75. साधू मलूका
(महापुरूषों को कभी भी दुविधा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए।)
श्री गुरू तेग बहादुर साहब जी कुरूक्षेत्र से होते हुए बनी
बदरपुर इत्यादि स्थानों से होकर आगे बढ़ते हुए, बड़ा मानकपुर पहुँचे। वहाँ पर वैष्णों
मत का एक साधू मलूकचन्द रहता था। जब उसे ज्ञात हुआ कि श्री गुरू नानक देव जी के
नौंवे उत्तराधिकारी उस क्षेत्र में पधारे हैं तो वह बहुत प्रसन्न हुआ और वह गुरु
दर्शनों को लालायित रहने लगा। किन्तु जैसे ही उसे मालूम हुआ कि श्री गुरू तेग
बहादुर जी तो अस्त्र-शस्त्रधारी हैं और वे शिकार आदि भी खेलते हैं तो उसका उत्साह
ठंडा पड़ गया। वह सोचने लगा कि वह तो अहिंसा को परम धर्म मानता है, फिर किस लक्ष्य
को लेकर वह उनके दर्शन करे, क्योंकि विचारधारा विपरीत है। इसी दुविधा में पड़ा हुआ
वह कुछ निर्णय नहीं कर पाया। उसने नित्यकर्म के अनुसार जैसे ही अपने इष्ट देव को
भोग लगाने के लिए थाल प्रस्तुत किया और ऊपर से रूमाल हटाया तो पाया कि उस थाली में
माँस का व्यँजन परोसा हुआ है। उसे घृणा हुई, वह उस भोजन की गंध भी सहन नहीं करना
चाहता था। अतः उसने पुनः अपने हाथों से थाल परोसा और शुद्ध वैष्णव भोजन लेकर
इष्टदेव के पास गया, किन्तु यह क्या, भोजन तो फिर से वही माँसाहारी है। उसे इस
कौतुहल का अर्थ समझ में नहीं आया। उसने भोजन नहीं किया और वैराग्य में द्रवित नेत्रों
से आसन पर ध्यानमग्न हो गया। तभी उसने अपने इष्ट को प्रत्यक्ष साकार रूप में प्रकट
होते देखा। दैवी शक्ति ने कहा– हे मलूक चन्द ! तेरी भक्ति सम्पूर्ण हुई है, फिर यह
भ्रम कैसा ? क्या तू नहीं जानता कि सभी अवतारी पुरूष शस्त्रधारी थे और मानव उद्धार
के लिए अपनी लीलाओं में दुष्टों के नाश हेतु शस्त्रों का प्रयोग करते थे। इस पर
मलूकचँद ने क्षमा याचना करते हुए कहा, उससे भूल हुई, जो वह विचलित हो गया था। वह मन
में बसी सभी शँकाओं को बाहर निकालकर आज ही गुरुदेव जी के दर्शनों को जाता है।