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71. पृथीचंद के षडयंत्र

(किसी के खिलाफ षडयंत्र करने वाला हमेशा घाटे में ही रहता और वह अपमानित भी होता है और लोग उसका हमेशा अपमान ही करते हैं।)

श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के बड़े भाई पृथीचँद जी को जब यह समाचार मिला कि गुरू जी के घर एक सुन्दर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया है तो उसे अपने सपनों का महल गिरता हुआ दिखाई दिया और उसने बालक हरिगोबिन्द साहिब जी की जीवन लीला समाप्त करने की योजना बना डाली। कपटी तो वह था ही, उसने दाई फत्तो को दो सौ रूपये (चाँदी के सिक्के) दिए और उसके साथ साँठ-गाँठ कर ली कि वह बालक को विष देकर मार दे। उसने ऐसा ही करने की योजना के अर्न्तगत अपने स्तनों पर विष लगा लिया और बालक को दूध पिलाने का अभिनय करने लगी, किन्तु प्रकृति की लीला कुछ और ही थी। बालक ने कड़वेपन के कारण स्तनों को स्पर्श करके मुँह फेर लिया और दूध नहीं पिया, परन्तु देखते ही देखते विष का प्रभाव उल्टे दाई को ही हो गया। वह छटपटाने लगी। मरते-मरते उसने सत्य उगल दिया और कहाः मुझे पृथीचँद ने रिश्वत देकर बालक की हत्या करने के लिए प्रेरित किया था। श्री गुरू अरजन देव साहिब जी को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने कहा कि प्रभु ! स्वयँ बालक का रक्षक है। वह जिसका साक्षी हो, उस पर किसी भी शत्रु का वार कारगर हो ही नहीं सकता। अतः चिन्ता करने की कोई बात नहीं और उन्होंने प्रभु का धन्यवाद किया कि आपकी दृष्टि से बालक धातक वार से पूर्ण सुरक्षित बच गया है।
दाई फत्तो के द्वारा अपराध स्वीकार करने तथा उसके ब्यानों से जनसाधारण में पृथीचँद की निन्दा प्रारम्भ हो गई। समस्त नगर में वह जहाँ भी विचरण करता, लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगते। इस क्रूर दृष्टि से तँग आकर उसने श्री अमृतसर साहिब जी रहना त्याग दिया और अपने ससुराल वाले गाँव हेहरां में अपना स्थाई निवास बना लिया। ग्राम हेहरां जिला लाहौर में पड़ता है। पृथीचँद ने यहाँ पर अपने सँचित धन से एक सरोवर तैयार करवाना प्रारम्भ किया और उसके केन्द्र में श्री हरिमन्दिर साहिब जी जैसा भवन बनाने की योजना बनाई। उसका विचार था कि तीर्थ स्नान अथवा भवन निर्माण के लिए जनसाधारण संगत रूप होकर श्रमदान करने के लिए आती है और उसने श्री गुरू अरजन देव साहिब जी की तरह बाणी रचना के लिए तुकबन्दी शुरू करके नकली बाणी रचना आरम्भ कर दी। उसका विचार था कि काव्य रचनाएँ जिज्ञासुओं को आकृष्ट करती हैं। पृथीचँद स्वयँ पूर्वज गुरूजनों की तरह वेशभूषा धारण करके, अपने आप सिँहासन पर विराजमान होकर दरबार सजाता और भोले-भाले लोगों में अपने को श्री गुरू नानक देव साहिब जी का उत्तराधिकारी बताता। अपने उचित धन से लँगर इत्यादि बँटवाता। किन्तु सुझवान लोग उसके चँगुल में कभी नहीं आए। उसने धन का लोभ देकर कई मसँद भर्ती कर लिए, जिन्हें वह दूर-दराज क्षेत्रों में भेजता और उनके द्वारा सिक्खों में यह प्रचार करवाता कि पृथीचँद, श्री गुरू नानक देव साहिब जी के आदेश के अनुसार यह सतयुगी तीर्थ प्रकट करके उसका निर्माण करवा रहे हैं।

