74. भाई पुंगर जी
(भक्त, सन्त और सेवक कभी-कभी इतनी ऊँची आत्मिक अवस्था में पहुँच
जाते हैं कि मूल्यवान से मूल्यवान वस्तु भी उन्हें तुच्छ लगने लगती है।)
एक बार भाई पुंगर जी श्री गुरू हरिराय जी के चरणों में उपस्थित
हुए और गुरू दीक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। गुरूदेव जी ने पुंगर जी की तीव्र
अभिलाषा देखकर वचन लिया– कि यदि तुम श्री गुरू नानकदेव जी के तीन प्रमुख सिद्धान्तों अनुसार जीवन व्यतीत करने का दृढ़ सँकल्प करते हो तो तुम्हें नामदान दिया जा सकता है।
भाई जी ने कहा– मैं समस्त जीवन इन तीनों सिद्वान्तों पर आचरण करते हुए निर्वाह
करूँगा। गुरूदेव जी के प्रमुख सिद्वान्त समस्त जगत प्रसिद्व हैं। किरत करो अर्थात
परिश्रम से धन अर्जित करो, वँड छक्को अर्थात बाँट कर खाओ और तीसरा, नाम जपो अर्थात
प्रभु भजन में प्रत्येक क्षण व्यस्त रहो अर्थात ध्यान में प्रभु की सर्वव्यापक शक्ति
को हर क्षण स्वीकार्य रखो। भाई पुंगर जी गुरू दीक्षा प्राप्त करके अपने गाँव लौट गये
और गुरू उपदेशों अनुसार जीवन व्यतीत करने लगे। वह सभी जरूरतमंदों की आर्थिक सहायता
करते थे और आये-गये परदेशियों की भोजन व्यवस्था और विश्राम इत्यादि की देखभाल भी
करते थे। एक बार की बात है एक सँन्यासी उनके गाँव आ गया। उसको रात विश्राम के लिए
स्थान तथा भोजन की आवश्यकता थी। उसे स्थानीय निवासियों ने बताया कि वह भाई पुंगर के
यहाँ ठहर जायें क्योंकि वह सभी अतिथियों की मन लगाकर सेवा करते हैं। सँन्यासी, भाई
जी के यहाँ कुछ दिन ठहरा।
उसने भाई जी द्वारा निष्काम सेवा देखी वह सन्तुष्ट हुआ, उसे
ज्ञात हुआ कि भाई पुंगर जी एक साधारण श्रमिक है, किन्तु सेवा भक्ति में सबसे आगे
हैं, तो सँन्यासी विचारने लगा क्यों ना मैं इस महान परोपकारी निष्काम सेवक को यह
अमूल्य निधि सौंप दूँ जो मेरे पास किसी श्रेष्ठ पुरूष के लिए धरोहर के रूप में
सुरक्षित रखी हुई है। बहुत सोचविचार के पश्चात् सँन्यासी ने अपनी गाँठ में से एक
पत्थर निकाला।
और उसे भाई पुंगर जी की हथेली पर रखते हुए कहा– मैं बहुत लम्बे समय से किसी उत्तम
पुरूष की तलाश में था, जो मानव समाज की बिना भेदभाव सेवा कर सके, आखिर मुझे आप मिल
ही गये हो। मेरी दृष्टि धोखा नहीं खा सकती। आप को जो मैं अमूल्य निधि सौंप रहा हूँ,
आप उसके पात्र हैं और मुझे पूर्ण आशा है कि आप इसका सदुपयोग ही करोगे। इस पर भाई
पुंगर जी ने सँन्यासी से पूछा– यह क्या है ? सँन्यासी ने पत्थर का रहस्य उनके कान
में बता दिया– इससे आप जितना धन चाहे, प्राप्त कर सकते हैं, यह पारस है। इसके
स्पर्श मात्र से धातु सोने का रूप ले लेती है। भाई पुंगर जी ने संन्यासी से कहा– हमें
तो धन की कोई आवश्यकता ही नहीं है। किन्तु सँन्यासी कुछ अधिक बल देने लगा और उसने
कहा– ठीक है, आप कुछ दिन आवश्यकता अनुसार इस का प्रयोग कर लें फिर मैं लौटकर इसे
वापस ले जाऊँगा। तब भाई पुंगर जी ने कहा– आप इसे अपने हाथों से किसी सुरक्षित स्थान
में रख दें। संन्यासी ने ऐसा ही किया और वह चला गया। लगभग एक वर्ष पश्चात् जब
संन्यासी भाई पुंगर जी ने गाँव में लौट कर आया तो उसने पाया कि भाई जी उसी गरीबी की
दशा में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उसने भाई पुंगर जी से प्रश्न किया– कि आपने मेरे
दिये हुए पारस पत्थर का प्रयोग क्यों नहीं किया। इस पर उत्तर मिला– धातु खरीद कर
लाना फिर उससे स्वर्ण बनाना, फिर बेचना एक लम्बा जौखिम का काम था, हम तो स्वर्ण वैसे
ही बना लेते हैं। सँन्यासी आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा– वह कैसे ? तब पुंगर जी ने
एक पत्थर उठाया और कहा– सोना बन जा ! बस फिर क्या था, वह पत्थर उसी क्षण स्वर्ण रूप
हो गया। तभी सँन्यासी उनके चरणों में गिर गया और पूछने लगा– आप जब इतनी महान
आत्मशक्ति के स्वामी हैं, तो इतना गरीबी वाला जीवन क्यों जी रहे हो ? उत्तर में
पुंगर जी ने कहा– मुफ्त में आया माल अथवा धन सदैव व्यक्ति को अययाशी की ओर प्रेरित
रहता है, जिससे प्रभु हृदय से निकल आता है। अतः व्यक्ति को सदैव परिश्रम से धन
अर्जित करना चाहिए।