79. बहादुरशाह की सहायता
(अगर आपने किसी से कोई वायदा किया है तो फिर आप अपने मन में भी
यह नहीं सोचें कि आप वादा निभाने में टाल-मटोल करेंगे।)
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी राजस्थान के कई नगरों में गुरमति का
प्रचार करके दिल्ली जाने का विचार कर रहे थे कि उनको सूचना मिली कि औरँगजेब का
देहान्त हो गया है। इसलिए दिल्ली का सम्राट बनने की होड़ मे औरँगजेब के दोनों बेटों
में ठन गई है। औरँगजेब का बड़ा पुत्र मुअजम (बहादुरशाह) जो अफगानिस्तान की तरफ एक
मुहिम पर गया हुआ था, पिता की मृत्यु का सँदेश प्राप्त होते ही वापिस लौटा किन्तु
उसके छोटे भाई शहजादा आजम ने अपने आप को सम्राट घोषित कर दिया था। अतः दोनों में
युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। बहादुरशाह को आभास हुआ कि आजम को युद्ध में पराजित
करना इतना आसान नहीं है वह मुझसे अधिक शक्तिशाली है। अतः उसको परास्त करने के लिए
मुझे किसी अन्य व्यक्ति की सहायता ले लेनी चाहिए। अन्यथा पराजय पर मृत्यु निश्चित
है। उसने चारों ओर दृष्टिपात किया किन्तु ऐसी शक्ति दृष्टिगोचर नहीं हुई जो उसकी
विपत्तिकाल में स्पष्ट रूप में आजम के विरूद्ध सहायता करे। उसने परेशान होकर अपने
वकील भाई नन्दलाल सिंघ गोया जी से विचारविमर्श किया। नन्दलाल सिंघ ने उसे सुझाव दिया
कि वह इस समय श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के पास जाकर सहायता माँगे, वह शरणागत
की अवश्य ही सहायता करेंगे और यदि उनका सहयोग मिल जाये तो हमारी विजय निश्चित ही
है। यह सुनकर बहादुरशाह ने सँशय व्यक्त किया। वह मेरी सहायता क्यों करने लगे। जबकि
मेरे पिता औरँगजेब ने उनको बिना किसी कारण आक्रमण करके प्रवासी बना दिया है और उनके
बेटों की हत्या करवा दी है। इस पर भाई नन्दलाल सिंघ जी ने उसे समझाया कि वह किसी से
भी शत्रुता नहीं रखते केवल अन्याय के विरूद्ध तलवार उठाते हैं। बहादुरशाह को भी इस
बात का अहसास था और वह गुरू जी के गुणों से भलीभाँति परिचित भी था, इसलिए उसने भाई
नन्दलाल सिंघ को ही अपना वकील बनाकर गुरू जी के पास भेजा कि वह मेरी आजम के विरूद्ध
सहायता करें। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने बहादुरशाह को सहायता देने के लिए एक
शर्त रखी और कहा कि सत्ता प्राप्ति के पश्चात बहादुरशाह हमें उन अपराधियों को
सौंपेगा जिन्होंने पीर बुद्धूशाह की हत्या की है तथा हमारे नन्हें बेटो को दीवार
में चिनवाया है। बहादुरशाह को यह शर्त बहुत ही कड़ी प्रतीत हुई किन्तु मरता क्या नहीं
करता। उसने बड़े दुखी मन से यह शर्त स्वीकार कर ली। गुरू जी स्वयँ दिल्ली जा ही रहे
थे क्योंकि उन दिनों उनकी पत्नी दिल्ली में निवास करती थीं। इस प्रकार गुरू जी ने
अपना विशाल सैन्यबल बहादुरशाह की सहायता के लिए भेज दिया। दिल्ली के निकट दोनों
भाईयों में भँयकर युद्ध हुआ किन्तु बहादरुशाह की सेना परास्त होने लगी। यह स्थिति
देखकर उसने तुरन्त नन्दलाल सिंघ को गुरू जी के पास भेजा और पुनः विनती की कि विजय
उसी की होनी चाहिए। गुरू जी ने कहा हम उसकी विजय करवाने ही वाले थे कि बहादरुशाह के
मन में बेईमानी आ गई थी। वह विचार रहा था कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को सत्ता
प्राप्ति के बाद बहाने बनाकर टालता रहूँगा। बस इसी कारण हमने अपना सहयोग वापिस ले
लिया था। इस बार यदि वह विजय चाहता है तो उसे हमे लिखित रूप में सँधि पत्र तैयार
करके देना होगा।