उसने अपने सरोवर का नाम भी दुख निवारण रख दिया। गुरू के एकमात्र अभिनय से भूल से जनसाधारण चले आए किन्तु जब उन्हें किसी पराकर्मी पुरूष के दर्शन नहीं हुए तो पाखण्ड को समझते हुए फिर कभी वापिस नहीं आए। आते भी कैसे ? नकली गुरू में तो सदगुण थे ही नहीं, वह तो स्वयँ माया का भूखा और ईष्यालू प्रवृति का व्यक्ति था। आघ्यात्मिक दुनियाँ में सतगुरू वही बन सकता है, जिसने मन पर विजय प्राप्त करके स्वयँ को उस परमात्मा के संग एकमेव कर लिया हो। अतः पृथीचँद के सभी प्रयत्न विफल रहते। जब नकली गुरूगद्दी बुरी तरह पिट गई, लोग पाखण्ड और यथार्थ समझने लगे तो पृथीचँद बौखला उठा। उसे कुछ नहीं सुझा कि वह क्या करे। उसने फिर अपने असफल होने का क्रोध श्री गुरू अरजन देव साहिब जी पर निकालने के लिए उनके पुत्र श्री हरिगोबिन्द साहिब जी पर एक और घातक आक्रमण करने की योजना बनाई। बालक अब चलने योग्य हो गया था। इस बार उसने एक सपेरे के साथ साँठ-गाँठ की और उसे कुछ स्वर्ण मुद्राएँ देकर वडाली गाँव भेजा। सपेरे को लक्ष्य बता दिया गया कि बालक हरिगोबिन्द को अकेला देखकर उसको नाग से डसवाना है। कार्य पूरा होने पर बाकी की स्वर्ण मुद्राएँ दी जानी थी। सपेरे ने योजना अनुसार कार्य कर दिया, किन्तु बालक ने नाग को सिर से पकड़ लिया और उसे पकड़ते ही फर्श पर रगड़ दिया, देखते ही देखते नाग वहीं ढेर हो गया। तभी माता गँगा जी और दासियों ने देख लिया कि नाग बालक हरिगोबिन्द के हाथों में तड़प रहा है। उसी क्षण शोर मच गया। सेवक तुरन्त दौड़े और उन्होंने शक के आधार पर खोजबीन करके जल्दी ही सपेरे को पकड़ लिया। सपेरे ने पिटाई के बाद सारा भेद उगल दिया। जब गुरू जी को इस घटना का पता चला तो वह शाँत-अडोल रहे और कोई प्रतिक्रिया प्रकट नही की। बस इतना ही कहा कि जब अपने ही नीचता पर उतर आएँ तो इस सपेरे का क्या दोष है ? उदारचित गुरू जी ने सपेरे को क्षमा कर दिया। इस घटना से माता गँगा जी और दासियाँ सतर्क रहने लगीं। पृथीचँद की लोक निन्दा बढ़ती चली गई, जिससे उसके गुरू दम्भ को भारी झटका लगा। सन 1597 ईस्वी में श्री गुरू अरजन देव साहिब जी वडाली गाँव से श्री अमृतसर साहिब जी परिवार सहित लौट आए और यहीं पर फिर से गुरूमति के प्रचार-प्रसार के कार्यों में व्यस्त हो गए। उधर पृथीचँद बहुत ढीठ था। उसने एक बार फिर बालक श्री हरिगोबिन्द साहिब जी पर घातक आक्रमण करने की योजना बना डाली।

उसने इस बार गुरू जी के घरेलू नौकर को लालच देकर अपने चँगुल में फँसा लिया। यह नौकर बालक श्री हरिगोबिन्द साहिब जी की देखभाल करता था और उन्हें खिलौनों से बहलाता था। नौकर को एक विष की पुड़िया दी गई, जिसे उसने दही में मिलाकर बालक को सेवन करवानी थी। नौकर ने ऐसा ही किया, किन्तु बालक हरिगोबिन्द प्रतिदिन की तरह दही सेवन करने के इन्कार करने लगे और खूब हल्ला-गुल्ला करने लगे। इस पर माता गँगा जी तथा अन्य दासियाँ कारण जानने के लिए बालक के निकट पहुँची तो बालक ने तोतली भाषा में बताया कि दही कड़वा है। सँशय होने पर दही कुत्ते को डाल दिया गया। पहले तो कुत्ता दही सूँघकर हट गया, किन्तु विवश करने पर कुत्ते ने थोड़ा सा दही चखा तो तड़पकर वहीं मर गया। बस फिर क्या था, नौकर को स्थानीय पुलिस के हवाले कर दिया गया। पुलिस ने सभी भेद नौकर से लगलवा लिए किन्तु नौकर पुलिस की यातनाएँ सहन नहीं कर सका और वहीं दम तोड़ गया। मरते समय नौकर ने बताया कि उसे पृथीचँद ने इस कार्य के लिए बहुत सा धन दिया है। पहले दो हत्या के प्रयास वडाली गाँव में किए गए थे, परन्तु यह तीसरा हत्या का प्रयास श्री अमृतसर साहिब नगर में हुआ था। अतः इस हत्या के प्रयास की गुत्थी सुलझाने में सरकारी कर्मचारियों का भी हाथ था। अतः इस बार पृथीचँद की लोक निन्दा सीमाएँ पार कर गईं और उसकी बहुत बदनामी हुई। वह किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा। प्रभु कृपा से उसके तीनों वार खाली गए। गुरू जी ने इस बार भी कोई रोष प्रकट नहीं किया। किन्तु इसके विपरीत पृथीचँद द्वेष में बौखला उठा और वह सोचने लगा कि मेरी लोक निन्दा का कारण मेरा छोटा भाई अरजन ही है। यदि मैं किसी युक्ति से इन्हें समाप्त कर दूँ तो मेरे दिल को शान्ति मिलेगी। अब वह दिन रात धन व्यय करके सरकारी रसूख पैदा करने में जुट गया। हेहरां गाँव से लाहौर नगर निकट है। अतः वह प्रशासनिक शक्ति प्राप्त करने के लिए लाहौर चला गया। वहाँ उसके पुराने मित्र मिले, जो कभी उसके मसँद हुआ करते थे। उनमें से बहुतों ने सत्ताधारियों की निकटता प्राप्त की हुई थी। ऐसे ही एक मसँद ने उसे वहाँ के एक सैनिक अधिकारी के मिलवाया जो कि गुरूघर से ईर्ष्या करता था। इस सैनिक अधिकारी का नाम सुलही खान था। वह पृथीचँद की योजना सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बिना शर्त के पृथीचँद को आश्वासन दिया कि वह उसके रास्ते का काँटा चुटकियों में साफ कर देगा। वह निश्चित हो जाए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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