100. उज्जवल आचरण ही श्रेष्ठता का
प्रतीक
(जिस प्रकार से खोटा सिक्का बाजार में नहीं चलता, ठीक उसी
प्रकार से परमात्मा की दरगह में भी खोटे लोग स्वीकार नहीं किए जाते।)
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को उनके शिविर में सम्राट बहादुरशाह किसी विशेष कारणवश
मिलने आया। अवकाश का समय था विचार करते समय आध्यात्मिक चर्चा प्रारम्भ हो गई।
बहादुरशाह ने इस्लाम का पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा– कि इस्लाम में यह विश्वास दृढ़
है कि जो व्यक्ति एक बार कलमा पढ़ लेता है वह दोजख में नहीं अपितु उसे बहिशत (स्वर्ग)
में ऐश्वर्य युक्त जीवन जीने को मिलता है। इसके विपरीत गुरू जी ने उसे गुरमति
सिद्धान्त समझाते हुए कहा– कि यह सब मिथ्या धारणाऐं हैं वास्तविकता यह है कि जो जैसा
कर्म करेगा वैसा ही फल पायेगा। यह सर्वमान्य सत्य सिद्धान्त है। इसमें किसी की
सिफारिश नही चलती। इस पर सम्राट कहने लगा– गुरू जी, आपके कथन की पृष्टि किस प्रकार
हो, कोई उदाहरण तो होना चाहिए। गुरू जी ने तुरन्त अपने खजान्ची को बुलाकर कहा– हमारे
खजाने में एक खोटा सिक्का भी है, वह लाओ। उस खोटे सिक्के को गुरू जी ने सम्राट को
दिखाया और कहा– इस पर वह सभी कुछ उसी प्रकार मुद्रित है, जिस प्रकार का आपकी टकसाल
के वास्तविक सिक्कों पर, इस पर भी कलमा इत्यादि सभी कुछ अँकित है। इसे बाजार में
भेजकर कुछ आवश्यक सामाग्री मँगवाकर देखते हैं और गुरू जी ने उस सिक्के को एक सेवक
के हाथ बाजार भेज दिया। कुछ समय पश्चात वह सेवक खाली हाथ लौट आया। और वह बताने लगा–
गुरू जी यह सिक्का कोई स्वीकार नहीं करता क्योंकि यह खोटा है, इसमें मिलावट है। गुरू
जी ने सम्राट को सम्बोधन करते हुए कहा– कि जैसे यह सिक्का कोई स्वीकार नहीं करता भले
ही आपकी टकसाल की तरह इस पर मोहर है और इस पर कलमा भी लिखा है। ठीक वैसे ही सच्ची
दरगाह में केवल कलमा पढ़ लेने से कोई स्वीकार्य नहीं बन सकता। बहादुरशाह इस
युक्तिपूर्ण उत्तर से सन्तुष्ट हो गया।