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68. पण्डित बेणी जी

(केवल पुस्तकीय ज्ञान से कुछ नहीं होता, आध्यात्मिक ज्ञान भी होना चाहिए तभी उस परमात्मा की जानकारी होती है और यह ज्ञात होता है कि इन्सान का जन्म क्यों होता है ?)

पण्डित बेणी जी गाँव चूहणिया जिला लाहौर के रहने वाले थे। आप वेदान्त एँव व्याकरण के सर्वाधिक ज्ञाता थे। आप जिस विषय पर बोलते, उसी विषय में प्रमाणों का भण्डार प्रस्तुत कर प्रतिद्वन्द्वी को निरूतर कर देते थे। विद्वानों के साथ शास्तार्थ करना आपकी विशेषता सी हो गई थी। जब कभी आपकी किसी विद्वान के साथ गोष्टि जो शर्त रखी जाती कि पराजित पक्ष की पुस्तकें आदि ज्ञान का स्त्रोत जब्त कर लिया जायेगा। इस प्रकार बेणी जी कई विद्वानों को पराजित कर उनके साहित्य को जब्त करके विजयी घोषित हो चुक थे। अतः उन्होंने दिग्विजयी होने के विचार से अपने ग्रन्थ ऊंटों पर लाद लिए और नगर–नगर विद्वानों की खोज में निकल पड़े। काशी, प्रयाग आदि कई नगरों में उनको भारी सफलता मिली, जिससे उनके पास ऊंटों से लदे ग्रन्थों का भण्डार और भी बढ़ गया। इसके साथ ही विद्या संबंधी अहँकार भी बढ़ता चला गया और आत्मिक शान्ति भँग होती चली गई। अन्त में वह पँजाब अपने घर वापिस आ रहे थे तो उनको ज्ञात हुआ कि व्यासा नदी के किनारे बसे नये नगर श्री गोइंदवाल साहिब जी में श्री गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी श्री गुरू अमरदास जी निवास करते हैं। वह पूर्ण पुरूष माने जाते हैं। यदि मैं उनसे शास्त्रार्थ में विजयी हो जाऊँ तो मैं स्वयं को दिग्विजयी घोषित कर दूंगा। इसी विचार से वह गुरू दरबार में उपस्थित हुआ। और उसने गुरू जी से आग्रह कियाः वह उसके साथ एक गोष्ठि का आयोजन करें। उत्तर में बेद कतेब की पहुँच से परे अनुभवी ज्ञान के ब्रहमवेता गुरू जी ने कहाः निःसन्देह आपकी बुद्धि पुस्तकीय ज्ञान से तीक्ष्ण और चपल हो गई है, परन्तु शाश्वत ज्ञान की गरिमा आपको प्राप्त नही हुई, इसलिए आप इस दुविधा में भटक रहे हैं। भले जी आपने अपने पास ज्ञान का इतना बड़ा भण्डार रखा है, परन्तु तत्व ज्ञान, सत्य ज्ञान से वंचित रह गये हैं। पण्डित बेणी जी को इस प्रकार के उत्तर की आशा नहीं थी। अतः वह जिज्ञासावश पूछने लगाः कि आखिर सत्य-ज्ञान क्या है, जो मुझे प्राप्त नही ? उत्तर में गुरू जी ने कहाः स्वचिन्तन की सत्य ज्ञान है, जो आप नही करते, जिससे चँचल मन का बोध होता है और उस पर नियँत्रण करने के लिए आत्मा को प्रभु नाम रूपी धन से सशक्ति करना पड़ता है। इस सँघर्ष में केवल प्रेम भक्ति का शस्त्र ही काम आता है अन्यथा मन केवल हठ योग के साधनों से अभिमानी होकर नियँत्रण से बाहर हो जाता है। जब तक मन की सुक्ष्मता को नहीं समझोगे तब तक भटकते रहोगे। पण्डित बेणी कुछ गम्भीर हुए और कहने लगेः मैं शास्त्रों द्वारा बताई गई सारी विधियों के अनुसार जीवन यापन करता हूं और समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात प्राप्त हुए ज्ञान से समाज मे जागृति लाने का प्रयास कर रहा हूं किन्तु आपके सिक्ख शास्त्रों की विधि जप–तप, व्रत–नेम, दान–पुण्य, तीर्थ–स्नान आदि कर्मों पर विश्वास ही नहीं रखते तो इनको कैसे मोक्ष प्राप्ति होगी ? गुरू जी बोलेः हम श्री गुरू नानक देव जी द्वारा बताए गये पक्षी मार्ग पर चलते हैं और आप चींटी मार्ग अपनाते हैं, यह ठीक उसी प्रकार है जैसे पेड़ पर लगे हुए मीठे फल को खाने के लिए पक्षी क्षण भर की उड़ान के पश्चात पहुँच जाता है, ठीक इसके विपरीत चींटी को फल तक पहुँचने के लिए घीरे–धीरे चलकर लम्बे समय के लिए परिश्रम के पश्चात लक्ष्य की प्राप्ति होती है। (कई लाखों जुनियों में भटकने के बाद, कई प्रकार के कष्ट और दुख झेलने के बाद भी अगर सम्पूर्ण गुरू मिले और परमात्मा का नाम जपा हो तो) अतः कर्म–काण्ड चींटी मार्ग है, जबकि केवल नाम अभ्यासी होना पक्षी मार्ग है। यही विधि कलयुग में प्रधान है, इसके द्वारा सहज में जनसाधारण प्रभु से निकटता प्राप्त कर सकते हैं।

कलि महि राम नाम वडियाई ।।
गुर पूरे ते पाइआ जाई ।। राग बसंत, महला 3, अंग 1176
यथाः
जुग चारे नामि वडिआई होई ।।
जि नामि लागै सो मुकति होवै, गुर बिनु नामु न पावै कोई ।। रहाउ ।।

पण्डित बेणी जी ने गुरू जी के वचनों का गहन अध्ययन किया और यर्थात को समझने की चेष्टा की जब सत्य का ज्ञान हुआ और दुविधा दूर हुई तो उन्होंने अपने द्वारा इकटठे किये गये ग्रन्थों को व्यर्थ पाया और वह जान गये कि वास्तविकता क्या है, अन्यथा केवल पुस्तकों का ज्ञान दिमागी कसरत भर ही है। जिससे अभिमान के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्ति नहीं होती। उन्होंने मन को नियंत्रण मे लाने के लिए अपनी समस्त पुस्तकें व्यासा नदी मे बहा दी और कहा कि न होगा मिथ्या ज्ञान और न होगा अभिमान। जब अभिमान जाता रहा तो परम पिता परमेश्वर के बीच की अँहकार रूपी दीवार गिर गई और उनको तत्काल शाश्वत ज्ञान की प्राप्ति हुई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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