58. ढाल की परीक्षा
(पाँच प्यारे गुरू रूप होते हैं और इनके सामने अरदास करने से
सारे विघ्न दूर हो जाते हैं।)
मध्यप्रदेश निवासी लाल सिंघ श्री आनंदपुर साहिब जी में श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी के दशर्नों को आया। वह कुशल कारीगर था, उसने स्वयँ बहुत कड़ी लगन से
एक विशेष प्रकार की ढाल का निर्माण किया था। इसकी विशेषता यह थी कि वह हल्की और
मजबूत थी। इसे कोई अस्त्र-शस्त्र भेद नहीं सकता था। यह विशेष उपहार उसने गुरू जी के
समक्ष भेंट किया। और ढाल की विशेषता बताते हुए कहा– कि गुरू जी ! मैंने इसे कई
धातुओं के मिश्रण से तैयार किया है। अतः इसमें से गोली पार नहीं हो सकती। गुरू जी
ने सिक्ख के भीतर अभिमान का अँश देखा और कहा– लाल सिंघ क्या हमारी गोली भी इसे भेद
नही सकेगी ? इस पर लाल सिंघ बात को बिना विचारे कहने लगा– कि, हाँ गुरू जी ! यह इतनी
मजबूत है कि आपकी गोली भी इसे भेद नहीं सकेगी। गुरू जी ने कहा– अच्छा ! हम कल इस
ढाल का परीक्षण करेंगे। आज इसे ले जाओ, कल इसे साथ लेकर आना। लाल सिंघ वापिस अपने
शिविर पर आ गया। जहाँ उसकी पत्नी उसकी प्रतिक्षा कर रही थी। जब उसे इस अभिमान भरी
घटना का पता चला तो वह बहुत चिन्तित हुई, उसने लाल सिंघ को सुचेत किया कि आपसे
भँयकर भूल हो गई है, गुरू जी समर्थ हैं। उनके आगे यह ढाल कोई वस्तु नहीं है। अब लाल
सिंघ छटपटाने लगा और विचारने लगा अब क्या किया जाए। तब उसको अपनी गलती का अहसास होने
लगा। अब दोनों पति-पत्नी मिलकर कोई युक्ति सोचने लगे कि कल उनकी आन रह जाए। तभी उसकी
पत्नी को एक युक्ति सूझी कि गुरू जी ने अपने पाँच प्यारों को सर्वोतम स्थान दिया है
तथा उन्हीं पाँच प्यारों को गुरू मानकर गुरू दीक्षा भी उन्हीं से ली है। क्यों न वे
भी उन पाँच प्यारों के आगे क्षमा याचना करें। यह बात दोनों के मन को भा गई और वह
पाँच प्यारों को आग्रह करके अपने घर पर बुला लाया। तब तक उसकी पत्नी ने उनके लिए
अपने हाथों से भोजन तैयार करके उनको भोजन कराया तथा अपनी सेवा भाव से उन्हें
प्रसन्न किया। तदपश्चात उनको अपनी गाथा सुनाई कि उन्हें अब उनके किये पर पश्चाताप
है इसलिए व उनकी शरण में उपस्थित हुए हैं। हमें आप पर गर्व है कि आप गुरू जी के
प्यारे शिष्यों में से हैं और आप हमें क्षमा दिलवा सकते हैं क्योंकि गुरू जी की कृपा
उन पर सदैव रही हैं जैसा कि कथन है–
रहिणी रहै सोई सिक्ख मेरा ।।
ओहु साहिब मैं उसका चेरा ।।
ऐसा सुनकर उन पाँच प्यारों ने अरदास जी कि हे गुरू जी ! यह आप,
का अन्जान बच्चा अपनी भूल के लिए पश्चाताप करता है। इसलिए कल के दरबार में इसकी भी
आन रखना आपका कर्तव्य है क्योंकि यह भी आपका भक्त है। भक्तों की लाज आप ही के हाथ
में है। अपने भूले-भटके सेवक को उसकी गलती के लिए क्षमा करें। दूसरे दिन वह कारीगर
श्रद्धालू ढाल लेकर गुरू जी के दरबार में मन ही मन आराधना करता हुआ उपस्थित हुआ कि
हे गुरू जी ! उसकी भी लाज रख लेना। गुरू जी ने दरबार की समाप्ति के बाद वह ढाल
मँगवाई तथा उसको एक स्थान पर स्थित करके एक बन्दूक द्वारा उसका निशाना बनाकर गोली
चलाई तो गोली चली ही नहीं मानो बन्दूक खराब हो या बारूद गीला हो। केवल बन्दूक से
खराब बारूद जैसी ध्वनि ही हुई। इस पर गुरू जी ने दूसरी चीजों को निशाना बनाकर गोलियाँ
चलायी तो बन्दूक तथा बारूद ठीक साबित हुआ। इस आश्चर्य को देखकर उस श्रद्धालू कारीगर
से इस विषय में पूछा गया कि क्या कारण है कि उसकी ढाल की तरफ बन्दूक काम ही करना
क्यों बन्द कर देती है। इस पर वह कहने लगा– कि हे गुरू जी ! मैं कल मिथ्या अभिमान
में आपकी अलौकिक शक्ति भूल गया था। अतः पत्नी से उसे समझाया कि उसे प्रायश्चित करना
चाहिए। इसलिए उसने आपकी दर्शाई विधि के अनुसार पाँच प्यारों को भोजन कराकर उनसे
प्रार्थना कराई है कि उसकी आन आज दरबार में रहनी चाहिए। यह सुनकर गुरू जी बोले– जब
वे उसकी ढाल की तरफ निशाना बाँधते हैं, तो वहाँ उन्हें नौ गुरू खड़े दिखाई देते है।
जो कि उसकी ढाल की रक्षा कर रहे हैं। किन्तु अब उनकी भी आन का प्रश्न है। इसलिए उनकी
गोली बन्दूक की नली से बाहर ही नहीं निकली क्योंकि पाँच प्यारे परमेश्वर रूप में
प्रार्थना कर चुके थे। जिससे दोनों पक्षों की आन-बान बनी रही है।