नन्दलाल सिंघ के दबाव में बहादुरशाह ने गुरू जी को एक लिखित सँधि
रूप में एक पत्र भेजा जिसमें उसने वचन दिया कि यदि मै। गुरू जी की सहायता से विजयी
हो जाता हूँ तो मैं उन कातिलों को गुरू जी के हवाले कर दूँगा जिनकी इन्हें तलाश है।
बस फिर क्या था समस्त सिक्ख सेना ने आत्म बलिदान की भावना से तन-मन से युद्ध लड़ना
प्रारम्भ कर दिया। शत्रु पक्ष की ओर से युद्ध का नेतृत्व स्वयँ आजम हाथी पर बैठा कर
रहा था। धमासान युद्ध में एक बाण तारा आजम के सीने में लगा वह वही लुढ़क गया। मुअजम
(बहादुरशाह) विजय का डँका बजाता हुआ सेना सहित आगरा पहुँचा। जहाँ उसने स्वयँ को
बहादुरशाह नाम दिया और हिन्दुस्तान का सम्राट बनकर सिँहासन पर बैठ गया। उसे इस बात
का अहसास था कि बिना श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की सहायता के वह सम्राट नहीं बन सकता
था। अतः उसने सम्राट बनते ही गुरू जी को आगरा पधारने का निमँत्रण भेजा और विनती की
कि आप मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करें। गुरू जी उन दिनों हुमायूँ के मकबरे के समीप
निवास करते थे। बहादुरशाह के निमँत्रण पर बहुत से सिक्खों ने शँका व्यक्त की और कहा–
यदि वह भी अपने पूर्वजों की तरह छलकपट करने लगा तो गुरू जी सँकट में फँस सकते हैं।
किन्तु गुरू जी ने सिक्खों को घैर्य बँधाया और आगरा चल पड़े। रास्ते में आप जी ने
मथुरा, वृँदावन इत्यादि कई ऐतिहासिक स्थल देखे। आगरा पहुँचने पर आपका शाही स्वागत
किया गया किन्तु आपने अपना शिविर यमुना किनारे एक रमणीक स्थान पर लगवाया। बहादुरशाह
के साथ भेंट वाले दिन गुरू जी घोड़े पर सवार होकर अस्त्र-शस्त्र इत्यादि धारण करके
स्वसज्जित होकर आगरे के किले में प्रविष्ट हुए। द्वार पर आपका बहादुरशाह ने भव्य
स्वागत किया और दरबार में ऊँचे स्थान पर बैठाया। तदुपरान्त आपको सम्मानित करने के
लिए खिल्लत (सिरोपा) भेंट किया गया। इसमें एक कलगी भी थी जो हीरों से जड़ी हुई थी।
गुरू जी ने समस्त वस्तुएँ प्राप्त करके अपने सेवादारों द्वारा शिविर में भेज दी।
जबकि शाही नियमावली अनुसार उन उपहारों को दरबार में ही धारण करना अथवा पहनना होता
था। कुछ दरबारियों ने इस बात का बुरा माना कि इन वस्तुओं को आपने धारण क्यों नहीं
किया। उत्तर में गुरू जी ने स्पष्ट किया। हम आध्यात्मिक दुनियाँ के स्वामी हैं जबकि
बहादुरशाह केवल दुनियादार है। अतः आध्यात्मिक रूतबा दुनियादारी रूतबों में सर्वोतम
है, इसलिए बादशाह की वस्तुएँ हमने उसके स्नेह को देखकर स्वीकार तो कर ली किन्तु
आध्यात्मिक दुनियाँ में यह गौण हैं। गुरू जी बहादरशाह के स्नेह के कारण उसकी राजधानी
में तीन महीने तक रहे। बहादुरशाह ने गुरू जी के साथ किये अत्याचारों के लिए अपने
पिता औरँगजेब को दोषी ठहराया और भविष्य में प्रशासन की ओर से मित्रता का हाथ बढ़ाया।
गुरू जी ने उसे उसकी लिखित सँधि की याद दिलवाई और कहा हमें इन अपराधियों को जल्दी
सौंपो। किन्तु बहादुरशाह टाल गया और कहने लगा समय आने पर मैं अपना वायदा अवश्य ही
पूरा करूँगा। किन्तु मेरे विरोधी बगावत कर रहे हैं। उसने गुरू जी को बताया कि इस
समय राजपूताने में से बगावत की सूचनाएँ मिली हैं और मेरा छोटा भाई कामबख्श जो इस
समय बीजापुर में है, उसने अपने स्वतँत्र बादशाह होने का ऐलान कर दिया है। मुझे पहले
इनका दमन करना है, इसके बाद आपका कार्य पूर्ण करूँगा। गुरू जी ने उसकी विवशता को
समझा और कुछ समय प्रतीक्षा करने पर सहमत हो गये।