चुके थे तथा संसार परित्याग करके परम पद को प्राप्त करने की
इच्छा रखते थे। जब इन्होंने अपने लड़के को अपना उतराधिकारी नियुक्त करके विशाल धनराशि
दान-दक्षिणा में पण्डो को दे दी। तब पण्डो ने अपने बनायी अपनी योजना के अनुसार उनके
मन में यह धारणा पक्की बना दी कि आरे से कटकर मरने से परम पद तुरन्त प्राप्त हो सकता
है। इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए सबसे सरल और एक मात्र उपाय यही था कि शिवरात्रि
उत्सव पर यह कार्यक्रम निश्चित किया जाए। बनारस पहुँचने पर गुरू नानक देव जी को जब
यह सूचना मिली तो वह इस जघन्य हत्या काँड को रोकने के लिए समय रहते वहाँ पर पहुँच
गये। देखते क्या है कि राजा हरिनाथ आरे के नीचे बैठे हैं पण्डों ने तभी केवल एक बार
धीरे से आरा सिर पर चलाया जिस से खून के फौहारे चल पड़े किन्तु पण्डो ने पहले से
निर्धरित योजना के अनुसार दूसरी बार आरा नहीं चलाया तथा हल्ला-गुल्ला मचा दिया कि
पापी आ गया। पापी आ गया। जिस कारण यह आरा देवताओं ने थाम लिया है अब आगे चलता नहीं।
अब यह तभी चलेगा जब राजा का पुत्र पुनः दान देवताओ की इच्छा अनुसार करेगा। यह सुनकर
राजा हरिनाथ का उत्तराधिकारी कहने लगा– पिता जी ने आप लोगों को लगभग सभी कुछ तो दे
ही दिया है। अब तो शेष कुछ भी नहीं बचा जो कि आप को दे दूँ। तब पण्डे कहने लगे–
तुम्हारे पास अभी भी पिता पुरखों की जागीर का अधिकार है, वह भी हमें दे दो। किन्तु
युवराज कहने लगा– यह कैसे सम्भव हो सकता है ? दूसरी तरफ दर्द से कराहते हुए राजा
हरिनाथ ने पुत्र से कहा– मैं मंझधार में हूँ जल्दी से मुझे मोक्ष दिलवाओ। तभी पण्डों
ने युवराज को प्रेरित करते हुए कहा– आप मिथ्या माया का मोह मत करें जल्दी से हमें
वचन दें ताकि देवता लोग प्रसन्न होकर आरे को फिर से चलने का आदेश दें। तभी गुरुदेव
ने गर्ज कर ऊँचे स्वर में कहा– ठहरो-ठहरो यह अत्याचार मत करो। आरा सिर से तुरन्त
उठाओ। गुरुदेव ने युवराज से कहा– नपुँसकों की तरह देखते क्या हो, इसी क्षण अपने पिता
को इन जालसाजों के चुँगल से मुक्त करने का आदेश अपने कर्मचारियों, सिपाहियों को दो।
तब क्या था। युवराज का माथा ठनका, वह तुरन्त सब स्थिति भाँप गया एवँ उसी क्षण पण्डों
को पकड़कर बन्दी बनाने का उसने आदेश दिया। राजा हरिनाथ का उपचार किया गया। घाव अधिक
गहरा नहीं था अतः राजा का जीवन सुरक्षित कर लिया गया। इस प्रकार गुरू बाबा नानक देव
जी ने समय पर हस्तक्षेप कर एक जघन्य अपराध को होते-होते बचा लिया।
समस्त जन समूह को सम्बोधन करते हुए गुरुदेव ने कहा– हम लोग
अँधविश्वास में मूर्खो जैसे कार्य कर रहे हैं। सभी को एक बात गाँठ में बांध लेनी
चाहिए कि बिना हरि भजन के किसी को भी छुटकारा नहीं मिल सकता, भले ही वह लाखों
दान-पुण्य करे या किसी भी विधि-विधान अनुसार शरीर त्यागने की चेष्टा करें। मोक्ष तो
इस कर्म भूमि पर अपने सभी प्रकार के कर्तव्य पालन करते हुए केवल आत्मा शुद्धि से ही
प्राप्त होता है तात्पर्य यह कि मन पर विजय पाने से ही वास्तविक मोक्ष है। अर्थात
व्यक्ति को मन की तृष्णाओं पर अँकुश लगाकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। इस घटना के बाद
बनारस में गुरुदेव को बहुत सत्कार मिलने लगा तथा गुरुदेव के दर्शनों को बहुत से
विद्वान आने लगे। आध्यात्मिक वाद पर विचार विनमय करते समय सभी ने अपने मन की शँकाएं
व्यक्त की तथा मुख्य मुद्दा यह बना कि वेद तो पुण्य एवँ पाप की विचार धारा के
सिद्धाँत पर आधारित है। जब कि आप इस प्रकार के विचारों को केवल एक व्यापार बताते
हैं ? वास्तव में प्रभु प्राप्ति का साधन क्या है ? इस के उत्तर में गुरुदेव कहने
लगे– पाप-पुण्य का सन्तुलन करना, सब हिसाब-किताब व्यापार ही तो है। वास्तव में ऊँचा
आचरण एवँ प्रभु भजन में मग्न रहना ही सफल जीवन की कुँजी है। इस कार्य के लिए "गुरू
शब्द" से प्रेरणा लेनी चाहिए तथा मन की चँचल प्रवृत्तियों का दमन करके साधु-संगत का
दामन थामना चाहिए।
सबद सहिज नही बुझिआ जनम पदारथ मन मुख हारिआ ।।